भारत के उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू की अरुणाचल-प्रदेश यात्रा पर चीन ने खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे की तर्ज पर आपत्ति जताई है। आखिर अपने ही देश में क्या कोई नेता पड़ोसी देश से पूछकर जाएगा। चीन की आपत्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसका प्रतिवाद करते हुए विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने ठीक ही कहा है कि 'हम ऐसी टिप्पणियों को सिरे से खारिज करते हैं, अरुणाचल प्रदेश अखंड भारत का हिस्सा है और रहेगा।' नायडू अरुणाचल की शासकीय यात्रा पर तो गए ही, उन्होंने वहां प्रदेश की राज्य विधानसभा को भी संबोधित किया था। चीन भारतीय नेताओं के अरुणाचल दौरे को नकारता रहा है, क्योंकि वह इस राज्य को दक्षिण तिब्बत का हिस्सा मानता है और समूचे तिब्बत को चीन हड़प चुका है। वह सोचता है, मासूम तिब्बत की तरह अरुणाचल को भी हड़प ले ? चीन बौद्ध धर्मगुरू, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अरुणाचल यात्राओं पर भी आपत्ति जताता रहा है।
चीन अरुणाचल प्रदेश के शिखर क्षेत्र त्सारी चू में गांव बसाने की हरकत भी कर चुका है। उसने तिब्बत के दक्षिणी क्षेत्र जंगनान से जुड़ी नीति में भी कोई परिवर्तन नहीं किया है। चीन ने कहा है कि यह जंगनान क्षेत्र (जो कि भारत का अरुणाचल प्रदेश है) है, उसके साथ अरुणाचल के अस्तित्व को भी कोई मान्यता नहीं देता है। मसलन संपूर्ण अरुणाचल को चीन विवादित क्षेत्र मानकर चल रहा है। साफ है, चीन पड़ोसी देशों की संपत्ति हड़पने की हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। भारत की चीन और पाकिस्तान से लगी सीमा में सुरक्षा के लिहाज से हमेशा शंका व संकट बने रहते हैं। हमारी गुप्तचर संस्थाएं भी सबसे ज्यादा इसी सीमा पर सक्रिय रहती हैं। चीन ने भूटान सीमा पर डोकलाम क्षेत्र में भी जबरन सामरिक महत्व की सड़क बनाने एवं भूटान की सीमा में दो किलोमीटर भीतर घुसकर गांव बसा लिया था। चीन ने नेपाल में भी 150 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा कर लिया है। सुबनसिरी जिले की सीमा लंबे समय से विवाद का हिस्सा रही है। इसे लेकर सशस्त्र संघर्ष भी हो चुका है।
चीन ने यह विवाद ऐसे समय खड़ा किया है, जब लद्दाख की गलवान घाटी में विवाद बरकरार है। दरअसल, अब तक चीन सीमाई क्षेत्रों में रेल एवं सड़क के सरंचनात्मक ढांचे खड़े करता रहा है। उसने तिब्बत की राजधानी ल्हासा से न्यांगची तक रेल लाइन बिछाने में बड़ी कामयाबी हासिल कर ली है। पिछले सात साल के भीतर भारत ने भी सड़कें, पुल और रेल लाइनें बिछाने के काम को तेजी से आगे बढ़ाया है। इस वजह से चीन परेशान है और अपने विस्तारवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए सीमा पर नए-नए विवाद खड़े कर रहा है। चीन के इन मंसूबों का अंदाजा लगाकर अरुणाचल प्रदेश से भाजपा सांसद तापिर गावो ने संसद में कहा था कि अरुणाचल सीमा पर चीन की घुसपैठ निरंतर बढ़ रही है। गावो ने इस परिप्रेक्ष्य में सुबनसिरी जिले का विशेष रूप से उल्लेख किया था।
हिमालय क्षेत्र में सीमा विवाद निपटाने के लिए 1914 में भारत-तिब्बत शिमला सम्मेलन बुलाया गया था। इसमें मैकमोहन रेखा से भारत-तिब्बत के बीव सीमा का बंटवारा किया गया था। चीन इसे गैरकानूनी औपनिवेशिक और पारंपरिक मानता है, जबकि भारत इस रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा का दर्जा देता है। तीन हजार, 488 किलोमीटर लंबी यही रेखा जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल और भूटान तक विवाद की जड़ बनी हुई है। इस संबंध में 1890 में पहली बार सीमा समझौता हुआ था। इसके बाद तीन बड़े समझौते और भी हुए, लेकिन चीन इन्हें अपने अनुसार तोड़-मरोड़कर पेश करके अपना हक जमाता रहता है।
