यह सही है कि पश्चिम बंगाल में आज वामदल एवं कांग्रेस शून्य है। यह भी संभव है कि भविष्य में कांग्रेस को अब वहां जमीन प्रयास करने से भी नहीं मिलेगी। कारण कांग्रेस, दक्षिण के प्रदेश में हों या बिहार एवं उत्तरप्रदेश, अब भविष्य में वापसी करेगी, इसकी संभावना स्वयं कांग्रेस को भी नहीं है। यह भी सही है कि आज कांगे्रेस इस बात से प्रसन्न है कि उसने भाजपा को पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने से रोक दिया। वह क्यों खुश है, वह क्यों आत्मघाती दस्ते की तरह राजनीति कर रही है, इसका जवाब वह देगी। पर भाजपा नेतृत्व को भी इससे अतिरिक्त प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है कि आज पश्चिम बंगाल में कांग्रेस कहीं नहीं है।
पश्चिम बंगाल का जनादेश सामान्य नहीं है। भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव 2019 का अपना प्रदर्शन ाी दोहराने में असफल हुई है। 2019 के चुनाव में विधानसभा के लिहाज से देखे तो भाजपा 121 सीट पर बढ़त बनाए भी थी। विगत लगभग दो साल से भाजपा ने विशेष तौर पर अपनी सारी ताकत पश्चिम बंगाल में झोंक रखी थी। बावजूद इसके भाजपा का 77 सीट पर सिमट कर आना गंभीरता से आत्म मंथन का अवसर पार्टी नेतृत्व को देता है।
पहला नेतृत्व को यह मान कर ही रणनीति बनानी ही चाहिए कि वह यह मान कर चले कि जिस प्रकार आपातकाल के समय कांग्रेस बनाम शेष राजनीतिक दल का वातावरण था, आज धीरे-धीरे भाजपा बनाम शेष राजनीतिक दल बन गया है और यह आने वाले समय में और बढऩे वाला है। 2019 का पर्दे के पीछे का पश्चिम बंगाल का गठबंधन 2022 में उत्तरप्रदेश में भी दोहराया जाए, इसकी संभावना नतीजे आने के बाद बन गई है। 2024 में लोकसभा चुनाव में विपक्ष का वोट न बंटे, इसके लिए प्रयास और तेज होंगे। महाराष्ट्र में सत्ता के लिए शिवसेना और कांग्रेस एक घाट पर आ सकती है तो यह मान्यता यूं ही स्थापित नहीं है कि राजनीति असंभव संभावना को भी संभव बनाने का दूसरा नाम है। दूसरा पार्टी नेतृत्व को चाहिए कि वह अति आत्मविश्वास और आत्मविश्वास के बीच, अहंकार और स्वाभिमान के बीच, एक जो पतली सी महीन लक्ष्मण रेखा है उसे पहचाने। निश्चित रूप से अगर चुनाव को युद्ध मान भी लिया जाए तो सैनिकों के मध्य विश्वास बढ़ाने के लिए एक महात्वाकांक्षी लक्ष्य देने ही पड़ते हैं। पर जब नेतृत्व संदेश दे रहा हो तो वह देश भर में आज के सूचना संसार में एक साथ सुना जाता है। यह ध्यान में रखना होगा कि हर प्रदेश का अपना एक स्वभाव होता है, संस्कार होता है। पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश नहीं है। यह सही है कि वहां ममता का आतंक चरम पर है। पर यह भी सही है कि पश्चिम बंगाल का एक बड़ा वर्ग शालीन है, सुसभ्य है, सुसंस्कृत है।
राजनीतिक शब्दावली पश्चिम बंगाल में उत्तर भारत की शैली से भिन्न है और सिर्फ पश्चिम बंगाल ही क्यों आज भाजपा की ओर संपूर्ण देश की निगाहें हैं, अपेक्षाएं है। यही नहीं भाजपा का अपना सकारात्मक पक्ष इतना अधिक है कि वह उसी के आधार पर जनता की अदालत में जा सकती है। नकारात्मक राजनीति यूं भी अच्छी नहीं है, भाजपा के लिए तो बिल्कुल ही नहीं है। एक सीमा से अधिक खासकर जब वह स्तरहीन हो ही जाता है और सामने एक महिला का चेहरा हो तो भारतीय स्वभाव उसे स्वीकार नहीं करता। यह भी इतिहास से सीखना होगा कि जब जब विरोध व्यक्ति केन्द्रित हुआ है, उसका सहानूभूति का लाभ उसी व्यक्ति को मिला है। यह ध्यान में आ रहा है कि कांग्रेस अब बड़ी चुनौती भाजपा के लिए नहीं है, पर क्षेत्रीय दल, क्षेत्रीय क्षत्रप एक बड़ी चुनौती के रूप में भाजपा के सामने हैं। भाजपा के लिए यह संकट उड़ीसा में भी है। दक्षिणी प्रदेशों में भाजपा को स्वीकार्य चेहरा बनाने के लिए पर्याप्त परिश्रम की आवश्यकता है।
