पर्यावरण विशेष : पृथ्वी व्यथित है
विश्व का अस्तित्व खतरे में है। पर्यावरण का असंतुलन समूचे विश्व विनाश की आहट है।
पृथ्वी व्यथित है। इसके अंगभूत जल, वायु, वनस्पति और सभी प्राणी आधुनिक जीवनशैली के हमले के शिकार हैं। पृथ्वी असाधारण संरचना है। ऋग्वेद के अनुसार "पृथ्वी पर्वतों का भार वहन करती है। वन वृक्षों का आधार है। वही वर्षा करती है। वह बड़ी और दृढ़ है, प्रकाशवान है।" अमेरिकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद का अनुवाद किया और पृथ्वी सूक्त की प्रशंसा की "पृथ्वी ऊंची है, ढलान और मैदान भी हैं। यह वनस्पतियों का आधार है और बहुविधि कृपालु है।" पृथ्वी सूक्त के कवि अथर्वा हैं। अथर्वा कहते हैं "पृथ्वी का गुण गंध है। यह गंध सबमें है, वनस्पतियों में है। यह पृथ्वी संसार की धारक व संरक्षक है। वह पर्जन्य की पत्नी है। यह विश्वम्भरा है। पृथ्वी पर जन्मे सभी प्राणी दीर्घायु रहें। हम माता पृथ्वी को कष्ट न दें। यह माता है।" पृथ्वी, जल, वनस्पतियों, सभी जीव पर्यावरण चक्र के घटक हैं और जीवन के संरक्षक भी। इनमें वायु महत्वपूर्ण हैं। ऋग्वेद का ऋषि (ऋ0 1.90.6) कवि वायु को ही प्रत्यक्ष ब्रह्म या ईश्वर बताता है "त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्म असि।" वायु प्राण है। वायु से आयु है। विश्व पर्यावरण के सूत्र भारत की ही धरती पर खोजे गए थे। शुद्ध पर्यावरण ही जीवन का आधार है। भारत के जन-गण-मन की प्राचीन संवेदनशीलता के खो जाने के कारण आज का भारत भूमण्डलीय ताप के खतरे में संवेदनशील है। पुरातन के गर्भ से युगानुकूल अधुनातन का विवेक चाहिए। विकास की भारतीय परिभाषा के सूत्र भी इसी में हैं।
विश्व का अस्तित्व खतरे में है। पर्यावरण का असंतुलन समूचे विश्व विनाश की आहट है। पृथ्वी अशांत है, भूस्खलन और भूकम्प है। वायु अशांत है, आंधी और तूफान है। जल अशांत है, बाढ़, अतिवृष्टि। अनावृष्टि के कोप हैं। वन उपवन अशांत हैं। अपनी प्राण रक्षा करें तो कैसे करें। सभी जीव अशांत हैं। पक्षी कहां रैन बसेरा बनाएं? यजुर्वेद (यजु 36.17) के कवि ऋषि ने सहस्त्रों वर्ष पहले अभिलाषा की थी "अंतरिक्ष शांत हो। पृथ्वी शांत हो। वायु और जल शांत हों। वनस्पतियां औषधियां शांत हों। सर्वत्र सब कुछ शांत प्रशांत हों।" यह ऋषि कवि संभवतः भविष्य का ताप उत्ताप देख रहा था। उसने शांतिपाठ के माध्यम से भरतजनों का मार्ग दर्शन किया था। विश्वबैंक आदि संस्थाओं के आकलन भी ऐसे ही आते हैं। लेकिन दोनो में आधारभूत अंतर है। ऋषि के सामने जीडीपी गिरावट की समस्या नहीं थी। वह संपूर्ण विश्व का आनंद अभ्युदय ही देख रहा था। मूलभूत प्रश्न है कि आखिरकार क्या वन उपवन उजाड़कर, कंक्रीट के महलों से प्राण वायु, रस या गंध का आनंद ले सकते हैं? ऐसे टिकाऊ विकास में हम टिकाऊ नहीं हैं। हमारा जीवन क्षणभंगुर और विकास टिकाऊ? दुनिया विकास के नाम पर ही नष्ट होने के कगार पर है। विकास की परिभाषा क्या है? क्या हम प्राणलेवा विषभरी वायु में मर जाने के बदले विकास चाहते हैं? क्या हम विकास के नाम पर औद्योगिक कचरे के आर्सेनिक, लेड आदि रसायनों से भरे पानी को पीने के लिए विवश हैं?
