श्रीराम के अनन्य भक्त और हिंदुत्व के रक्षक : महान संत रैदास
(गोंडवाना काल में जबलपुर आए थे संत रविदास, ग्वारीघाट में बना है तीर्थ आश्रम )
वेबडेस्क। मध्ययुगीन भक्ति चेतना के प्रमुख संतों में संत रविदास जी का नाम श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। वे केवल मात्र संत अथवा भक्तों के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं है, अपितु उनका व्यक्तित्व समाज सुधारक, क्रांतिकारी,चिंतक, उत्कृष्ट युग- पुरुष के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। ऐसे महामानव के जीवन चरित्र ने वर्तमान समाज को एक नई ज्योति प्रदान की है। उनकी पूर्ण प्रामाणिक एवं सर्वप्रथम प्रकाशित वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में उपलब्ध होती है।
संत रविदास जी का नाम विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग रूप में उपलब्ध होता है। उनके प्रचलित नामों में रविदास, रैदास रोहतास, रोहीदास, रामदास, रुईदास आदि उल्लेखनीय हैं। रामानंद संप्रदाय में मान्य ग्रंथ भक्तमाल में उन्हें रविदास के नाम से अभिहित किया गया है। वर्तमान समय में अन्य नामों को महत्व न देकर उनके जो दो नाम प्रायः ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं, वे हैं रविदास और रैदास।
संत रविदास जी के माता पिता के संबंध में भी कई मत उपस्थित होते हैं आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद ने भविष्य पुराण के आधार पर उनके पिता का नाम मानदास स्वीकार किया है लेकिन संप्रदाय में यह नाम प्रचलित नहीं है। रविदास जी के पिता का नाम रग्घू या रघुनाथ अधिक प्रसिद्ध है। इनकी माता करमा देवी मानी जाती हैं। कई प्रकाशित ग्रंथों में संत रविदास जी की माता का नाम घुरवनिया भी मिलता है। लेकिन करमा नाम को उनके अनुयायियों ने अधिक अपनाया है। अतः उनकी माता का नाम करमा देवी मानना अधिक समीचीन है। रग्घू जी का जूते बनाने का व्यवसाय था। वे प्रभु भक्त थे और सात्विक जीवन बिताते थे इसलिए गांव के लोग उन्हें भक्त कहकर बुलाते थे। उनकी माता करमा देवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं, तथा नित्य प्रभु के भजन में लीन रहती हुई समय बिताती थीं। संत रविदास की जन्म के बारे में यह प्रचलित है कि "चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास, दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।"
संत रविदास अपने गुरु रामानंद के आशीर्वाद से भगवान राम की सेवा में ऐसे लीन हुए कि प्रभु भक्ति में पूरा जीवन लगा दिया। संत रविदास का जबलपुर से गहरा संबंध है। उनकी साधना यात्रा में जबलपुर भी सम्मिलित रहा है, तब यहां गोंडवाना साम्राज्य था। ग्वारीघाट में संत रविदास का पवित्र तीर्थ स्थल है जहां प्रदेश और देश के कई क्षेत्रों से अनुयायी यहां दर्शन करने आते हैं।
संत रविदास (रैदास) का जन्म (वि.सं. 1433-1584 ई. सन 1376-1527) वाराणसी के एक चर्मकार परिवार में हुआ था। अपनी आध्यात्मिक साधना, चरित्रबल तथा विनयशील स्वभाव के कारण लाखों लोग, उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्य हो गए। उन्होंने ईश्वर भक्ति का व्यापक साहित्य लिखा, किंतु अपने पारिवारिक कार्य (जूता बनाने) को लेकर उनको कोई ग्लानि नहीं थी।
