गोपराष्ट्र से आधुनिक ग्‍वालियर की यात्रा...

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

Update: 2021-10-20 16:48 GMT

बहुत कुछ कह रहा है ये शहर, तुम सुन रहे हो ना...।

अपने पूर्वजों के गांव में चलने की शुरूआत उस प्राचीन शहर से करते हैं जिसका नाम कभी गोपराष्ट्र था । महाभारत काल के पूर्व ही गोपराष्ट्र भारत के उन जनपदों में शुमार हो गया था जो कला-संस्‍कृति और अपने विशाल वैभव के लिए प्रसिद्ध हुआ करते थे। समय बदला तो यहां का नाम भी अपने को बदलता हुआ दिखा, गोपराष्ट्र छठवीं शताब्दी में गोपपर्वत फिर गोपगिरिन्द्र, गोपाद्रि, गोपगिरि, गोपांचल दुर्ग के रूप में अपनी पहचान बनाता अनेकों को राजा और रंक बनता हुआ देखता आगे बढ़ता रहा। फिर एक समय ऐसा भी आया जब इस शहर और आस-पास के संपूर्ण क्षेत्र का नाम ग्‍वालियर पर आकर ठहर गया। ग्‍वालियर नाम लोगों की जुबान पर ऐसा चढ़ा कि इस बात को भी अब सदियों बीत चुके हैं। गोपराष्ट्र से शुरू हुआ इस क्षेत्र के नामकरण का सफर ग्‍वालियर इस नाम को धारण कर अब विश्रान्‍ति पा चुका है।

यह शहर गुर्जर-प्रतिहार, तोमर, बघेलो कि शाखा कछवाहा राजपूतों का मुख्‍य केंद्र रहा है। यहां का किला (दुर्ग) भी बघेल कछवाह राजपूत शासक सूरज सेन के द्वारा निर्मित किया गया था । वैसे तो ग्‍वालियर अपने दुर्ग के लिए विश्‍व प्रसिद्ध है। किंतु इसके साथ ही ऐसा बहुत कुछ है जो इस क्षेत्र को विशेष बनाता है। ग्वालियर किले में चतुर्भुज मंदिर पाकिस्तान में भकशाली शिलालेख के बाद एक लिखित संख्या के रूप में शून्य की दुनिया में दूसरी घटना है।

शूरों और वीरों की भूमि मेरा ग्‍वालियर कुछ ऐसे सच्‍चे, सिरफिरे और जज्‍बाती लोगों की बसाहट है, जिनके लिए जीवन का मूल्‍य वचन से कीमती कभी नहीं रहा। फिल्म 'बाहुबली' में राजमाता शिवगामी के किरदार में 'राम्या कृष्णन' जो दमदार डॉयलोग ''मेरा वचन ही मेरा शासन है'' कहती हुई नजर आती हैं, यह खास डॉयलोग यहां के लोगों पर पूरी तरह से फिट बैठता है। जैसे इस भूमि में पैदा हुआ हर बच्‍चा अपनी मां की कोख से इस डॉयलोग को सच्‍चे अर्थों में लेकर ही बाहर आया हो ।

कई छोटे-मोटे आपसी झगड़े जैसे बिना देरी के युद्ध में बदल जाते हैं, तलवारें, छुरी, बरछी और जिसके पास बंदूक है तो वह बाहर निकलने में देरी नहीं लगती, तब ऐसे भी बहुत हैं जिनके पास ये अस्‍त्र-शस्‍त्र नहीं हैं, वे डण्‍डे और पत्‍थर से ही अपना काम चला लेते हैं, उसी को ही अपना हथियार बना लेते हैं । यहां कोई भी झगड़ा यदि कुछ लम्‍बा खिंच गया तो समझलीजिए वह बड़ा रूप लेने में देर नहीं करेगा ।

इसी प्रकार दूसरी एक विशेषता यहां के लोगों और इस पूरे क्षेत्र को विशेष बना देती है। गरीबी भले ही कितनी विकट हो, संकट जीवन जीने का आसन्‍न खड़ा हो, परन्‍तु इस माटी के जीवट लोग हैं कि अपरिचित की मदद करने से भी बाज नहीं आते। मदद और सहयोग ये दो शब्‍द जैसे यहां के लोगों के खून में है। इसलिए जब लड़ाईयां होती हैं तब दोनों पक्षों के चाहनेवाले इकट्ठे होने मे देर नहीं करते, फिर आनेवालों का अपना कितना भी नुकसान क्‍यों ना हो जाए। यही यहां के उत्‍सवों का हाल है, जमावड़ा अच्‍छा लगता है। उत्‍सव धर्मी लोकजीवन भी उतना ही सघन है, जितना कि युद्ध के मैदान में तलवार चलाने की आतुरता। शायद, यही वह वजह भी है कि आज भारतीय सेना हो या राज्‍य का पुलिस विभाग सबसे अधिक भर्ती हो जाने की होड़ इस क्षेत्र के युवाओं में ही दिखती है ।

