सनातन का उपहास विकृत मानसिकता ? या (कथा जेहाद)

राजेंद्र जोशी

Update: 2021-07-20 09:49 GMT

व्यास पीठ का हिंदू धर्म या सनातन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। पीठ के प्रति प्रत्येक सनातन धर्मावलंबी हिंदू के मन में अत्यंत मान सम्मान है। मैं भी व्यास पीठ का दिल से सम्मान करता हूँ। आदर करता हूँ। आज इस सम्मानित व्यास पीठ के सम्मान को कुछ तथा कथित कथा वाचक कलंकित करने का कुत्सित प्रयास करने में लगे हैं। जो गंभीर चिंता का विषय है। व्यास पीठ की गरिमा और पवित्रता को बनाये रखने के लिए सनातन धर्मावलंबियों को इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

वर्तमान युग के तथाकथित कुछ स्वयं भू महिला पुरुष कथा वाचक सनातन धर्म की प्रति स्थापना के लिए कतई भी अवतरित नहीं हुए हैं। ये तथाकथित कथा वाचक वेद व्यास के बाद अपने आपको आधुनिक युग के स्वयं भू व्यास समझने की भूल कर बैठे हैं। अपने आपको सर्वग्य ज्ञाता समझ बैठे हैं। जबकि इनका काम एक धार्मिक पुस्तक को पढ़ कर सुनाना भर है। कथा को वांचना भर है। ये तथाकथित कथा वाचक धर्म के नाम पर धब्बा हैं। इनका धर्म के प्रचार प्रसार में कोई भी योगदान नहीं है।वैसे इनका यह काम है भी नहीं। यह कथा वाचक हैं और यह विशुद्ध रूप से इनका व्यवसाय है। कथा इनका व्यापार है।

ये कथा वाचक कोई संत, महात्मा और समाज को राह दिखाने तथा सन्मार्ग पर ले जाने वाले परम ज्ञानी महा पुरुष नहीं हैं। आपको सनातनी इतना मान सम्मान केवल इसलिए देता है क्योंकि सदियों से चली आ रही एक महत्वपूर्ण परंपरा एक प्राचीन विरासत जो हमको पुरखों से धरोहर के रूप में मिली है उसके आप अनुचर हैं। अनुरक्षक हैं। अनुपालक हैं। अनुगामी हैं। वेद व्यास द्वारा स्थापित धर्म पीठ पर बैठकर आपको कथा वांचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह उस पीठ का सम्मान है। उस आसन पर बैठने वाले का पारितोषिक है। व्यास पीठ पर बैठने वाले को भी सम्मान तो दिया ही जाता लेकिन वह सुपात्र होना चाहिए।

कथा वाचक को सदाचारी तो होना ही चाहिए उसका सनातन और हिंदू मान्यताओं में पूर्ण विश्वास होना चाहिए। वह तन मन कर्म और वचन से धर्म के प्रति समर्पित होना चाहिए। उसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। उसको शास्त्रों में जो लिखा है उसको उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। शास्त्रों के इतर क्या लिखा है? किसने क्या कहा है? उस प्रसंग को कथा में जोड़ कर अपने आप को बुद्धि मान और चतुर साबित करना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अन्य मजहब, संप्रदाय और उनके पीर पैगम्बर का श्री राम कथा या भागवत कथा से कोई लेना देना नहीं है। तुम अपनी विद्वता अपने पास रखो। उसके लिए यह मंच उपयुक्त स्थान नहीं है। कहीं अन्यत्र सेमीनार में उसका और अपनी बुद्धि का बखान करना। यह कथा का मंच है और यहाँ मात्र कथा ही होगी और कुछ नहीं। अपना ज्ञान अपने पास रखो। यहाँ लोग कथा सुनने आते हैं। तुम्हारी शेरो शायरी, गजल सुनने नहीं आते हैं। यह सब मुशायरे में जाकर सुनाया करो। समझ आ जानी चाहिए यदि तुम्हारे भेजे में मष्तिष्क हुआ तो।

आपको सनातनी इतना मान सम्मान देता है। उसका तात्पर्य यह कदापि भी नहीं है कि तुम राजा हो गये और श्रोता तुम्हारी प्रजा। यह खयाल अपने मन से निकाल देना। आवश्यक नहीं सभी कथा वाचक एक जैसे बुरे,लालची, चतुर और पाखंडी हैं। अपवाद स्वरूप कुछ ही ढोंगी पाखंडी हैं। वैसे अधिकांश अच्छे और सच्चे ही हैं। अच्छे और सच्चे होने ही चाहिए। जो अच्छे हैं वो अच्छे ही रहेंगे। मेरा अभिप्राय जिनसे है, वह अपने कृत्यों से समझ ही जायेंगे। इनका बहिष्कार करना आवश्यक है। इनकी नजर भक्तों द्वारा दिये गये दान और व्यास पीठ पर पड़े हुए नोटों के बंडलों अथवा आयोजकों द्वारा तय निर्धारित भारी भरकम राशि पर रहती है। आज इस प्रकार की भव्य कथा करवाने वाले आयोजक और कथा वाचक दोनों के बीच एक गठजोड़ सा बन गया है। एक पैसों के लिए कथा का आयोजन करता है, तो दूसरा पैसों के लिए कथा वाचन करता है। इनके द्वारा भागवत कथा या राम कथा का आयोजन भक्ति भाव और भगवत प्राप्ति के लिए नहीं अपितु लक्ष्मी जी की प्राप्ति के लिए किया जाता है।

