मातृभाषा : आत्मनिर्भर भारत की राह
आचार्य राघवेंद्र प्रसाद तिवारी, कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा
मनुष्य ने आदिम युग से ही विकास के अनेकानेक मानदंड स्थापित किया है। उसकी श्रेष्ठतम उपलब्धियों में से एक है भाषा का आविष्कार, परिष्कार एवं अब तक कि अजेय यात्रा। संस्कृताचार्य दण्डी उद्घोषणा करते हैं कि यदि भाषा नामक ज्योति अथवा शब्द प्रकाश न होता तो यह संसार अंधकारमय रहता- इदमन्धं तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्। यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते॥ यानी हम शब्द अर्थात भाषा के माध्यम से ही इस ब्रह्मांड और इसके विविध घटकों का परिचय एवं उनके सदुपयोग की प्रेरणा लेते हैं। इसे मार्खेज के उपन्यास 'एकाकीपन के सौ वर्ष' के उस प्रसंग से समझा जा सकता है जिसमें एक गाँव के लोग धीरे-धीरे वस्तुओं और प्राणियों के नाम भूलने लगते हैं। गाँव का एक परिवार सुबह उठने पर पाता है कि उसके द्वार पर चार पैरों वाला एक पशु बंधा है। उसका नाम एवं उपयोगिता लगभग समस्त ग्रामवासी भूल चुके हैं। ऐसे में एक व्यक्ति बताता है कि यह गाय है और इसे दुहते हैं। धीरे-धीरे स्पष्ट होता है कि इसका दूध मानव जीवन में अत्यधिक उपयोगी है। यह सारी बातें वह गत्ते पर लिखकर गाय के गले में लटका देता हैं ताकि यह बातें विस्मृत न हो। इस उदाहरण से आचार्य दण्डी का कथन और भी स्पष्ट हो जाता है कि यदि शब्द नाम का प्रकाश न हो तो यह ब्रह्मांड अंधकार के गर्त में डूबा रहे।
शब्द एवं भाषा से हमारा परिचय बचपन में ही हो जाता है। बच्चे के माता-पिता एवं पारिवारिक सदस्य उससे बचपन से ही कुछेक बात करते रहते हैं। बच्चा उन शब्दों को प्रारंभ में नहीं समझता किंतु वह ध्वनियों को पकड़ता है और उनपर अपने हाव-भाव प्रकट करता है। धीरे-धीरे वह उन शब्दों का अर्थ समझते हुए उनको व्यवहार में लाता है। परिवार एवं अड़ोस-पड़ोस का परिवेश ही उसके लिए भाषा की प्रथम पाठशाला है। बाल्यकाल के परिवेश में बच्चा जो भाषा सीखता है वही उसकी मातृभाषा है। अतएव मातृभाषा को केवल माँ की ही भाषा तक न सीमित करके उसे बच्चे के प्राथमिक परिवेश के संदर्भ में देखना चाहिए। 'शब्दों का सफर' लिखने वाले अजित वडनेरकर का कहना है कि 'मेरा स्पष्ट मत है कि मातृभाषा में 'मातृ' शब्द से अभिप्राय उस परिवेश, स्थान, समूह में बोली जाने वाली भाषा से है जिसमें रहकर कोई भी व्यक्ति अपने बाल्यकाल में दुनिया के सम्पर्क में आता है।'
पिछले कुछ वर्षों में 'मातृभाषा' को लेकर चर्चा तेज़ हुई है। भाषाविद् एवं शिक्षाविद् इस बात को लेकर चिंतित हैं कि मातृभाषाएं बड़ी तीव्रता से लुप्त हो रही हैं। आज देश में कई ऐसी मातृभाषाएं हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या निरंतर कम हो रही है। हम कह सकते हैं कि जब विश्व को वैश्विक गाँव के रूप में स्वीकृति मिल रही है तब केवल कुछ भाषाएँ ही शेष रहे तो कोई नुकसान नहीं है। परन्तु ऐसा सोचने वाले भूल जाते हैं कि किसी भाषा विशेष का नष्ट होना एक पूरी संस्कृति और जीवन-दृष्टि का नष्ट होना है। भाषा और साहित्य के मर्मज्ञ आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी कहते हैं कि 'प्रत्येक परिवेश की अपनी एक शब्दावली होती है जिसमें अपने आस-पास की वस्तुओं और प्राणियों को नाम दिया जाता है। इन शब्दों के खत्म होने से एक दुनिया मिटती जा रही है, एक धरोहर नष्ट हो रही है।'