अद्भुत है यह धरती, एक से एक बढ़कर योद्धा इस भूमि ने जन्‍में। इतिहास गवाह है कि जब इस्‍लाम अपने क्रूर अत्‍याचारों से मानवता को रोंदता हुआ एक हाथ में तलबार और एक हाथ में कुरान लेकर इस क्षेत्र में घुसा तो धर्मपरायण सनातनियों और यहां के मूल निवासी गोपालकों ने संघर्ष करने और अंत तक डटे रहने के संकल्‍प को कभी छोड़ा नहीं।

ग्‍वालियर के वह सपूत जो यहीं पले और महारानी लक्ष्‍मी बाई महाविद्यालय में पढ़े, फिर भारतीय राजनीति के शिखर पर पहुंचे, ऐसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भाषा में कहूं तो ''हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय! मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार।....मै यम की प्रलयंकर पुकार.. के भाव का अपने जीवन के अंत तक परिचय देने वाली यहां हर घर की कहानी है । तभी तो जिहादियों की अंधी फौज लेकर आए इल्तुतमिश को दुर्ग में सत्‍ता स्‍थापित करने के लिए 11 महीने तक लम्‍बा संघर्ष करना पड़ा था।

कई नरमुण्‍ड धरती पर बिछ गए, कई जनेऊ और शिखाएं कट गईं, किंतु यहां के लोगों का शौर्य था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। म्लेच्छों से संघर्ष कर जीवन होम कर देने का उत्‍साह इतना अधिक था कि एक ही शब्‍द चहुंओर गूंजता दिखाई देता, 'अठरा बरस तक क्षत्रिय जीवे आगे जीवन को धिक्‍कार' ।

इस दौर में पुरोहि‍त भी अपना पुर हित यानी कि 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' का संदेश घर-घर पहुंचा रहे थे, जिसे श्रीकृष्‍ण ने महाभारत के दौरान अर्जुन को दिया था- ''अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है।'' और इस पुरोहि‍त जागरण का असर इस क्षेत्र में चहुंओर दिखाई देता। थकहारकर इल्तुतमिश को अपने इस्‍लामिक अजण्‍डे को पीछे छोड़ना पड़ा था ।

सच यही है कि लम्‍बे संघर्ष के बाद ग्वालियर के दुर्ग और उसके आस-पास के कुछ भाग को छोड़कर इल्तुतमिश की इस्‍लामिक सेना कभी यहां पूरी तरह से कब्जा नहीं कर पाई। पूर्ण सत्‍ता स्‍थापित करने की बात तो फिर बहुत 'दूर की कौड़ी थी।' लेकिन हां, इतना जरूर हुआ कि जो डर से या अन्‍य किसी कारण से इस्‍लाम को स्‍वीकार्य कर चुके थे, खास तौर से वे जो इल्तुतमिश के साथ यहां युद्ध के लिए आए थे, अब वह बहुसंख्‍यक हि‍न्‍दुओं के साथ अपने कस्‍बे बनाकर रहने लगे थे।

धर्म के आधार पर पूजा-अर्चना के लिए यहां के मूल निवासियों ने उन्‍हें वही सम्‍मान दिया, जो वे अपने तीज-त्‍यौहारों को देते आए हैं। यहां के जन का सीधा कहना रहा, धर्म से कोई भेदभाव नहीं, लेकिन इस्‍लामिक सत्‍ता कभी स्‍वीकार्य नहीं। इसलिए जहां धार्मिक सौहार्द की बात रही, सनातनी हिन्‍दू सदैव सम्‍मान की मुद्रा में रहे लेकिन वहीं आक्रमणकारी की सूरत में इस्‍लाम को देखा तो अपने को विद्रोह करने से ना रोक पाए।

कुल मिलाकर लाख चाहकर इल्तुतमिश इस क्षेत्र में अपने मंसूबे कभी पूरे नहीं कर पाया । इस्‍लाम का ध्‍वज यहां कभी नहीं फहर सका। सत्‍ता परिवर्तन तक यहां संघर्ष चलता रहा और फिर पुन: 1375 में राजा वीर सिंह ग्वालियर के शासक बने। जिन्‍होंने तोमरवंश की स्थापना की । इसी तोमरवंश के कार्यकाल में ही शताब्‍दियों बाद फिर से ग्वालियर ने अपना स्वर्णिम काल देखा। सभी पंथ, धर्म, सम्‍प्रदाय के प्रति तोमर वंश की समान दृष्‍टि दिखी ।