ये लोग शत प्रतिशत व्यावसायिक लोग हैं। इनका ये रोजगार है। इनके लिए कथा करना एक धंधा है। आज ये कथावाचक कम अभिनेता अधिक हो गये हैं। व्यास पीठ पर बैठने से पहले अनेक उपक्रम होते हैं। परिधानों का चयन होता है। केश विन्यास से लेकर चेहरे का मेकअप किया जाता है। कैमरे के आगे आने के लिए जिस भी तैयारी की आवश्यकता होती है वह पूरी की जाती है। महिला कथा वाचक तो छोड़ दीजिए पुरुष कथा वाचक भी मेकअप के साथ साथ लिपस्टिक लगाने लग गये हैं। ये छद्म वेष धारी कथावाचक पहुंचे हुए, चतुर चालाक, ढोंगी नंबर एक हैं। इन्होंने धर्म की आड़ लेकर कथाओं और प्रवचनों को अपनी कमाई का जरिया बना दिया है। इन्होंने वेशभूषा, वाक पटुता, भाव भंगिमा तथा अभिनय शैली से लोगों के बीच अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बना ली है। कथा में किसी करुणा के प्रसंग पर इनकी आंखों से झर झर आंसू झरने लगते हैं। कथा के बीच बीच में विभिन्न प्रसंगों पर ये कुशल कलाकार रोने का अभिनय करने लगते हैं।

जैसे टीवी पर समाचार प्रस्तुत करने के लिए समाचार वाचक होते थे, थे इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आज समाचार वाचक की जगह एंकर ने ले ली है। समाचार वाचक से एंकर बने महानुभावों की भूमिका वांचने से अधिक प्रतिभागियों और दर्शकों पर अपनी बात थोपने और मनवाने की अधिक रहती है। वाचक का काम होता है जैसी स्क्रिप्ट है उसे वैसे ही पढ़ लेना। ठीक वैसे ही कथा वाचक का काम भी होता है जैसी कथा है ठीक वह पढ़ कर दर्शकों, श्रोताओं को कथा सुनाना। इससे अधिक यह हो सकता है यदि संस्कृत में श्लोक हैं तो वह श्लोक पढ़ कर उसका भावार्थ श्रोताओं को बतला दें। वैसे श्लोक पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है। जिस भाषा में भी कथा प्रस्तुत की जा रही है उसी भाषा में सीधे श्रोताओं को भावार्थ समझा दिया जाय। इससे एक तो समय बच जायेगा और दूसरा बनावटी पन तथा नाटकीयता भी समाप्त हो जायेगी।

वास्तव में ऐसी कथाओं का आयोजन वर्तमान समय में, समय और धन का दुरुपयोग है। यह अतीत में आवश्यक रही होंगी क्योंकि तब समय का अभाव नहीं था। यजमान अपनी सामर्थ्य अनुसार कथा का आयोजन करता था और कुल पुरोहित यजमान के लिए कथा कर दिया करते थे। तब भव्यता से अधिक भक्ति का भाव हुआ करता था। सभी धार्मिक शास्त्रों, ग्रंथों की मूल रचना संस्कृत में कई गई है। तब हर व्यक्ति संस्कृत पढ़ नहीं सकता था और न ही शास्त्र सर्व सुलभ हुआ करते थे। इसलिए तब इस प्रकार की कथाओं का अपना महत्व था। एक साथ सैकड़ों लोग, पूरा समाज कथा का आनंद भी उठाते थे और उससे लाभान्वित भी होते थे। ज्ञान वर्धन के लिए इस प्रकार की कथाएं, प्रवचन या सत्संग उपयुक्त माध्यम थे। एक प्रकार से समाज में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए और समाज को जागृत करने के लिए इन कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान था।

आज स्थिति पूर्ण रूप से बदल चुकी है। आज हम अनेक माध्यमों से, विभिन्न भाषाओं में, किसी भी विधा की जानकारी ले सकते हैं। आपको जो भी भाषा पढ़नी आती है उस भाषा के लगभग सारे शास्त्र उपलब्ध हैं। आप स्वयं पढ़ सकते हैं। फिर भी कथाएँ होती रहेंगी। कथाओं का महत्व बना रहेगा। मैं कथाओं का विरोधी नहीं हूँ।