दरअसल, चीन भारत के बरक्श बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है और दूसरी तरफ ढाई हजार साल पुराने भारत चीन के सांस्कृतिक संबंधों के बहाने हिंदी-चीनी भाई-भाई का राग अलाप कर भारत से अपने कारोबारी हित साध लेता है। चीन का तीसरा मूखौटा दुश्मनी का है, जिसके चलते वह पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकता है। साथ ही उसकी यह मंशा भी हमेशा रही है कि भारत न तो विकसित हो और न ही चीन की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत हो। किंतु अब भारत विकसित होने के साथ अर्थव्यवस्था को भी मजबूत बनाने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। इस दृष्टि से वह पाक अधिकृत कश्मीर, लद्दाख और अरुणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है। इन बेजा हरकतों की प्रतिक्रिया में भारत द्वारा विनम्रता बरते जाने का लंबा इतिहास रहा है, इसी का परिणाम है कि चीन आक्रामकता दिखाने से बाज नहीं आता।
दरअसल, चीन का लोकतांत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है, जो गाय का मुखैटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्राणियों का शिकार करता है। इसका नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आराध्य स्थल के नाम से हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में दर्ज है, सभी ग्रंथों में इसे अखंड भारत का हिस्सा बताया गया है। लेकिन यह स्थल अब चीन के कब्जे में है। यही नहीं, गूगल अर्थ से होड़ बररते हुए चीन ने एक ऑनलाइन मानचित्र सेवा शुरू की है। इसमें भारतीय भू-भाग अरुणाचल और अक्शाई चिन को चीन ने अपने हिस्से में दर्शाया है। विश्व-़मानचित्र खण्ड में इसे चीनी भाषा में दर्शाते हुए अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से बना हुआ है। वह अरुणाचलवासियों को चीनी नागरिक भी मानता है।
चीन की दोगली कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं, दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। दुनिया जानती है कि भारत-चीन की सीमा विवादित है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की कोई रुचि नहीं है। वह केवल घुसपैठ कर अपनी सीमाओं के विस्तार की मंशा पाले हुए है। चीन भारत से इसलिए नाराज है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बतियों को भारत में शरण दी थी। जबकि चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई का विरोध करे। दरअसल, भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल एवं असमंजस की नीति अपनाई हुई है। जब हमने तिब्बतियों को शरणर्थियों के रूप में जगह दे दी थी, तो तिब्बत को स्वंतत्र देश मानते हुए अंतरराष्ट्रीय मंच पर सर्मथन की घोषणा करने की जरूरत भी थी ? डॉ. राम मनोहर लोहिया ने संसद में इस आशय का बयान भी दिया था। लेकिन ढुलमुल नीति के कारण नेहरू ऐसा नहीं कर पाए ?
चीन को खुश करने की दृष्टि से पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का पांच हजार,180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ वर्षों के भीतर ही 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेश कर दिया। चीन की पीओके में शुरू हुई गतिविधि सामरिक दृष्टि से चीन के लिए हितकारी हैं। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं, चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से तीन हजार, 750 मीटर की उंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामारिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोशुओ काउंटी भारत के अरुणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था।
यह ठीक है कि भारत और चीन की सभ्यता पांच हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है। भारत ने संस्कृति के स्तर पर चीन को हमेशा नई सीख दी है। अब से करीब दो हजार साल पहले बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था। वहां पहले से कनफ्यूशिस धर्म था। दोनों को मिलाकर नव कनफ्यूशनवाद बना। इसे चीन ने अंगीकार किया। चीन भारत के प्रति लंबे समय से आंखें तरेरे हुए है। हालांकि अब भारत भी चीन को आंखें दिखाते हुए करारा जवाब दे रहा है। गलवान घाटी में उसके 50 से ज्यादा सैनिकों का मारा जाना मुंह पर तमाचा मारने जैसा है। लेकिन पीठ में छुरा भोंकने का आदी चीन बाज नहीं आ रहा है।
(लेखक साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)