अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए क्या बेहतर- नोट छपाई या उधार

Update: 2020-05-10 07:56 GMT

नई दिल्ली। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने इस साल जो 54 फीसदी ज्यादा उधार लेने का फैसला लिया है, उसे अर्थशास्त्री बिल्कुल सही फैसला करार देते हैं। उनका कहना है कि यदि सरकार इसके बदले नए नोट छापती, तो अर्थव्यवस्था पर कई दूरगामी बुरे असर पड़ते। वैसे भी, कहा गया है कि किसी भी सार्वभौमिक सरकार के लिए नए नोट छापने का फैसला अंतिम उपाय होना चाहिए।

कोरोनावायरस की वजह से हुए लॉकडाउन के बीच ठप पड़ी अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने चाालू वित्त वर्ष के लिए जो नया बॉरोइंग प्रोग्राम जारी किया है, उसमें बाजार उधारी में 54 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है।

मोदी सरकार ने जो बाजार उधारी के जरिये अतिरिक्त 4.2 लाख करोड़ रुपये जुटाने का फैसला लिया है, वह बिल्कुल सही कदम है। अभी अर्थव्यवस्था में जो स्थिति है, उसमें सरकारी खर्च बढ़ाना ही उपयुक्त है। लेकिन अभी सरकारी राजस्व घट गया है। ऐसे में नए नोट छापने से बच कर बाजार उधारी के जरिये रकम जुटाना सही है। यदि सरकार नए नोट छापने का फैसला लेती तो इससे अर्थव्यवस्था पर कई निगेटिव असर पड़ता। इसके विपरीत बाजार उधारी लेने से भले ही राजकोषीय घाटा बढ़ जाए, लेकिन उन नेगेटिव असर से अर्थव्यवस्था बची रहेगी।

सरकार यदि अर्थव्यवस्था चलाने के लिए नए नोट का फैसला लेती तो इससे चहुंओर महंगाई भड़क जाएगी। आर्थिक किताबों में जिम्बाब्वे का उदाहरण अकसर दिया जाता है, जहां की सरकार ने कभी पैसे जुटाने के लिए मार्केट बोरोइंग के बदल नए करंसी नोट नोट छापना बेहतर समझा। इससे वहां इतनी महंगाई भड़की कि एक ट्रिलियन डॉलर में ब्रेड का एक लोफ बिकने लगा। यही नहीं, महंगाई दर ज्यादा रहने से आम नागरिक बचत और निवेश से मुंह मोड़ने लगते हैं। लोगों को जब निवेश करने का फायदा नहीं मिलता है तो वे ऐसा करना छोड़ देते हैं और सरकार को हर काम के लिए बाजार का मुंह ताकना पड़ता है।

आमतौर पर कोई भी देश अपनी जीडीपी के अनुपात में नोट छापता है। यदि किसी कारणवश नए नोट छापने का फैसला लिया जाता है तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में उसकी मुद्रा का उसकी अनुपात में डिवैल्यूएशन हो जाता है। इससे विकासशील अर्थव्यवस्था को कुछ ज्यादा ही घाटा होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके यहां उद्योग-धंधे को फलने-फूलने के लिए बड़े पैमाने पर रॉ मटीरियल का आयात करना होता है। उनके करंसी का डिवैल्यूएशन होते ही इंपोर्टेड रॉ मटीरियल की लागत बढ़ जाती है। इसका असर घरेलू बाजार पर भी स्पष्ट दिखता है।

आमतौर पर विकसित देशों के बैंकों में पैसे रखने पर कोई ब्याज नहीं मिलता, उलटे कुछ पैसे देने पड़ते हैं। इसके उलट भारत जैसे देशों में बैंक जमा पर अच्छा खासा ब्याज मिलता है। इसी के लालच में अंतराष्ट्रीय निवेशक ऐसे देशों में अपनी रकम निवेश करते हैं। जैसे ही इस तरह के देश में नए नोट छापने का फैसला होता है तो अंतर्राष्ट्रीय निवेशक अपना पैसा निकालने लगते हैं क्योंकि जिस देश की मुद्रा में जितना डिवैल्यूएशन होगा, अंतर्राष्ट्रीय निवेशक को उतना ही घाटा होगा। जब महंगाई दर ज्यादा होती है तो उसका अपना घाटा होता है। यदि किसी देश में महंगाई की दर 10 फीसदी है तो उसका अर्थव्यवस्था पर 20 फीसदी का नुकसान हो जाता है। इससे लोगों की बचत पर प्रतिफल तो घट ही जाता है, जिन्होंने बैंकों से लोन लिया हुआ उनकी लागत भी बढ़ जाती है।

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