मैं कथाओं की प्रस्तुति और स्वरूप को लेकर चिंतित हूँ। कथाओं में आ गई मिलावट मेरी चिंता है। नाटकीयता, बनावटी पन, दिखावा, चमक दमक और व्यावसायिकता मेरी चिंता के कारण हैं। यहाँ कथा से किसी को कोई समस्या नहीं है। समस्या कथा सुनाने वालों से है। उनके आचरण से है। उनके व्यवहार से है। मैं आडंबर पूर्ण कथाओं का विरोधी हूँ। व्यास पीठ पर बैठा हुआ व्यक्ति भक्ति,ज्ञान और सादगी का प्रतीक होता है। लेकिन आज व्यास पीठ पर आसीन व्यक्ति कथाओं से इतना पैसा कमा चुका है। वह भोग विलासिता पूर्ण जीवन का अभ्यस्त हो चुका है। वह उसके आचरण में भी उतर गया है। व्यास पीठ पर भी उसके लक्षण दिखाई देने लगे हैं। व्यास पीठ से आज सादगी, भक्ति भाव और ज्ञान विलुप्त हो गया है। दर्शकों, श्रोताओं में भी भक्ति और भावना का नितांत अभाव है।परिणाम स्वरूप कथा वाचक उदंड ,उच्छृंखल, निरंकुश, स्वेच्छाचारी हो गये हैं।

ये कथा वांचने वाले टीकाकार व्याख्या कार भी बन गये हैं। जबकि रामायण गीता सहित सभी धार्मिक शास्त्रों की विभिन्न टीकाएं आज उपलब्ध हैं। इनको टीकाकार बनने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ये तो सर्वग्य हैं। आज ये तथाकथित कथा वाचक भी एंकर की भूमिका में उतर गये हैं। ये किसी भी श्लोक की मनमानी व्याख्या करते हैं।एक ही प्रसंग पर आधे घंटे तक टीका टिप्पणी करते हैं फिर संगीत शुरू हो जाता है। बीच में किसी दर्शक से प्रश्न कर लेते हैं। कइयों को निशुल्क परामर्श दे देते हैं। किसी को धमका भी देते हैं। गुप्ता जी और गर्ग साहब का तो

कई बार धन्यवाद करते हैं और उनके लिए तालियां बजवाते हैं। ये गुप्ता जी और गर्ग साहब भक्तों और भगवान के बीच की प्रमुख कड़ी हैं। इनके बिना कुछ भी संभव नहीं और ये चाहें तो कुछ भी असंभव नहीं। इनके प्रताप से ही इतने भव्य और सुंदर भागवत यज्ञ का आयोजन संभव हुआ है। अन्यथा भला किसकी औकात थी -?

बीच बीच में गोप गोपिकाओं का रास भी होता रहता है और कथा का समापन हो जाता है। आज कथाएँ भी स्पॉन्सर होने लग गयी हैं। कथाओं में भी आज कंपटीशन हो गया है। दर्शक, श्रोता जुटाए जाने लगी हैं। कथा पंडाल किसी थीम पर आधारित होते हैं। कोई इंग्लिश चैनल में क्रूज पर कथा कर अपने को सौभाग्य शाली मान रहा है तो कोई हवाई जहाज में कथा करना चाहता है।

मैंने तो यह भी सुना है,एक बड़े पंहुचे हुए संत हैं। जिनका प्रसंग आगे की पंक्तियों में आयेगा। उनकी तो अंतरिक्ष में कथा करने की इच्छा भी है और सपना भी है। इसमें कितना सत्य है कह नहीं सकता। उनका सपना कब पूरा होगा ईश्वर इच्छा? वैसे ईश्वर से अधिक अली की रहमत। (स्पांसर और आयोजक कब मिलते हैं उस पर निर्भर है।)

इन्होंने राम कथा, कृष्ण लीला, भागवत कथा, देवी भागवत, शिव कथा, शनि महिमा, गो कथा के नाम पर हजारों करोड़ का एक बड़ा व्यवसाय खड़ा कर दिया है। इन कथाओं के ये ब्रांड एंबेसडर बन गये हैं। फिल्मी सितारों की संगीत संध्याओं और श्रीराम या भागवत कथाओं का आयोजन करना एक जैसा है। भागवत कथा या राम कथा के आयोजन पर लगभग उतना ही खर्च होता है जितना किसी फिल्मी नाॅइट कार्यक्रम पर होता है। इन कथाओं का लाखों करोड़ों में बजट होता है। बजट और डिमांड के अनुसार कथा वाचक तय किये जाते हैं। बाजार में जिनकी डिमांड अधिक होगी उनका उसी अनुपात में रेट भी होगा।

