लोकतंत्र में अंतिम आदमी की वाणी पत्रकारिता

अरविंद पंडित

Update: 2023-05-10 08:39 GMT

वेबडेस्क।  भारत व्यवस्थाओं की स्थापना का देश है। सनातन की शांति का आधार ऋषियों का मार्गदर्शन ही है। विपरीत परिस्थितियों में जीवन का संतुलन भी इन्हीं से बनाना भारतीय सीख पाएं हैं। त्रेता युग में आराध्य श्रीराम को धरती पर संतुलन बनाए रखने के लिए आमंत्रण, आग्रह और आदेश विश्वामित्र का था। यह वो समय था, जब दुश्मन भी न केवल बलशाली, बल्कि उच्च कोटि का साधक भी हुआ करता था। चुनौतियां कम न थीं। राह आसान न थीं। दानव हाईटेक भी कम न थे। आसमान में उडऩा। स्वरूप बदल लेना। ऐसे में सामान्य साधकों की रक्षा, स्वतंत्रता में ऋषियों की भूमिका वंदनीय है। द्वापर में श्री कृष्ण ने ऋषि सांदीपनी के आश्रम से शिक्षा प्राप्त की और बिगड़ते परिदृश्य में मानव सयता को सजग और सहज रहने की व्यवस्था दी। श्रीकृष्ण ने विपरीत परिस्थितियों में नई परिभाषाओं को ऋषियों की मौन स्वीकृति से ही आकार दिया। शिक्षा पूर्ण कर ऋषि सांदीपनी के आश्रम में ही परशुराम ने कृष्ण को सुदर्शन चक्र दिया था। ये नयी समस्याओं के नये समाधान की व्यवस्था पर सहर्ष स्वीकृति थी श्रृंगी ऋषि द्वारा पुत्र प्राप्ति के लिए राजा दशरथ के यहां पुत्रेष्ठ यज्ञ, अगस्त्य ऋषि द्वारा आचमन में समुद्र पान करना, यहां तक कि शादी विवाह में गौत्र द्वारा ही नए संबंधों की आधारशिला सर्व विदित है भोजन, भजन, भविष्य, वर्तमान सभी में ऋ षियों ने मानव जाति का मार्गदर्शन नि:स्वार्थ किया है। ताकि मनुष्य के मन का विश्वास कमजोर ना हो। चौरासी पन्नों के ग्रंथ को नारद भति सूद और नारद भति दर्शन कहते हैं। कैसे की जाती है भति? उसके लक्षण या है? या भति का भी कोई नियम होता है? नियम हैं, तो फल भी होते हैं। इसकी रचना मुनिश्रेष्ठ नारद जी ने स्वयं की है। वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र माने जाते हैं। मानस पुत्र का अर्थ है, महज इच्छा से जन्मा। कहा जाता है कि 'नारदादेव दर्शनार्तÓ अर्थात् जिसे देवर्षि नारद मिल गए, उसे ईश्वर के दर्शन हो गए। भागवत में कथा आती है कि हिरण्यकश्यपु ने भत प्रहलाद को प्रताडि़त करने की हर सीमा लांघ दी थी। उसने पर्याप्त तपस्या करके ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था, कि उसे कोई मनुष्य जानवर ना मार सकें। ना दिन में रात्रि में ना घर में, ना घर के बाहर। वैसे भी हिरण्य का अर्थ स्वर्ग यानी सोना होता है, इसके पिता कश्यप ऋ षि थे इसका छोटा भाई हिरण्याक्ष था। इसका वध वाराह अवतार लेकर भगवान विष्णु ने किया था। हिरण्यकश्यप वरदान पाने के बाद किसी को कुछ नहीं समझता था। वह स्वयं को ईश्वर कहने लगा। उसके पुत्र प्रहलाद ने उसे खूब समझाया, लेकिन वह नहीं माना। उसे पता चला कि उसका बेटा प्रहलाद विष्णु की आराधाना करता है, तो उसका ही दुश्मन बन गया। अपनी बहन होलिका, जिसे वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती है। वह प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई। भत प्रहलाद विष्णु की आर्तनाद के साथ अयर्थना करने लगा। उसका तो बाल बांका नहीं हुआ। होलिका भस्म हो गई। तभी से भारत में कहते हैं होली दहन और रंगों के पर्व की शुरूआत हुई। प्रहलाद पर फिर भी पिता की क्रूरता कम न हुई। उसने पूछा, तेरा विष्णु सभी जगह है? भत प्रहलाद ने कहा हां! ईश्वर को