2005 में संयुक्त राष्ट्र का "सहस्त्राब्दी पर्यावरण आकलन - मिलेनियम इकोसिस्टम ऐसेसमेन्ट" आया था। इसके अनुसार पृथ्वी के प्राकृतिक घटक अव्यवस्थित हो गए हैं। दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा घट रही है। रिपोर्ट में चीन की येलो, अफ्रीका की नील और उत्तरी अमेरिका की कोलराडो नदियों में पानी घटने का उल्लेख था। गंगा यमुना आदि नदियां जलहीन हो रही हैं। पक्षियों की अनेक प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं। जैव विविधता जलवायु का आधार है। अनेक जीव प्रजाति नष्ट हो चुके हैं। इस रिपोर्ट के पहले साल 2000 में पेरिस में 'अर्थचार्टर कमीशन' ने पृथ्वी और पर्यावरण संरक्षण के 22 सूत्र निकाले थे। लेकिन परिणाम शून्य रहा। पृथ्वी की ताप बढ़त को अधिकतम 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने पर भी सहमति बनी। बीते 150 वर्ष में 0.80 सेल्सियस की वृद्धि पहले हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने आगे 2020 तक उत्सर्जन आकलन बताए थे। वे तापवृद्धि 2.0 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के अनुरूप नहीं हैं। वाहन बढ़े हैं। खतरनाक गैसें बढ़ी हैं। वन क्षेत्र घटा है। 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने टिकाऊ विकास के 17 सूत्र लक्ष्य तय किये थे। पर्यावरण भी इनमें महत्वपूर्ण सूत्र है।
पृथ्वी परिवार पर अस्तित्व संकट है। बदलते भूमण्डलीय ताप ने दक्षिण एशिया को कुप्रभावित किया है। भारत इसी क्षेत्र का प्रमुख हिस्सा है। विश्वबैंक की रिपोर्ट आई है। "दक्षिण एशियाई हॉट स्पॉट: तापमान के प्रभाव और जीवर स्तर का परिवर्तन" शीर्षक की इस रिपोर्ट के अनुसार "जलवायु परिवर्तन से 2050 तक भारत की जीडीपी को 2.8 प्रतिशत की क्षति हो सकती है।" रिपोर्ट का मन्तव्य साफ है। बढ़ते तापमान से ऋतु चक्र अव्यवस्थित होगा। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा होगा। सूखा, बाढ़ और तूफान बढ़ सकते हैं। कृषि को नुकसान होगा। मानव जीवन अव्यवस्थित होगा। एनएसबीसी बैंक ने भी दक्षिण एशिया में भारत को सबसे ज्यादा नुकसान वाला क्षेत्र बताया था। बांग्लादेश व पाकिस्तान कम क्षति वाले क्षेत्र बताए गये थे। रिपोर्ट में उत्तरी, उत्तर पश्चिम के क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील बताए गए थे। भारत जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की गिरफ्त में है बावजूद इसके हम भारत के लोग अपनी जीवनशैली में बदलाव को तैयार नहीं हैं। हम परंपरागत प्राकृतिक स्वाभाविक जीवनशैली से दूर हैं।
वैदिक भारत के लोगों की जीवनशैली पर्यावरण प्रेमी थी। तब यही भारत जलवायु और पर्यावरण संरक्षण का अति संवेदनशील भूखण्ड था। धरती से लेकर आकाश तक पर्यावरण की शुद्धता भारत की बेचैनी थी। विश्व इतिहास में पृथ्वी और जल को माता बताने की घोषणा ऋग्वेद के पूर्वजों ने की। उन्होंने पृथ्वी को माता और आकाश को पिता कहा। अथर्ववेद के कवि ऋषि ने 'मात भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्या' की घोषणा की थी। ऋग्वैदिक समाज ने वर्षा के इन्द्र, वरूण आदि कई देवता थे। लेकिन पर्जन्य नाम के वर्षा देव निराले हैं। वे प्रकृति की अनेक शक्तियों से भरेपूरे हैं। समूचे जल प्रपंच के देव है पर्जन्य। ऋग्वेद (1.164) बताते हैं "सत्कर्म से समुद्र का जल ऊपर जाता है। वाणी जल को कंपन देती है। पर्जन्य वर्षा लाते हैं। भूमि प्रसन्न होती है।" यहां वर्षा पर्जन्य की कृपा है। आकाश पिता हैं। उनका रस पर्जन्य है। पर्जन्य वस्तुतः ईकोलॉजिकल साईकिल - पर्यावरण चक्र हैं। तभी तो वे मंत्रों स्तुतियों से ही प्रसन्न नहीं होते। वे पृथ्वी, जल, वायु नदी, वनस्पति और कीट-पतंग सहित सभी प्राणियों के संरक्षण से ही प्रसन्न होते हैं। पर्यावरण के सभी घटकों का संरक्षण ऋग्वैदिक जीवन का सीधा सूत्र है। हम संस्कृति और परम्परा को पिछड़ा बताते हैं, आयातित जीवनशैली को आधुनिक कहते हैं। अपनी प्राचीनता के भीतर से आधुनिकता का विकास नहीं करते।
वृक्ष वनस्पतियां पृथ्वी परिवार के अंग हैं। वृक्ष कट रहे हैं। वन क्षेत्र घट रहे हैं। पेड़ कटाई की अनुमति सामान्य कर्मकाण्ड है। पेड़ कटाई की अनुमति में पर्यावरण कोई विषय नहीं होता। नगरों महानगरों के अराजक विस्तार में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई होती है। नगरीय विस्तार की कोई सीमा नहीं है। नगर अपने विस्तार में जल, जंगल और जमीन को निगलते रहते हैं। नगर क्षेत्र विस्तार की पर्यावरण मित्र नीति बनानी चाहिए। पेड़ भी प्राणी है। वे प्रकृति से ही सभी जीवों के लिए प्राणवायु देते हैं। कथित विकास मानवजीवन से दूर है और उपभोक्तावादी है। वैदिक पूर्वज पेड़ों को नमस्कार करते थे। आधुनिक मन को यह हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन इसकी मूल भूमि पर्यावरण संरक्षण ही है। भारत को भारत की जीवनशैली ही अपनानी चाहिए। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर की उपासना करते हुए ही जीवन का अविरल प्रवाह संभव है।