यह कथाएँ आज इवेंट का रूप ले चुकी है। इवेंट मैनेजमेंट द्वारा ही इन कथाओं का आयोजन किया जा रहा है।जितना विशाल पंडाल होगा,जितना भव्य व्यासपीठ का आसन होगा, जितने अधिक दर्शक, श्रोता कथा सुनने आयेंगे, जितनी सुंदर प्रकाश व्यवस्था होगी , जितना सुन्दर साउंड सिस्टम होगा, जितनी बड़ी संगीत मंडली होगी, जितने चैनल कथा का सीधा प्रसारण और रिकार्डिंग कर रहे होंगे उतनी वह कथा सफल मानी जायेगी।

मैं यहाँ एक सत्य घटना का वर्णन करना चाहूँगा। घटना इस प्रकार है। आयोजक और कथा वाचक के बीच आपसी सहमति के आधार पर तय हुआ था कि कथावाचक को कथा करने के लिए तीस लाख रुपये दिये जायेंगे।चढ़ावे की राशि पर आयोजकों का अधिकार होगा। कथा प्रारंभ हो गई आज कथा का पहला दिन है। अकस्मात कथा वाचक का ध्यान व्यासपीठ पर भक्तों द्वारा चढ़ाये गये चढ़ावे पर पड़ी। पहले दिन ही लाखों का ढेर लग गया। कथा वाचक के मन में लालच आ गया। किसी तरह कथा समाप्त की। दो दिन और निकल गये। आज कथा का चौथा दिन है। दिन बढ़ने के साथ ही चढ़ावा भी बढ़ रहा है। अब उससे रहा भी नहीं जाता और सहा भी नहीं जाता। वह आयोजकों को अपनी मन की बात बता देता है। उसने आयोजकों के सामने नया प्रस्ताव प्रस्तुत किया। प्रस्ताव यह था कि चढ़ावे की राशि उसको दे दी जाय और जो तीस लाख उसे दिये जाने हैं वह आयोजक रख लें। लेकिन आयोजकों को भी यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं था। वह कथा समाज सेवा के लिए तो कर नहीं रहे थे। पैसे कमाने के लिए ही उन्होंने कथा का आयोजन किया था। वह इतनी बड़ी राशि हाथ से कैसे जाने देते। जब बात नहीं बनी तब कथा वाचक ने एक और नया प्रस्ताव रखा कि तीस लाख के साथ उसको चढ़ावे की राशि में से आधी राशि दी जाय। सहमति नहीं बनने पर आयोजकों और कथा वाचक के बीच मतभेद इतना बढ़ गया, चार दिन से चली आ रही कथा को व्यासपीठ पर बैठा हुआ तथाकथित कथा वाचक बीच में ही छोड़ कर चला गया। बड़ी कठिनाई से कथा पूरी हुई। आयोजकों को शेष आधी कथा किसी और व्यास से करवानी पड़ी।

यदि ये तथा कथित कथा वाचक यजमान द्वारा आयोजित कथा या सत्संग को यजमान द्वारा श्रद्धा स्वरूप भेंट दक्षिणा में सम्पन्न कर दें। जैसा अतीत में होता आया है। आज भी उसी प्रकार कथाएँ होनी चाहिए थी। जो प्राचीन स्वरूप था, गरिमा, सादगी और भक्ति भाव से परिपूर्ण। तब मैं समझूंगा वह कथा वाचक सच में सद्गुरु या व्यास पीठ पर बैठने का अधिकारी है। अन्यथा लाखों रुपये लेकर कथा करना कोई पुण्य का काम नहीं है। यह पैसे का खेल है। और सनातन परंपराओं का अपमान भी। ऐसी भव्य कथाओं का आयोजन आज पैसा कमाने का माध्यम भर रह गया है। कथा वाचक का आज शास्त्रों का जानकार, मर्मज्ञ, विद्वान होना आवश्यक नहीं है। आज विद्वान होना पर्याप्त भी नहीं है। आज व्यास पीठ पर बैठने के लिए शास्त्रों के ज्ञान से अधिक, विभिन्न विधाओं का नाॅलेज होना आवश्यक है। आपको चुटकुले आने चाहिए। अपनी विदेश यात्रा के संस्मरण सुनाने भी आने चाहिए। संगीत का ज्ञान होना अनिवार्य है। अभिनय में पारंगत होना चाहिए। गाना तो आना ही चाहिए। बिना सुमधुर कंठ के कथा असंभव है। हो ही नहीं सकती है। सारी कथा टिकी ही गाने और संगीत मंडली पर है। मन की गांठे खोल, राधे राधे बोल। बोल बांके बिहारी लाल की जय। राधे - राधे।