देखने की दृष्टि सभी में नहीं होती है जैसे कि आप परमाणु को नहीं देख सकते हैं। लेकिन साधन के उपयोग से देख सकते हैं। तो हिरण्यकश्यपु ने पूछा इस स्तभ में विष्णु हैं? उसके हां कहते ही उसने उसे प्रहार से डहा दिया। वहीं नरसिंह अवतार के साथ भगवान विष्णु प्रकट हुए। कहा जाता है कि इससे पूर्व देवर्षि नारद भत प्रहलाद को यह सब बता चुके थे जानते ही होंगे कि नरसिंह अवतार लेकर ही भगवान ने हिरण्यकश्यप का अंत किया था। नारद भतिसूत्र में कोई अध्याय नहीं है, या कहें नारद जी ने इसे एक ही अध्याय में लिखा है। सूत्र का अर्थ है संक्षिप्त देवर्षि के मत में अपने सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करना और उनका थोड़ा भी विस्मरण हो जाए तो व्याकुल हो जाना भति है। उन्होंने भति के 51 से 55 सूत्र तक प्रेम सूत्र की व्याया की है। भति को प्रेम रूपा कहा गया है। अमृत रूपा भी है। इसके पाते ही मनुष्य इच्छा रहित हो जाता है। यह भति इच्छा निरोध स्वरूपा है। यही नारद जी है। महर्षि वेद व्यास ने कहा, तुहें जो चाहिए वह प्रभु ने तुहें देकर भेजा है। नारद जी से प्रेम रूपा कहते हैं, वह काम नहीं है। प्रेमियों की नजर एक दूसरे पर नहीं एक साथ होती है। फिर वह सितारों पर हो, या सितार पर, चांद पर हो या पक्षियों के कलरव पर। यह उस पार जाने की छलांग है। यह शून्य का संगीत है। नारद जी अद्भुत विद्वान, अहर्निश भत और कल्याणकारी हैं उनसे अर्जुन की भी भेंट हुई थीं। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि नारद जी ने अर्जुन से कहा था धनन्जय तुहें शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो। तुहारी बुद्धि, धर्म, देवता और ब्राह्मणों की सेवा में लगे। वस्तुत: समकालीन अर्थों में नरद जी परम् कल्याणकारी हैं। सूचना युग के जन्मदाता नारद। धरती के पहले और जीवन के जरूरी पत्रकार का नाम नारद है। वे हर अर्थवान प्रवाहमान ऋ षियों और देवताओं के मित्र हैं अर्थात् साा के करीबी, लेकिन सभी प्राणियों के जीवन में वसंत लाने के पक्षधर। उनकी सूचनाएँ चेतना के भिन्न-भिन्न स्तरों को संवाद से जोड़ती हैं। यह संवाद जो जनता और सरकार को, परिवार और समाज को जोड़ता है। भति को समझते हुए ही नारद जी को समझा जा सकता है। भति का अर्थ है प्रेम, ऊर्ध्वमुखी प्रेम । व्यष्टि और समष्टि का प्रेम । भति को शास्त्र नहीं कहते। कहना ही हो तो यात्रा कह सकते है इसे हर तरह की यात्रा के रूप में देख सकते हैं आत्म समर्पण की अभीप्सा, परिपूर्ण आस्था और प्रार्थना में आंसू, भति को सुगम बनाती है। ठीक ऐसे ही हर स्वर सुना जा सके, हर कष्ट दिखाई दे सके, हर विस्तार को जो सभी के लिए हो, प्रकाशमान ढंग से व्यति किया जा सके, यही समझ तो पत्रकारिता है। मनुष्य के हर सरोकार को जहां जगह मिल सके, वह है पत्रकारिता जहां मुनष्य की चिंता में समय के केन्द्र में वाणी की मुखरता हो, वह है पत्रकारिता । नारद सूचना का तरल तत्व भी है और भाव का घनत्व भी, जिसमें नर और नार दोनों है।

कोई भी हृदय केवल पुरुष नहीं होता
कोई भी हृदय महज ी नहीं होता
नारद के संदेश अनुगूंज है

किसी कवि की पंतियां है -

है जगह इंसान तो मौसम बदलकर ही रहेगा
जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा।

(लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं)

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