स्वतंत्रता पूर्व उपनिवेशवादी अंग्रेज सरकार ने अपने काम-काज की सुगमता हेतु अंग्रेज़ी को ही राजभाषा बनाया। फलस्वरूप व्यवस्था के समस्त कार्य अंग्रेज़ी भाषा में संपादित होने लगे। अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान अनिवार्य हो गया एवं हमारे विद्यालयों में अंग्रेज़ी का बीजवपन हुआ। परिणामतः सदियों पुरानी हमारी आत्मनिर्भर ज्ञान परंपरा एवं अर्थव्यवस्था नष्ट होने के कगार पर आ गयी। ऐसी परिस्थिति में भारतीयों को जीविकोपार्जन हेतु नौकरी पर निर्भर होना पड़ा एवं मजबूरन अंग्रेज़ी सीखनी पड़ी। शनैः-शनैः यह अंग्रेज़ी भाषा सत्ता और वर्चस्व का उपकरण बनती गयी। स्वतंत्रता आंदोलन के असंख्य नायक-नायिकाओं का स्वप्न था कि विदेशी-व्यवस्था की इतिश्री के पश्चात स्वभाषा ही देश में प्रत्येक स्तर पर व्यवहृत होगी। विडम्बना है कि यह स्वप्न आजादी के 75 वर्षों बाद भी स्वप्न ही है। आज न तो अपनी मातृभाषा में शिक्षा है, न स्वास्थ्य एवं न्याय। प्रारंभिक से लेकर उच्च शिक्षा तक अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है। न्याय प्रणाली में आज भी भारतीय भाषाओं को न के बराबर स्थान प्राप्त है। बीमारियों-दवाइयों के नाम सहित पर्चे भी अंग्रेजी में ही लिखे जाते हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए यह अतिआवश्यक है कि शासन-प्रशासन एवं जीवन शैली में आम नागरिकों की अधिकाधिक सहभागिता हो। ऐसा तभी संभव है जब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मातृभाषा ही उपयोग में हो।
शिक्षा के क्षेत्र में यदि देखें तो विज्ञान और तकनीकी शिक्षा को मातृभाषा में प्रदान करके ही शिक्षा को सही अर्थों में सर्वसमावेशी बनाया जा सकता है। हमारी दुर्दशा है कि भाषा के कारण विद्यार्थियों के बीच भेदभाव बढ़ रहा है। अंग्रेज़ी से इतर किसी भारतीय भाषा में शिक्षाप्राप्त व्यक्ति को हीन दृष्टि से देखा जाता है। फलतः माता-पिता बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के 'स्कूल' में भेजने हेतु अपनी समस्त जमा-पूँजी गँवा देते हैं। साथ ही बच्चे अपनी समस्त ऊर्जा विदेशी भाषा सीखने में नष्ट करते हैं। अनेक शोध यह प्रमाणित कर चुके हैं कि विद्यार्थी को यदि उसकी मातृभाषा में शिक्षा दी जाए तो वह त्वरित गति से विषयवस्तु को सीखता-समझता है। अनेक देश जैसे जापान, फ्रांस, जर्मनी अपनी मातृभाषा के चहुँमुखी उपयोग द्वारा ही आत्मनिर्भर बने हैं। भारत जैसे बहुभाषी देश को अपनी मातृभाषा के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु इन देशों द्वारा अपनाए गए नीतियों एवं तरीकों को समझना-परखना चाहिए।
इन परिस्थितियों में 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020' में निहित भाषा संबंधी प्रावधानों से आशा की नूतन किरण प्रस्फुटित हुयी है। इसमें प्रस्तावित है कि हम ऐसी व्यवस्था का निर्माण करें जिससे कम से कम कक्षा पाँच तक बच्चा अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करें। साथ ही प्रयास हो कि आगे यदि बच्चा अपनी मातृभाषा में ही पढ़ाई जारी रखना चाहता है तो उसके लिए सुविधापूर्ण वातावरण निर्मित किया जाए। शोध से यह तथ्य उद्घाटित होता है कि बच्चा तीन वर्ष की आयु तक अपने परिवेश से लगभग एक हज़ार शब्द सीख जाता है। इन शब्दों का समावेश उसकी शिक्षा में हो जाने से उसकी राह अपेक्षाकृत सुगम एवं सार्थक होगी। हाल ही में ब्रिटेन के 'यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग' के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि जो बच्चे एकाधिक भाषाओं का प्रयोग दैनिक जीवन में करते हैं वह बुद्धिमत्ता जाँच में उन बच्चों के मुकाबले अच्छे अंक लाये जो केवल गैर-मातृभाषा का ज्ञान रखते हैं। ऐसे शोध से प्रेरणा लेते हुए हमें बच्चों को मातृभाषा में व्यवहार करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। अन्य भाषाओं का ज्ञान कोई दोष नहीं अपितु अतिरिक्त उपलब्धि है। अतएव अपनी मातृभाषा को क्षति पहुँचाकर विदेशी भाषा का प्रयोग करना तर्क एवं न्याय संगत नहीं है।