अब तो महिला कथा वाचक, प्रपंच कारी, गैरक और श्वेत वस्त्र धारी व्यास पीठ को सुशोभित करने लग गयी हैं। ये अपनी मधुर कंठिका से गीत, भजन, गजल के साथ ही अली मौला, अल्लाहु भी गा लेती हैं। इस विधा में एक देवी महा ख्याति अर्जित कर रही हैं।यह महान देवी अपने कथा प्रवचनों के बीच में गेरुए वस्त्रों में, सिर पर चुनरी बांधे हुए अल्लाहु या अली मौला मौला करने लगती हैं। तब उनकी छवि में निखार आ जाता है। साधना में तपा उनका रंग रूप और भी निखर कर आयशा और फातिमा की तरह लाल सुर्ख गुलाब की भांति खिल उठता है।अब वह सनातन से ऊपर उठ जाती हैं। उन पर सूफी का रंग चढ़ चुका है। वो कुछ और हो गयी हैं। उनके रोम रोम से नूर टपकने लगता है। उन में एक रूमानियत छा जाती है। उनकी आंखें करुणा से भर आती हैं। बोलने में ओशो की नकल करती अंग्रेजी के शब्द कहीं खो गये हैं। अब अरबी फारसी और उर्दू के शब्द उनकी गले से यूं निकल रहे हैं जैसे अब तक गले में दबे दबे घुट रहे हों। जैसे तपती रेत में वर्षा की बूंदें टपक पड़ी हों। उस समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे इनके भीतर कोई फरिश्ता उतर आया हो। ये अपनी रुहानी ताकत से एक झटके में काशी से काबा पहुंच जाती हैं। तब जन्नत से खुश होकर फरिश्ते इन आनंद दात्री माँ पर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा करते हैं। अल्लाहु मौला अली -। कर भली - इस अल्लाह की बंदी को जन्नत नसीब हो। आमीन।

एक मोहतरमा विचित्र लेखा तो अजान की आवाज पर पांच मिनट के लिए अपनी कथा अल्लाह को सम्मान देने के लिए रोक देती हैं और अल्लाह की शान में कसीदे पढ़ने लगती है। अब इन बुद्धि हीनों को कौन समझायेगा कि इसी तरह का व्यवहार दूसरी तरफ से भी कोई करने के लिए तैयार है। या उनको तुम्हारी इन मूर्खताओं से कोई लेना देना नहीं है। अपनी कथा, सत्संग, या अखंड रामायण के पाठ के दौरान दो मिनट के लिए नमाज आगे पीछे कर के दिखाओ। इस विचित्र लेखा की कथनी और करनी पर दया भी आती है हंसी भी आती है और क्रोध भी आता है। इन कमसिन बालाओं को धर्म, ईश्वर, आध्यात्म और दर्शन जैसे गूढ़ गंभीर और संवेदनशील विषयों पर धीर गंभीर रहना चाहिए। मूर्खता पूर्ण वक्तव्य देकर अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। अज्ञानता का प्रदर्शन करने से अच्छा है अपना मुंह बंद रखें, इज्जत बनी रहेगी। धन्य है वह धर्म, सनातन धर्म, बसुधैव कुटुम्बकम वाला हिंदू धर्म, जिसका तुम खाती हो, जिसका तुमने अपमान किया और फिर भी तुम सुरक्षित हो स्वतंत्र हो। इसलिए यह धर्म महान है। नासमझ, नादान।

यही कृत्य कभी जिसकी तुमने बढ़ाई की। जिसकी शान में कथा रोक दी। उसके साथ करके देखना। शांति का संदेश मिल जायेगा।

आज इन कथाओं का काम विशुद्ध मनोरंजन करना हो गया है। आयोजकों और कथा वाचकों का अटूट गठबंधन बन गया है। पैसा कमाना इनका मुख्य ध्येय बन गया है। आज कुछ तथा कथित कथा वाचिकाएं भी विवादों या अन्य कारणों से बहुत लोकप्रिय हो रही हैं। उनका इवेंट मैनेजमेंट इतना अच्छा है कि वो एक दिन भी खाली नहीं बैठती। एक दिन वह जींस पहन कर स्टेज पर फर्राटे दार अंग्रेजी में मोटिवेशनल स्पीच दे रही होती हैं तो वहीं दूसरी ओर दूसरे ही दिन व्यास पीठ पर बैठ कर सुमधुर कंठ से भजन गा कर अपने भक्तों को गदगद कर रही होती हैं।

ये अबोध बालाएं अपने से बड़े, बृद्ध, महिला पुरूष दर्शकों, श्रोताओं के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे वो मूर्ख, नासमझ नादान बच्चे हों। उनका बोलने का स्टाइल, भाव भंगिमाएं सब कुछ अनूठा है। भगवान की उन पर असीम कृपा है। ये विदुषी भद्र नारियाँ भी आज पुरुष कथा वाचकों को बराबर की टक्कर दे रही हैं। नारी शक्ति का परचम आज नासा, इसरो से लेकर ज्योतिष तक और अब तो व्यास पीठ पर भी फहराने लगा है। जय नारी शक्ति।