पंचगंगा घाट के प्रसिद्ध संत स्वामी रामानंद का शिष्य बनने की इच्छा भक्त रैदास के मन में जागी तो स्वामी रामानंद ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया। भक्त रैदास ने कहा हम चमार हैं तो स्वामी रामानंद ने कहा - 'प्रभु के यहां कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। स्वामी रामानंद ने रैदास को प्रभु राम की भक्ति करने तथा भजन लिखने का आग्रह किया। भक्तिभाव से पद लिखना, भक्तों के मध्य गाना, किंतु जूते बनाने का अपना व्यवसाय भी करते रहना, यही उनकी दिनचर्या हो गई।(साभार - भारत की संत परंपरा और सामाजिक समरसता - कृष्ण गोपाल)
पूजा के कर्मकांड पर उनको कोई विश्वास नहीं। भक्त रैदास कहते हैं, किससे पूजा करूं, नदी का जल मछलियों ने गंदा कर दिया, फूल को भौरे ने जूठा कर दिया, गाय के दूध को बछड़े ने जूठा किया है, अत: मैं हृदय से ही पूजा कर रहा हूं। उन्होंने पूजा का नहीं वरन पूजा के नाम पर हो रहे ढोंग का विरोध किया। समाज में ऊंच-नीच का भाव भरा पड़ा था। भक्त रैदास जानते हैं कि उनका जन्म ऐसी जाति में हुआ है जिसकी समाज में प्रतिष्ठा नहीं है और इस बात को वे निर्भीकता से स्वीकार भी करते हैं। इस प्रकार, अपनी संपूर्ण जाति को जातिगत संकोच से निकालते हैं और सभी को राम की शरण की ओर ले चलते हैं। संत रविदास अपनी साखी में याद दिलाते हैं कि
"वेश्या के वशिष्ठ होय, पढ़ देखो पुरान।
रविदास कहै हरि भजन से पदवी पाई महान।।
वाल्मीकि अधम कुल में जन्म लिया है आन।
रविदास कहै हरि भक्ति कर होय रिषी महान।।
तनया चंडाल की कोख से पारासर रिषी जो होय।
रविदास कहै प्रभु सुमरि कर, ऊंच कहाय सोय।।
सिकंदर लोदी के समय संत रैदास को मुसलमान बनाने के कुत्सित प्रयास किए गए। संत रैदास को मुसलमान बनाने से उनके लाखों भक्त भी मुसलमान बन जाएंगे। इस सोच के साथ सदना पीर इनको मुसलमान बनाने आया था, किंतु इनकी ईश्वर भक्ति और आध्यात्मिक-साधना से प्रभावित होकर, रामदास नाम से शिष्य बन गया। एक ओर तो वे जातिगत भेद, बाह्याचार, ढोंग आदि के विरोध में संघर्ष करते हैं, किंतु वैदिक धर्म के दार्शनिक पक्ष में अपनी पूर्ण आस्था बराबर रखते हैं। संत रविदास की दृष्टि और सोच यह थी कि
" वेद वाक्य उत्तम धरम, निर्मल वाका ज्ञान।
यह सच्चा मत छोड़कर, मैं क्यों पढ़ूं कुरान।
स्रुति - सास्त्र - स्मृति गाई, प्राण प्राण जाए पर धर्म न जाई।
कुरान बहिश्त न चाहिए, मुझको हूर हजार।
वेद धर्म त्यागूं नहीं, जो गल चलै कटार।
वेद धरम है पूरण धरमा, करि कल्याण मिटावे भरमा।
सत्य सनातन वेद हैं, ज्ञान धर्म मर्यादा।
जो ना जाने वेद को, वृथा करे बकवाद।
सिकंदर लोदी उनको मुसलमान बनाने के लिए प्रलोभन तथा दबाव दोनों की नीति अपनाता है, लोगों को उनके पास भेजता है, किंतु उनका उत्तर सीधा-सपाट है। वे बार-बार हिंदू धर्म में अपनी श्रद्धा, निष्ठा तथा आस्था व्यक्त करते हैं। संत रविदास ने सिकंदर लोदी को निर्भीकता के साथ उत्तर दिया कि
"मैं नहिं दब्बू बाल गँवारा, गंग त्याग गहूँ ताल किनारा।
प्राण तजूँ पर धरम न देऊँ तुमसे शाह सत्य कह देऊँ।
चोटी शिखा कबहुँ नहिं त्यागूँ, वस्त्र समेत देह भल त्यागूँ।
कंठ कृपाण का करौ प्रहारा, चाहें डुबावो सिंधु मंझारा।