इसी शासन के दौरान ग्वालियर किले में जैन मूर्तियां बनाई गईं। आज आप यहां किले पर सभी पंथों का समावेश सहज ही देख सकते हैं। वर्तमान का ग्वालियर एक आधुनिक शहर है और एक जाना-माना औद्योगिक केन्द्र है। ग्वालियर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुख स्मार्ट सिटीज मिशन के तहत स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित होने वाले सौ भारतीय शहरों में से एक के रूप में चुना है।

ऋषि गालव से लेकर तानसेन तक और उसके आगे सिंधिया वंश से लेकर महारानी लक्ष्‍मी बाई के प्राण उत्‍सर्ग तक यहां की कहानी बहुत लम्‍बी है। सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है? जैसे गीत गुनगुनानेवाले क्रांतिकारियों का जैसे रोज का आना-जाना रहा है। प्रसिद्ध काकोरी ट्रेन डकैती में प्रयुक्त होने के लिए बम ग्वालियर से गए थे। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, भगवानदास माहौर, भाई परमानंद, अरुण आसफ अली, गेंदालाल दीक्षित, जयप्रकाश नारायण, मोहनलाल गौतम का ग्वालियर अक्‍सर ही आना-जाना था।

इतिहास में यह बात भी दर्ज है कि लाला लाजपत राय पर लाठी बरसाने के लिए जिम्मेदार ब्रिटिश एसएसपी स्कॉट और एएसपी सांडर्स को माना गया था। इस लाठी कांड के बाद लाला जी की मृत्यु हो गई थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचएसआरए) के लीडर चंद्रशेखर आजाद ने ग्वालियर में भगवानदास माहोर के घर बैठकर इस हत्याकांड की योजना बनाई, और यहां से कुछ साथियों को साथ लेकर भगत सिंह के साथ लाहौर गए । सांडर्स को मार आजाद और भगत सिंह तीर्थ यात्रियों के रूप में पहले मथुरा आए और फिर ग्वालियर आ गए थे ।

समय के साथ ग्‍वालियर की यात्रा इससे भी बहुत आगे बढ़ती हुई दिखाई देती है। स्‍वतंत्र भारत में ग्‍वालियर 1948 से 1956 तक मध्‍य भारत की राजधानी के रूप में दिखाई दिया। साथ ही इसने उन तमाम मुख्‍यमंत्रियों का दोगलापन भी देखा जिन्होंने इस क्षेत्र को कभी पनपने नहीं दिया। एक से एक राजनेता, शिखर पुरुष इस क्षेत्र ने दिए, किंतु राजनीतिक चक्रव्‍यूह में कोई आज तक इस प्रदेश का मुख्‍यमंत्री नहीं बन पाया।

सत्‍ता परिवर्तन के लिए सबसे पहली मुहीम राजमाता विजया राजे सिंधिया ने शुरू की । वे सफल भी रहीं, कभी आर्य समाजियों, हिन्‍दू महासभायियों और कांग्रेस के साथ क्रांतिकारियों के संयुक्‍त गढ़ के रूप में अपनी पहचान बना चुका ग्‍वालियर अब घर-घर स्‍वयंसेवकों के लिए जाना जाने लगा था। ''नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्'' की भारत वंदना जैसे हर मौहल्‍ले से सुनाई दे रही थी। यह अपने नए स्‍वरूप में अब संघ और जनसंघ के गढ़ के रूप में सभी के सामने था और आज भाजपा के गढ़ के रूप में हम सभी के समक्ष है ।

नए युग में समय के साथ दादी के पदचिन्हों पर पोता भी चलते हुए दिखाई दिया। डीपी मिश्रा के मुख्‍यमंत्रीत्‍व को जिस तरह से राजमाता ने धराशाही कर दिया था, ठीक वैसे ही उनके पोते ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया ने कमलनाथ की सत्‍ता को प्रदेश से एक झटके में धराशाही करते हुए हम सभी ने देखा है।

ग्‍वालियर अपने खजाने से अब भी वीरों और समर्प‍ित राजनेताओं को पैदा कर रहा है। अद्भुत योजक इस धारती से निकल रहे हैं। परन्‍तु ग्‍वालियर को अब भी इंतजार है कोई तो यहां का ऐसा शूरवीर-योजक-संगठक आगे आए जो प्रदेश का मुख्‍यमंत्री बने। बहुत हो गई अब केंद्र में मंत्री और राज्‍य में मंत्रियों की सूची। अब इस ग्‍वालियर को अपनी कोख से जन्‍म लिए संतती के मुख्‍यमंत्री बनने का इंतजार है। शेष सत्‍ता के इर्दगिर्द बहुत कुछ स्‍वत: ही हो जाता है।

सादर

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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