क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व से नाराज है? क्या यह नाराजगी इतनी है कि संघ के सरसंघचालक अपनी असहमति दर्ज कराने के लिए सार्वजनिक मंच को माध्यम बनाएंगे? क्या संघ एवं भाजपा के बीच संवाद स्थगित है? आज ऐसे या ऐसे ही सवालों को केन्द्र में रखकर एक विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि भाजपा के खिलाफ संघ ने अपनी कोप दृष्टि प्रगट की है और तलवारें म्यान से बाहर निकल चुकी हैं ।
यह बहस इधर-उधर देखकर, पढ़कर, सुनकर हँसी ही आती है। कारण अपने जीवन के यशस्वी 100 वर्ष पूर्ण करने जा रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्य पद्धति को समझने में देश का कथित बुद्धिजीवी वर्ग या तो अक्षम है या वह इरादतन षड्यंत्रपूर्वक एक भ्रम का वातावरण बनाने का असफल प्रयास कर रहा है। आश्चर्य तो नहीं, पर दुख इस बात का अवश्य है कि भारतीय राजनीति में शुचिता के लिए, सत्य आधारित प्रचार के लिए, पक्ष एवं विपक्ष के बीच परस्पर समन्वय के लिए, डॉ. भागवत ने जो महत्वपूर्ण सूत्र दिए, उस पर कोई सार्थक बहस नहीं हो रही। एक भी विपक्ष के नेता ने या देश के मीडिया संस्थानों ने इस पर चर्चा नहीं की कि डॉ. भागवत ने यह कह कर राजनीति को नई दिशा दी है कि विरोधी न कहें प्रतिपक्ष कहें। भारतीय संस्कृति संवाद की ही है। शास्त्रार्थ की है। वे भारतीय संसद को एक स्वस्थ बहस का केन्द्र बनाने की बात कह रहे हैं। सह चित्त बनाने का आग्रह कर रहे हैं। डॉ. भागवत कह रहे हैं कि चुनाव में जीत के लिए स्पर्धा हो, पर वह युद्ध के हालात न बने। वे अप्रचार की निंदा कर रहे हैं। वैमनस्यता का भाव न बढ़े, इसका आग्रह कर रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है और इस नाते वह अपने दायित्वबोध के साथ समाज का प्रबोधन कर रहे हैं। और जिनकी याददाश्त कमजोर है वह च्यवनप्राश खा लें। यह संघ ने पहली बार नहीं किया है। संघ अपने स्थापना काल से देश के समक्ष आसन्न चुनौतियों को लेकर आगाह करता आया है। नेहरू की हिन्दी-चीनी भाई-भाई के खतरों को लेकर संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पू. गुरुजी ने पं. नेहरू को पत्र लिखा। और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध काल में स्वयंसेवकों ने सेना के साथ मोर्चा भी संभाला। एनडीए की सरकार के समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में देश की आर्थिक नीति को लेकर संघ के वरिष्ठ प्रचारक मूर्धन्य चिंतक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने गंभीर प्रश्न भी खड़े किए। प्रख्यात पत्रकार मा. गो. वैद्य के आलेखों ने भी समय- समय पर जब जिसकी सरकार रही, बिना यह विचार किए कि सरकार भाजपा की है या अन्य दलों की, तथ्यों के साथ अपनी बात रखी।
यह संघ का युगीन कर्तव्य है। यह संघ का युग धर्म है। इसलिए डॉ. भागवत के वक्तव्य को भाजपा के खिलाफ संघ का आक्रोश कहना गलत होगा, यह फिर रेखांकित करना आवश्यक है। अच्छा होता डॉ. भागवत ने सामाजिक समरसता, पर्यावरण, नागरिक अनुशासन 'स्वÓ आधारित चिंतन एवं स्वदेशी पर जो बात की उस पर चर्चा होती। अच्छा होता 45 से 50 डिग्री तापमान में अपने खुद के खर्चे पर देश भर में स्थान-स्थान पर लगने वाले ये कार्यकर्ता विकास शिविर क्या हैं, देश का मीडिया इसे समझने का प्रयास करता? उल्लेखनीय है कि डॉक्टर भागवत ने यह उद्बोधन कार्यकर्ता विकास शिविर के समापन समारोह में ही दिया है। इस पर कोई चर्चा नहीं। आखिर घर से 20 दिन दूर रह कर ये कार्यकर्ता क्या सीखने आते हैं, यह जानने की कोशिश की गई होती तो एक दृष्टि मिलती। यह वह करते तो उन्हें पता चलता कि संघ के चिंतन में राजनीतिक चिंतन का स्थान अत्यंत नगण्य है। इसलिए संघ समाज जागरण की बात करता है। वह यह मानता है कि समाज जितना सक्षम एवं सजग होगा उतना ही परिपक्य नेतृत्व होगा। पर विमर्श इन मूल विषयों पर नहीं हो रहा। इस पर बात नहीं हो रहा कि डॉ. भागवत ने विरोधी पक्ष के स्थान पर प्रतिपक्ष की बात कही है। क्या देश का प्रतिपक्ष इतना गंभीर एवं संवेदनशील है?
दुर्भाग्य से इसका उत्तर नकारात्मक है। यही कारण है कि वह पहले इस बात पर दुखी था कि संघ भाजपा के साथ क्यों है? आज खुश इसलिए है कि उनके हिसाब से संघ भाजपा के खिलाफ है। बकौल डॉ. भागवत (काफी पुराना बयान) भाजपा के अच्छे कामों का लाभ भाजपा को है तो पाप के फल भी वही भोगेंगे, संघ का उसमें कोई लेना-देना नहीं। यही नहीं विज्ञान भवन नई दिल्ली में डॉ. भागवत ने यह भी कहा था कि भाजपा के नेता सलाह मांगने आते हैं, इसलिए संघ सलाह देता है। राष्ट्रहित में अन्य राजनीतिक दल भी मांगेंगे तो देंगे। संघ ने यह किया भी है।
स्वागत करना चाहिए डॉ. भागवत के वक्तव्य का कि उन्होंने एक दिशाबोधक भाषण नहीं, मैं इसे 'प्रवचनÓ कहूँगा दिया है। अच्छा हो उसे बिना किसी दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह के सुनें।
रही बात दोनों संगठन के बीच तलवारें खिंचने की तो जब डॉ. भागवत राजनीति में उसे अस्वीकार कर रहे हैं तो यहां तो संभव ही नहीं। कारण दोनों ही संगठन के नेतृत्व का लक्ष्य राष्ट्र प्रथम ही है।