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा यद्यपि भारतीय संस्कृति में अपेक्षित नहीं है। भाजपा अपनी व्याप्ति का आव्हान करें पर इसे स्वीकार कर भी लिया जाए तब भी यह विचार करना होगा कि कांग्रेस रूप बदलकर आ सकती है। महाराष्ट्र का प्रयोग पश्चिम बंगाल का नेपथ्य में हुआ गठबंधन कांग्रेस की ही परोक्ष रणनीति भी है, यह मान कर चलना होगा। कांग्रेस की हम इस बात की निंदा करके कब तक खुश होंगे कि वह खुद मिट गई। यह उसकी रणनीति भी आज की विवशता में हो सकती है और तात्कालीक रूप से ही सही न केवल वह सफल है अपितु ाविष्य की नई राजनीतिक सं ावनाओं के दरवाजे खोल रही है।
भाजपा नेतृत्व के लिए चुनौतियां यहीं से और कठिन होती है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भाजपा के सबसे बड़े ब्रान्ड हैं। उनका उपयोग कितना और कहां और किस सीमा तक इस पर गहराई से विचार की आवश्यकता है। कारण क्षेत्रीय क्षत्रपों से राष्ट्रीय नेतृत्व के आमने-सामने में खोने की आशंका उसके लिए अधिक है, जिसका दांव पर अधिक लगा है। बंगाल जीतने के बाद ममता बनर्जी महागठबंधन की नेता हो सकती है। यह चर्चा चल रही है। पर यदि भाजपा जीतती तो क्या नरेन्द्र मोदी को पश्चिम बंगाल का मु यमंत्री बनाने की चर्चा होती क्या, इस पर नेतृत्व को विचार करना होगा। एक बात और, राजनीति की यह स्वाभाविक मांग है कि चुनाव जीते जाएं। पर यह मांग अमर्यादित होगी तो इसके खतरे भी हैं। मध्यप्रदेश में दमोह के नतीजें इसे पुष्ट कर रहे हैं। तृणमूल से सत्ता छीनने के लिए दशकों से उन्हीं का आतंक झेल रहे चेहरों को ही आप आगे रख कर मैदान में उतरेंगे तो आपका अपना कैडर जो अभी शाब्दिक अर्थ में तृणमूल ही है। किस विश्वास से खड़ा होगा। नतीजों की गहराई से समीक्षा करेंगे तो रणनीतिक भूल यहां दिखाई देगी।
ऐसा भी नहीं कि सारी भूल भाजपा नेतृत्व की ही है। पश्चिम बंगाल के प्रबुद्ध वर्ग को, सर्वहारा वर्ग को असम जो कि उनका ही पड़ौसी है सीखना था कि भाजपा सबको साथ लेकर चलती है। सीएए के भ्रम को भी असम की जनता ने तमाचा मारा है जबकि पश्चिम बंगाल की जनता जहां राष्ट्रीय चेतना के स्वर और मुखर होने थे, वह अपने प्रासंगिक एवं युगानुकूल राष्ट्रीय कर्तव्य से चूक गई। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। जनादेश का स मान करना ही होगा। पर यह प्रजा पर भी निर्भर है कि कैसा राजा चाहती है। राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर पश्चिम बंगाल का जनादेश इस परिप्रेक्ष्य में चिंतित तो करता ही है।
अंत में पुन: भाजपा के नेतृत्व के लिए ही राष्ट्रीय महत्व के विषय जिसमें कोरोना महामारी से उपजी चुनौतियां हटा ाी दे जो कम महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आज तो वही सर्वाधिक है, देश के नि न मध्यमवर्गीय जनता से जुड़े आर्थिक विषय ऐसे भी हैं जिनको स बोधित करना तत्काल प्राथमिकता में आना चाहिए, कारण यह वर्ग भाजपा का पर परागत शुभचिंतक है। छलांग लगाना ही चाहिए पर आधार का अपना महत्व सर्व विदित है। यह भी भाजपा को समझना होगा। साथ ही भाजपा के अपने जो मूल विषय हैं, उसे लेकर प्रभावी जनजागरण की आवश्यकता है। केरल का जनादेश यह बता ही रहा है कि रास्ता अभी भी आसान नहीं है।