भगवान कृष्ण का जीवन इतना विस्तृत और विविधताओं से भरा हुआ है। लेकिन इन कथा किशोर किशोरियों की समझ इतनी सीमित है कि इनकी आधी कथा राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग कृष्ण गोपियों के इर्दगिर्द ही घूम रही होती है।बाल लीला में ही कृष्ण की सारी लीला समेट लेते हैं। वह भी भजन गीत और गजल गा कर। गाल बजा कर। पावर फुल साउंड सिस्टम के माध्यम से पूरा पंडाल गूंज रहा होता है। मनोरंजन विशुद्ध मनोरंजन। राम कथा में इनकी कथा सीता स्वयंबर और वनवास तक सीमित रहती है। रोने रुलाने का मन हो तो सीता हरण और शबरी प्रसंग भी जुड़ जाता है। रामचंद्र जी की वीरता धीरता, त्याग पर अधिकांश ये मौन रहते हैं। कुछ कथा वाचकों का सीता जी की अग्नि परीक्षा और सीता परित्याग पर अधिक जोर रहता है। जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन वैसी।

आज कल जो सबसे अधिक सुर्खियों में हैं। उनके नाम से सभी भली भांति परिचित हैं।

जिनको कथा जेहाद का श्रेय जाता है। वो हैं श्री श्री 102 संत सिरोमणी मुरारी लाल बाबू। जबसे जनता ने इनके वदन से सैकुलरिजम का लबादा उतारा है। ये नंगे होकर रह गये हैं। अब हाथों से छुपाये भी तो क्या क्या छुपायें? कैसे छुपायें? ये काली कमली वाले शातिर बापू नहीं बाबू आज कल अपन किये कुकर्मों के लिए जार जार रो रहे हैं। लेकिन आंसू पोंछने और सांत्वना देने वाले यहाँ से तो कोई है नहीं लेकिन अफसोस वहाँ से भी कोई नहीं है। इनकी कथाओं में बजरंग बली से अधिक चर्चा अली की होती थी। मुरारी लाल बाबू राम कथा के पैसों से मुस्लिमों को हज के लिए भेजते हैं। उनको मोहम्मद साहब में अत्यंत करुणा दिखाई देती है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है।यह उनकी निजी राय हो सकती है। लेकिन जब वह ये सब राम कथा के मंच से कहते हैं तब प्रश्न तो उठेंगे ही। वो कहते हैं मेरे भीतर से स्वत: ही अली मौला निकलने लगता है। ये शब्द व्यास पीठ से कहना कदापि भी उचित नहीं ठहराये जा सकते हैं।

राम कथा के बीच शेरो शायरी, गजल, कव्वाली अहा क्या शमा होता था। अब तो व्यास पीठ के बगल में तैयार विशेष मंच पर राजा बाबू मुरारी लाल के लिए मुजरे का भी प्रबंध होने लगा था। वो क्या है कि इतनी लंबी कथा सुनाते सुनाते बाबू कहीं बोर न हो जांय इसलिए नाच गाने से जरा मन प्रसन्न हो जाय तब कथा तो होनी ही है।

जब बाबू कथा सुनाते हैं और कथा कहते हुए बीच में उनके भीतर से उनके पीर प्रकट होते हैं तब उनकी स्थिति सामान्य नहीं रहती। वे इह लोक से परलोक में विचरण करने लगते हैं। उनके तार जन्नत से जुड़ जाते हैं। उनके भीतर से अपने आप ही अली अली निकलने लगता है। वो गद गद हैं। भक्त भी भावुक हैं। सारा पंडाल सूफी रंग में रंग गया है। धूप अगर बत्ती की सुगंध विलीन हो गई है। लोबान की खुश्बू से सारा शामियाना महक उठा है। धन्य हैं बाबू धन्य हैं आप। आप साधारण मानव नहीं हैं। सिर्फ कथा वाचक तो बिल्कुल भी नहीं। आप संतों के संत हैं। महा संत हैं। सारे पीर पैगम्बर इनके मुखारबिंद से झरते हुए राम कथा को सुनने आते थे। बाबू मजार की लंबाई पर न्योछावर होने की तमन्ना रखते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि हर गली में बड़ी सी मस्जिद हो और दीन की पढ़ाई के लिए मदरसे भी। ऐसा यदि मजहबी लोगों से संभव नहीं हुआ तब भी ऐसा संभव होकर रहेगा। आसमान से उतरे बाबू की मनोकामना थी कि राम कथा से आये पैसों से वो मस्जिद और मदरसों का निर्माण करेंगे। लेकिन या अल्लाह -। यह क्या -। सर मुंडाते ही ओले पड़ गये। आजकल वो अपनी खोपड़ी खुजलाने में लगे हैं। हे राम-। पैसा भी क्या नहीं करवाता है और पैसा भी राम के नाम पर कथा जेहादियों का हो तो। बुरा तो लगेगा ही। अब भुगतान तो करना ही पड़ेगा बाबू और वह भी जन्नत में नहीं यहीं और इसी जनम में। हाय प्रायश्चित - कैसे करोगे -? बाबू मोशाय - सोच लो।

आज बाबू मुरारी लाल के बहुत सारे चेले चपाटे भी मौला अली, दमा दम मस्त कलंदर के खेल में सम्मिलित हो गये हैं। यह खाज का रोग बड़ी तेजी हिंदू समाज में फैल रहा है। मुझे डर है, आने वाले समय में कहीं यह कोढ़ में परिवर्तित न हो जाय। मुरारी बाबू से फैली यह छूत की बीमारी जिनमयानंद से होते हुए कइयों को अपनी चफेट में ले चुकी है। इसी कड़ी में फिर गुजरात से एक अली का जिन्न प्रकट हुआ है। आजकल कथा के बीच में उस पर भी जिन्न चढ़ जाता है और वो भी मौला मौला चिल्लाने लगता है। उसको देख कर मुरारी लाल की याद आने लगती है और तब मुझको उन तथाकथित भक्तों, श्रोताओं पर दया आने लगती है। जो सुनने तो गये थे राम कथा लेकिन सुन कर आते हैं अली नामा। इन मूर्खों की खोपड़ी के भीतर खुजली कब होगी--?

इनके कृत्यों या कुकृत्यों से ऐसा लगता है हिंदू और सनातन धर्म आज भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में स्वीकार्य हो गया है और हिंदू धर्म पताका समस्त संसार में लहरा रही है। लेकिन ऐसा नहीं है और यह बात इनको भी भली भांति मालूम है। ऐसा यह जानबूझकर कर अपनी स्वीकार्यता दूसरे मजहबों के लोगों में भी है यह बताने के लिए और अपने को सैकुलर दिखाने के लिए करते हैं। जबकि ऐसा है नहीं। लेकिन मैं इस बात के लिए इनको दोष नहीं दूंगा। दोषी वे लोग हैं जो इनको सर आंखों पर बिठा कर रखते हैं। जो इनके भक्त हैं। इनके मानने वाले हैं। इनकी किसी गलत बात पर भी इनका विरोध नहीं करते हैं। अंध भक्त। अंध श्रद्धालु। आलू कचालू की तरह भुन रहे हैं बेचारे।

इस प्रतियोगिता के युग में नौकरी मिलना आसान नहीं है। व्यवसाय करना सबके बस की बात नहीं है। संगीत के क्षेत्र में बच्चे में रुचि होने के साथ ही जन्म से कुछ गुण होने आवश्यक हैं फिर अभ्यास आता है। वहीं खेल के क्षेत्र में कड़ा परिश्रम आवश्यक है। मनोरंजन इंडस्ट्री सबके लिए है यहाँ प्रतिभा की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। यहांँ सफलता की भी कोई गारंटी नहीं है। यहाँ सफल होने के लिए भाग्य के साथ ही भाई भतीजावाद का सहारा होना भी आवश्यक है। अब बच जाता है आध्यात्म का क्षेत्र आजकल इस क्षेत्र में सबसे अधिक संभावना है और जोखिम भी न्यूनतम है।आजकल छोटे छोटे बच्चों से बालक बालिकाओं से कथा कराने का प्रचलन भी बढ़ रहा है। ऐसे प्रतिभा शाली प्रत्येक बालक के माता पिता को मालूम है कि इस फील्ड में लाभ की अधिक संभावना है। जोखिम न के बराबर है और रिफंड गारेंटेड। यह घाटे का सौदा तो बिल्कुल भी नहीं है। सबसे अधिक महत्व पूर्ण और प्रसन्नता की बात है इस क्षेत्र में भरपूर मान सम्मान और आदर सत्कार।घी का हलवा, पूरी और मिठाइयों की तो कहना ही क्या -। देशी घी के पकवान छक कर बालक पंद्रह साल की आयु में ही तोंदू - अप्पू राजा बन जाता है।

बालक बालिकाएं जब कथा सुना रहे होते हैं तब भक्त गण विशेष कर महिलाएं उनकी प्रस्तुति पर न्योछावर कर रही होती हैं। उनकी उत्सुकता कथा सुनने से अधिक इस बात में होती है कि काश ऐसा ही बालक हमारा भी होता। देखो कितनी अच्छी मुस्कान है साक्षात कन्हैया लगता है। बालिका में राधा नजर आती है।

कितना प्यारा बच्चा है। ज्ञान का भंडार है। गाल पर देखो कैसे डिंपल पड़ता है। संपूर्ण रामायण कंठस्थ है। सारी गीता याद है। भगवान का ही रूप है। इसके माँ बाप ने अवश्य ही पूर्व जन्म में पुण्य किये होंगे तभी तो इनके घर में ऐसे बालक का जन्म हुआ। तुम्हारे घर में भी ऐसे बच्चे पैदा हो सकते थे। राम कृष्ण जैसे बालक जन्म ले सकते थे। लेकिन होंगे नहीं क्योंकि तुम्हारे पैर तो अली मौला पर थिरक रहे होते हैं तब राम कृष्ण कहाँ से पैदा होंगे। पैदा होंगे तो जिन्न और जिन्नी ही पैदा होंगे।

हिंदू धर्म की उदारता के कारण हमारे संस्कारों में आवश्यकता से अधिक विकृति आ गयी है। वसुधैव कुटुम्बकम और कण में ईश्वर के विचार ने हमको अत्यंत उदार और लचीला बना दिया है। हम अपने ईश्वर और 33 कोटि के देवता होने के बावजूद भी अन्य मजहब और संप्रदाय तथा उनके ईश्वर में भी आस्था रखते हैं। जबकि अन्य संप्रदायों में ऐसा नहीं है। हमको इन विकृतियों से बाहर निकलना होगा। सनातन धर्म के मानने वालों की पहली आस्था अपने धर्म, ईश्वर और मंदिर में होनी चाहिए। सनातन धर्म में गुरू को भी ईश्वर का दर्जा दिया गया है। सनातन धर्म हमें साधु सन्यासियों का सम्मान करना भी सिखाता है। हम मंदिर भी जाते हैं। सत्संग भी करते हैं। कथाओं का आयोजन भी करते हैं। जगराते, कीर्तन भजन, भूत प्रेत को भी मानते हैं। तंत्र में भी विश्वास करते हैं।

इतने भर से ही हमारा काम नहीं चलता। हम पीर को भी मानते हैं। दरगाह पर चादर भी चढ़ाते हैं। मुल्ला मौलवियों से झाड़ फूंक भी करवाते हैं। चर्च की प्रार्थनाओं में भी शामिल हो जाते हैं। बड़ी संख्या में पिछड़े आदि वासी हिंदू भाई बहिन अंधविश्वास और पिछड़े पन के कारण जरा सा प्रलोभन मिलते ही, तथाकथित ईश दूत पाखंडी पादरियों के चंगुल में फंस जाते हैं। ये तथा कथित देव दूत चंगाई के नाम पर इन भोले भाले ग्रामीणों को ईसाई बना रहे हैं। इसके लिए किसी और को दोष देना उचित नहीं होगा। इसमें मुख्य रूप से सरकारों की तो कमी रही ही है, हमारे धर्म और समाज ने भी अनेक कारणों से आदि वासी और समाज के पिछड़े वर्ग के भाई बहिनों के जीवन स्तर को सुधारने और उनको प्रगति की राह पर ले जाने के लिए जो सार्थक प्रयास करने चाहिए थे उसे करने में वे विफल रहे हैं। इसके लिए अज्ञान, अंधविश्वास, गरीबी और अस्पृश्यता भी जिम्मेदार है।

उपरोक्त क्रिया कलापों के बावजूद भी हमको सुख शांति की प्राप्ति नहीं होती। अनेक कारणों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए हम भटक रहे हैं। हमारे पास जो है सदैव उससे अधिक पाने की चाह हमें जीवन भर भटकाती रहती है।मानव इस बात से अनभिज्ञ रहता है। यह भटकन ही हमारी सुख शांति हर्ष और भगवत प्राप्ति के मार्ग में बाधा डालती है। भटकाव ही हमारे दुखों का कारण है। यह भटकन हमको और कमजोर बनाती है। हमको हिंदू धर्म और सनातन परंपरा के अनुसार अपने आचरण में सुधार लाना होगा। हमको अपने ईश्वर और अराध्य में पूर्ण विश्वास होना चाहिए। जहाँ हम एक ओर येको ब्रह्म द्वितीयो नाश्ति के सिद्धांत को मानते हैं वहीं दूसरी ओर हमें त्रिदेवों के अतिरिक्त भी तैंतीस कोटि के देवताओं को मानने की छूट है। ऐसा अन्यत्र किसी भी मजहब और संप्रदाय में नहीं है। बावजूद इसके सनातन के मानने वालों को मजारों और दरगाहों पर भटकते देखने से आश्चर्य भी होता है और दुख भी। आश्चर्य इस बात का कि हमारे पास तो इतने माध्यम और साधन हैं और दुख इस बात का कि यदि इतने देवी देवताओं के होने के बावजूद भी तुमको मकबरों पर सर पटकने जाना पड़ रहा है। फिर सुख की कामना कैसे संभव हो सकती है। हमको आडंबर और अंधविश्वास से अपने आप को पूर्णतः मुक्त करना होगा। चारों दिशाओं में भटकने से कुछ भी हासिल नहीं होता है। न मंजिल की प्राप्ति होती है और न ही ईश्वर का साक्षात्कार। भटकन समाप्त होते ही हमारे जीवन में स्थिरता आयेगी और स्थिरता आते ही हमारा जीवन सुख शांति से परिपूर्ण हो जायेगा। लक्ष्य पाने के लिए आवश्यक है किसी एक दिशा में चला जाय। एक राह पकड़ी जाय और उस पर दृढ़ता से आगे बढ़ा जाय एक दिन मंजिल अवश्य मिलेगी।


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