राज कुमार सिंह: कभी गांव में मिट्टी के दीपक की रोशनी में पढ़नेवाले मनमोहन सिंह का देश का दीपक बनने तक का सफर इतना प्रेरक रहा कि आप उनके व्यक्तित्व के किसी भी पहलू से प्रेरणा ले सकते हैं। बेशक ऐसे गुदड़ी के लाल भारत में और भी हुए हैं, लेकिन मनमोहन सिंह ने अपने 92 साल के जीवन में इतनी भूमिकाएं सफलतापूर्वक निभायीं कि तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि उन्हें किस रूप में याद रखा जाये।
पंजाब के गाह गांव में मिट्टी के दीये की रोशनी में शिक्षा के प्रति अपनी लग्न से कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी तक पहुंचे छात्र के रूप में या पंजाब विश्वविद्यालय और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के प्राध्यापक के रूप में; भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सलाहकार के रूप में या भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में; देश के वित्त मंत्री के रूप में या फिर देश के अराजनीतिक प्रधानमंत्री के रूप में।
लोकतंत्र में असहमति की गुंजाइश तो रहनी ही चाहिए, पर मनमोहन की मंशा पर संदेह और सवाल कभी उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी नहीं उठाया। भारत सरीखे राजनीति-संवेदनशील देश में एक अर्थशास्त्री का वित्त मंत्री बनना एक आश्चर्यजनक घटना थी।
तब देश की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही थी और सोना तक गिरवी रखना पड़ा था, लेकिन कोई विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता कि राजीव गांधी की हत्या के चलते प्रधानमंत्री बने पीवी नरसिम्हा राव ने वित्त मंत्री के लिए मनमोहन सिंह को ही क्यों चुना?
कारण से इतर परिणाम को देखें तो इसमें दो राय नहीं कि मनमोहन भारत की अर्थव्यवस्था को संकट से निकाल कर ऐसी दिशा देने में सफल रहे, जो वैश्विक मंदी के झटके झेलने में भी कामयाब रही। बेशक आर्थिक उदारीकरण के फैसलों पर तब सवाल भी उठे थे। आज भी उसके परिणाम पूरी तरह निरापद नहीं माने जा सकते, लेकिन संकट के दोराहे या चौराहे पर आपको अपनी समझ से एक दिशा चुननी पड़ती है, जिसके सही या गलत होने का फैसला आनेवाला समय ही कर सकता है।
क्या भारत की अर्थव्यवस्था, खासकर घरेलू उद्योग-बाजार आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के लिए पूरी तरह तैयार थे? यह सवाल तब भी पूछा गया था, जिसका संतोषजनक जवाब अभी तक नहीं मिल पाया।
फिर भी आर्थिक उदारीकरण के बाद देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार बताती है कि उस समय वही सही विकल्प था। हां, देश की समृद्धि के साथ ही बढ़ती आर्थिक विषमता यह भी संकेत दे रही है कि उदारीकरण का स्वरूप और दिशा, भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित हो सकती थी। अभी भी हो सकती है, ताकि उदारीकरण और संपन्नता का लाभ देश की पूरी आबादी तक पहुंचे।
जाहिर है, वित्त मंत्री बनने से भी ज्यादा चौंकानेवाला था मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनना। अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे विराट जननेता की अगुवाईवाली राजग सरकार को अपदस्थ कर मतदाताओं ने 2004 में सोनिया गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस और उसकी अगुवाईवाले संप्रग के पक्ष में जनादेश दिया।
सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर 1999 में ही शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर कांग्रेस तोड़ कर अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना चुके थे। ऐसे में जब 2004 का जनादेश आया तो सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा फिर राजनीतिक गलियारों और मीडिया में सतह पर आ गया। वास्तविक कारण तो सोनिया गांधी बेहतर जानती होंगी, लेकिन उन्होंने खुद प्रधानमंत्री बनने के बजाय मनमोहन सिंह की ताजपोशी कर देश ही नहीं, दुनिया को भी चौंका दिया। मनमोहन सिंह दो कार्यकाल पूरा करनेवाले, जवाहर लाल नेहरू के बाद देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने।
प्रधानमंत्री के रूप में उनके दो कार्यकाल कैसे रहे—इसका आकलन न तो आसान है, और न ही निर्विवाद। उन्होंने खुद भी कहा था कि शायद इतिहास उनका आकलन ज्यादा उदारता से करेगा, बजाय समकालीन मीडिया और विपक्ष के—खासकर संसद के अंदर रवैये के मद्देनजर।
दरअसल मनमोहन सिंह एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे थे, जो उनकी अराजनीतिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर बेहद जटिल काम था। उनके मंत्रिमंडल में कई सदस्य ऐसे थे, जो नेहरू-गांधी परिवार के विश्वस्त माने जाते थे।
जाहिर है, मंत्रिमंडल के सदस्यों का चयन और विभागों का बंटबारा भी दस जनपथ से ही हुआ था—मनमोहन सिंह बस उसके मुखिया भर थे। फिर सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में एक व्यवस्थागत ढांचा ही बना दिया गया, उन्हें सलाह देने के लिए।
थोड़ा असहज लग सकता है, पर सच यही है कि मनमोहन सिंह भारत के 14 वें प्रधानमंत्री तो रहे, पर सत्ता के सूत्र पूरी तरह उनके नियंत्रण में नहीं थे। बाद में उन्हीं के मीडिया सलाहकार संजय बारू की द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर शीर्षक से एक संस्मरणात्मक पुस्तक आयी—और एक फिल्म भी बनी, जिसमें अनुपम खेर ने मनमोहन की भूमिका निभायी। थोड़ा और स्पष्ट करना हो तो राजनीतिक प्रबंधन और प्रभाववाले निर्णय दस जनपथ से होते थे, पर जिम्मेदारी और जवाबदेही मनमोहन की।
इसके बावजूद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्रित्वकाल से देश की दशा और दिशा पर अपने निशान छोड़ने में सफल रहे। अपनी मौन और विनम्र छवि के बावजूद मनमोहन ने कुछ मौकों पर ठोस स्टैंड लिया और अपने इरादों को अंजाम तक पहुंचाया। 2004 में पहली बार बनी संप्रग सरकार वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन पर भी टिकी थी।
परमाणु मुद्दे पर भारत के प्रति कुछ बड़े देशों का सौतेला व्यवहार समाप्त करने के लिए 2008 में जब अमेरिका से परमाणु संधि की बात आयी तो मनमोहन सरकार को भी दांव पर लगाने की सीमा तक चले गये। वाम मोर्चा ने समर्थन वापस ले लिया, पर सपा-बसपा के समर्थन से उसकी भरपाई कर ली गयी।
उनके ऐसे दूरदर्शी निर्णय देश की विदेश नीति को भी सही दिशा देनेवाले साबित हुए। मनमोहन सिंह की मंशा और व्यक्तिगत ईमानदारी पर संदेह और सवाल कभी नहीं उठा, लेकिन उनकी सरकार को भ्रष्ट सरकार बताया गया, क्योंकि उसी दौरान राष्ट्र मंडल खेलों से ले क टू जी स्पेक्ट्रम और कोयला आवंटन तक कई घोटाले उजागर हुए।
जन लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे का चर्चित आंदोलन भी हुआ, जिससे बने जनमत में 2014 में संप्रग सरकार सत्ता से बेदखल हो गयी और अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना कर अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत कर ली। आप कह सकते हैं कि काजल की कोठरी में भी मनमोहन सिंह बेदाग ही रहे, पर मतदाताओं का विश्वास जीत कर कभी लोकसभा नहीं पहुंच पाये और पहले असम, फिर राजस्थान से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे।