अपने आदर्शों को मनोरंजन का साधन नहीं बने दें​ हिंदू समाज: “सनातन आराध्यों के स्वरूपों को नचाकर उनका अपमान क्यों कर रहे हैं?”

Update: 2024-12-20 13:54 GMT

उमेश तिवारी, शिकोहाबाद। वर्तमान में सामाजिक आयोजनों, विवाह समारोहों, राजनीतिक सभाओं और अन्य कार्यक्रमों में हिंदू आराध्यों जैसे श्री राधा-कृष्ण, भगवान शंकर, श्री राम-सीता और मां काली के स्वरूपों को भौंडे और अश्लील गानों पर नचाया जा रहा है। यह चलन केवल हमारी धार्मिक भावनाओं का अपमान ही नहीं बल्कि सनातन धर्म की मर्यादा और आदर्शों का भी खुला उल्लंघन है।

सनातन धर्म में हम अपने आराध्यों के जीवन और लीलाओं से प्रेरणा लेते हुए अपनी पीढ़ियों को संस्कारों का पाठ पढ़ाते हैं। मंदिरों में उनके स्वरूप की प्रतिष्ठा कर, उनका पूजन करते हैं। हम भगवान के बाल स्वरूप को बच्चों की तरह स्नेह देते हैं, उनकी सेवा में स्नान, श्रृंगार और भोग का प्रबंध करते हैं। उनकी पूजा केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं है वरन् मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से हमारे मन और आत्मा को उनसे जोड़ने का माध्यम है।

परंतु जब इन्हीं आराध्यों के स्वरूपों को सार्वजनिक स्थानों पर मनोरंजन का साधन बनाकर नचाया जाता है, तो यह श्रद्धा और सम्मान का अपमान बन जाता है। यह चलन न केवल धार्मिक दृष्टि से अनुचित है, बल्कि यह हमारे बच्चों और युवाओं को गलत संदेश भी देता है। जिन भगवानों को हम आदर्श मानते हैं, जब उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, तब उनकी मर्यादा और गरिमा दोनों ही नष्ट होती हैं।

वहीं देखा जाता है कि ऐसे आयोजनों में भगवान के स्वरूप धारण करने वाले कलाकारों का आचरण भी अक्सर मर्यादित नहीं होता। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां ये कलाकार मांसाहार, मद्यपान और अभक्ष्य खान-पान में लिप्त पाए जाते हैं। इनका चरित्र और जीवनशैली भगवान के स्वरूप की गरिमा के विपरीत होती है, जिससे समाज में गलत संदेश जाता है।

भगवान की लीलाओं और उनके स्वरूपों का मंचन केवल आध्यात्मिक और धार्मिक आयोजनों जैसे रामलीला, कृष्णलीला, कथा या सत्संग आदि में ही होना चाहिए। जहां इनका उद्देश्य समाज को प्रेरित करना और धर्म के आदर्शों का प्रचार करना हो। इसके विपरीत, सार्वजनिक और मनोरंजक आयोजनों में इनका प्रदर्शन केवल अश्लीलता और भौंडेपन को बढ़ावा देता है, जो सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।

आज आवश्यकता है कि हम हिंदू समाज के लोग इस अपमानजनक चलन के विरुद्ध एकजुट हों। कथावाचकों, संतों और धर्मगुरुओं को इस विषय में मुखर होकर समाज को जागरूक करना चाहिए। सार्वजनिक आयोजनों में ऐसे अनुचित कृत्यों का विरोध करना और आयोजकों को इनके दुष्परिणाम समझाना हमारा कर्तव्य है। साथ ही, हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाना होगा कि धर्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि यह हमारे जीवन का मार्गदर्शन करने वाला आधार है।

निःशुल्क धार्मिक शिक्षण देने वाली संस्था सनातन संस्कारशाला इस अनुचित चलन के विरोध में निरंतर जागरूक करने का कार्य कर रही है। वहीं हम सभी भारतीयों की जिम्मेदारी भी है कि धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपनी भूमिका निभाएं।जिससे सनातन धर्म की पवित्रता और गरिमा बनी रहे। भगवान के स्वरूप केवल पूजनीय हैं, मनोरंजन का साधन नहीं। आइए, इस अपमानजनक प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाएं और सनातन धर्म की मर्यादा को पुनर्स्थापित करने का संकल्प लें। 

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