संत रैदास का भक्ति भाव देखकर काशी नरेश उनके शिष्य बन गए चित्तौड़ के महाराणा उदय सिंह की पत्नी झाली रानी संत रैदास की शिष्य हो गईं। कुछ इतिहासकार उस झाली रानी को राणा कुंभा की मां तथा कोई उनको राणा सांगा की धर्मपत्नी समझते हैं। संत नाभादास ने भक्तमाल में इसका वर्णन किया है कि "बसत चित्तौड़ मांझ रानी एक झाली नाम, नाम बिन काम खालि आनि शिष्य भई है।।इसी प्रकार मीराबाई भी भक्त रैदास की शिष्य बन गईं तब सगुण तथा निर्गुण भक्ति धाराओं का मिलन हुआ।
श्रीराम के अनन्य भक्त और हिंदुत्व के रक्षक थे संत रैदास । परम संत रविदास जी, महान् संत जगद्गुरु रामानंदाचार्य के प्रमुख 12 शिष्यों में से एक थे। इस संबंध 'भक्तमाल' के रचयिता स्वामी नाभादास ने प्रामाणिक वर्णन किया है। स्वयं संत रैदास ने स्वामी रामानंद को स्मरण किया है।
"रं राम मोहि गुरु रामा दीन्हे, नाहिं इह मंतर बिसराऊं"।
मध्य काल में मुस्लिम आतंक के कठिन समय में आचार्य रामानंद ने श्रीराम के सगुण और निर्गुण भक्ति शाखाओं के आलोक में संत रविदास को निर्गुण रामभक्ति धारा के प्रचार-प्रसार के लिए नियुक्त किया। संत रैदास ने अपने लगभग 151 वर्ष के जीवन काल के दौरान उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा और बिहार में सामाजिक समरसता के सेतु बने और हिंदुत्व की रक्षा की। उक्त परिप्रेक्ष्य में जबलपुर में भी उनका आगमन हुआ, उन यह गढ़ा कंटगा के महान् गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। तत्कालीन गोंडवाना के महा प्रतापी राजा संग्राम शाह ने संत रविदास का भव्य स्वागत - सत्कार किया था। उसके बाद यहां गुरुनानक और स्वामी विट्ठलनाथ भी पधारे थे जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं। गौरतलब है कि जहाँ संत कबीर की वाणी में तीखापन का आनंद है तो संत रैदास की वाणी में मिठास का आनंद है। इसलिए संत रैदास की वाणी बहुत लोकप्रिय है। एक बानगी देखिए कि
"अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।
प्रभुजी तुम घन वन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीया हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐंसी भक्ति करै रैदासा।।
स्वामी रामानंद ने भक्ति की दोनों सगुण और निर्गुण पद्धतियों को समान महत्व दिया है। उनके 12 शिष्यों में से अनंतानंद, सुरसुरानंद भावानंद, नरहर्यानंद आदि सगुणोपासक भक्त थे। निर्गुणोपासना के अंतर्गत कबीर, रविदास पीपा, सेन तथा धन्ना को स्वीकार किया जाता है। वस्तुतः उक्त संत कवियों को पूर्णतया निर्गुणी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इन संतों की वाणी में निर्गुण भक्ति के साथ-साथ सगुण भक्ति के भाव भी अभिव्यक्त हुए हैं। जब भक्ति ज्ञान से युक्त होती है, तो वह ब्रह्म निर्गुण हो जाता है, लेकिन जैसे ही भक्ति भावों में बहती है, वहीं ब्रह्म सगुण रुप में धारण कर लेता है। मूलतः स्वामी रामानंद ने स्पष्ट कहा है कि
"अगुणहि सगुणहि एक विचारा "
इस प्रकार भक्ति की दोनों धाराओं को सम दृष्टि से देखा तथा अपने शिष्यों को स्वेच्छा से सगुण - निर्गुण भक्ति ग्रहण करने की स्वायत्तता प्रदान की। उन्होंने सिद्धांतों को इतना उदार बनाया कि इनमें भक्ति ज्ञान एवं कर्म स्वतः ही समभाव से समाहित हो गए हैं। महान् संत रैदास उपर्युक्त विचारों के आलोक में संत शिरोमणि के रुप में प्रतिष्ठित हैं।
-डॉ. आनंद सिंह राणा,विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत