भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश विरोधी नारे तक लगाए हैं। इसकी आड़ में धवल चरित्र वाले व्यक्ति पर लांछन भी लगाए जाते रहे हैं। यह निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं हो सकती। ऐसा प्रकरण पूरी तरह से मानहानि के दायरे में आता है। अभी हाल ही में ऐसा ही कुछ कृत्य अपने आपको पत्रकार कहने वाले प्रशांत कन्नौजिया ने किया है। जिसके चलते उनको उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गिरफ्तार किया। इसके बाद पत्रकार प्रशांत कन्नौजिया को रिहा करने के आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने दे दिए हैं और वे रिहा भी हो गए लेकिन इसके साथ ही यह भी कहना जरूरी होगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशांत कन्नौजिया की टिप्पणी को ठीक नहीं माना है। सवाल यह भी आता है कि प्रशांत कन्नौजिया जो लिख रहे हैं, क्या वह पत्रकारिता की परिधि में आता है या पत्रकारिता के जो मानदंड हैं, उस पर वे खरे उतर रहे हैं? पत्रकारिता अगर समाज का आईना है तो समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग प्रशांत कन्नौजिया के लिखे को कसूरवार मानता है। आम जनता की उस कसौटी पर वे खरे नहीं उतर पा रहे हैं।
यह सही है कि संविधान ने सभी को अपनी बात कहने की स्वतंत्रता दी है लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि बिना सोचे-समझे और बिना किसी आधार के हम किसी पर भी चरित्रहीनता का आरोप लगाकर बदनाम करें। खासतौर पर प्रशांत कन्नौजिया जिस पेशे से जुड़े हैं, उस पेशे में तो हर कदम फूंक-फूंककर ही रखे जाने चाहिए। पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है, जिसमें किसी के खिलाफ खबर लिखने के लिए पर्याप्त प्रमाण की आवश्यकता होती है और हर रिपोर्टर खबर लिखने से पहले इसके पर्याप्त प्रमाण अपने पास सहेजकर इसलिए रखता है ताकि मामला न्यायालय में जाने पर वह अपना पक्ष रख सके। लेकिन प्रशांत कन्नौजिया ने ऐसा नहीं किया और शायद इसीलिए न्यायालय ने उसकी गिरफ्तारी पर नाराजगी जताते हुए रिहा करने की बात तो कही लेकिन उनके ट्वीट को सही नहीं कहा। इसलिए प्रशांत कन्नौजिया अपने लिखे को सही नहीं ठहरा सकते।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रिहा करने के आदेश को प्रशांत कन्नौजिया की जीत नहीं कहा जा सकता। वे निर्दोष हैं ऐसा भी नहीं है। न्यायालय ने जिस प्रकार से इस मामले में समुचित कार्रवाई की बात भी कही है, उससे यही लगता है कि प्रशांत कन्नौजिया अभी प्रकरण के दायरे में हैं और यह भी हो सकता है कि प्रशांत कन्नौजिया को सजा भी मिले।
प्रशांत कन्नौजिया के चरित्र व उनकी लेखन शैली क्या है, इसका अंदाजा उनके ट्विट देखने मात्र से ही किया जा सकता है। उन्होंने अपने संदेश में संवैधानिक पदों पर विराजमान व्यक्तित्वों के चरित्र पर हमला किया है। यह भारत देश का स्वभाव नहीं हैं। उनका एक ही एजेंडा रहा है किसी भी तरह से देश को बदनाम किया जाए। लोकसभा चुनाव में जब भाजपा प्रचंड बहुमत से विजयी हुई तब कन्नौजिया अपने ट्विट के माध्यम से कहते हैं अब हमारी संसद में आतंकवादी पहुंच गए हैं। देश के गृहमंत्री अमित शाह जब अपने पद व गोपनीयता की शपथ ले रहे थे तब इन्होंने देश के गृहमंत्री के खिलाफ जहर उगलते हुए ट्वीट किया। हिन्दू धर्म के खिलाफ प्रशांत कन्नौजिया ने लिखा-राम ने ऐसा क्या किया जो उनके आगे जय और श्री लगाया जाए। उन्होंने प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी महेन्द्र सिंह धोनी की देशभक्ति पर भी सवाल खड़े किए। प्रशांत कन्नौजिया लिखते हैं ये धोनी इंडिया के लिए खेलते हैं या फिर बीसीसीआई के लिए। कुछ इसी तरह के ट्वीट उन्होंने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ भी किए, जिस पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था।
क्या इन ट्वीटों को देखकर प्रशांत कन्नौजिया की पत्रकारिता पर सवाल नहीं उठने चाहिए?
जो लोग कन्नौजिया का बचाव कर रहे हैं उन्हें भी समझना चाहिए कि जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर उसे बचाने के लिए तर्क दिए जा रहे हैं तो क्या जिनकी प्रतिष्ठा पर हमला हुआ हो उनका कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है? अगर ऐसा ही चलता रहा तो कल के दिन स्वाभाविक रूप से कोई भी व्यक्ति किसी के बारे में कुछ भी लिख सकता है और कुछ भी बोल सकता है। सवाल यह भी है कि जब इस तरह के ट्वीट, खबरें लिखी और दिखाई जाती हैं, तब वे कहां होते हैं जो आज कन्नौजिया के समर्थन में खड़े हैं? क्या ऐसे संगठनों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए कोई सांस्थानिक व्यवस्था करें? मीडिया के सामने प्रश्न कन्नौजिया का नहीं, पूरी पत्रकारिता की विश्सनीयता का है। सोचने का समय है कि कन्नौजिया जैसों को बचाने से मीडिया की विश्वसनीयता बनती, बढ़ती है या खत्म होती है?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)