बरैया राज्यसभा से या विधानसभा से

18 साल बाद भी नहीं खुल सका बरैया की किस्मत पर लगा ताला

Update: 2020-05-27 08:47 GMT

भोपाल। मध्यप्रदेश में कभी बहुजन समाज पार्टी के सिरमौर रहे फूलसिंह बरैया को पार्टी प्रमुख मायावती को हल्के में लेना काफी भारी पड़ गया। राजनीति की चतुर खिलाड़ी मायावती ने 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले बरैया को पार्टी से निकालकर उनकी किस्मत पर ऐसा मजबूत अलीगढ़ी ताला जड़ दिया था, जो 18 साल बाद भी नहीं खुल सका। गुजरे 18 सालों में बरैया ने एक के बाद तीन राजनैतिक पार्टियों की शरण ली और अपनी खुद की दो पार्टियां भी बनाईं, लेकिन उनके राजनैतिक वनवास का अंत फिर भी नहीं हुआ।

छात्र जीवन से दलित शोषित संघर्ष समिति के माध्यम से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहे फूलसिंह बरैया ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक काशीराम के मार्गदर्शन में राजनीति में कदम रखा था। 14 अपै्रल 1984 को बसपा के गठन के बाद बरैया ने 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले तक मध्यप्रदेश में बसपा का नेतृत्व किया। इस बीच बरैया 1998 में दतिया जिले की भाण्डेर विधानसभा से चुनाव जीतकर विधायक भी बने। 2003 के विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने से पहले बसपा प्रमुख मायावती ने बरैया पर पार्टी के जरूरी दस्तावेज चोरी करने का आरोप लगाकर उन्हें पार्टी से बारह कर दिया। बरैया को अचानक पार्टी से निष्कासित किए जाने के पीछे उस समय के राजनीति के जानकारों का मानना था कि मायावती पार्टी के अंदर किसी भी नेता को अपनी बराबरी में खड़ा नहीं देखना चाहती थीं, जबकि बसपा के अंदर बरैया का कद काफी ऊंचा हो गया था, जिससे मायावती के मन में यह आशंका घर कर गई थी कि भविष्य में बरैया कहीं उनके समकक्ष आकर खड़े न हो जाएं, इसलिए मायावती ने दस्तावेजों की चोरी के बहाने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। बस यहीं से बरैया की राजनीति की उल्टी गिनती शुरू हो गई।

दो बार बनाई नई पार्टी, ढाई साल भाजपा में भी बिताए

बसपा से निष्कासन के बाद बरैया ने 2003 में विधानसभा चुनाव से पहले समता समाज पार्टी बनाई और दतिया जिले की भाण्डेर विधानसभा सीट से चुनाव लड़े, जिसमें उन्हें पराजय हाथ लगी। 2004 में बरैया ने रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी में अपनी पार्टी का विलय कर दिया, जिसमें उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का दायित्व मिला, लेकिन 2008 में विधानसभा चुनाव से पहले श्री पासवान ने मध्यप्रदेश में अपनी पार्टी का संचालन बंद कर दिया। इसके बाद मार्च 2009 में बरैया भाजपा में शामिल हो गए, लेकिन भाजपा में उन्हें उतना महत्व नहीं मिला, जितना वे चाहते थे, इसलिए बरैया ने अक्टूबर 2011 में भाजपा को छोड़कर नई पार्टी बहुजन संघर्ष दल का गठन किया और 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने एक साथ गोहद व भाण्डेर से चुनाव लड़ा और वे दोनों ही सीटों से हार गए। भण्डेर से उन्हें 13389 और गोहद से 14633 मत मिले। इसके बाद 2018 के विधानसभा चुनाव में बरैया ग्वालियर ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े, जिसमें उन्हें एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ा। उन्हें मात्र 7698 मत मिले।

कांग्रेस में भी नहीं मिला किस्मत का साथ

पिछले 18 साल से दल-बदल करते हुए इधर से उधर भटकते रहे बरैया ने भिण्ड-दतिया संसदीय क्षेत्र से चुनाव लडऩे के इरादे से मार्च 2019 में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के माध्यम से कांग्रेस का हाथ थामा, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने आयातित उम्मीदवार देवाशीष जरारिया को पार्टी का टिकट थमा दिया। इसके बाद मार्च 2020 में कांग्रेस ने बरैया को राज्यसभा चुनाव में मध्यप्रदेश की रिक्त कुल तीन सीटों में एक सीट से उम्मीदवार बनाया, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया क्योंकि सिंधिया समर्थक 22 विधायकों की बगावत के बाद कमलनाथ सरकार गिर गई। साथ ही कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा बढ़ जाने से राज्यसभा के चुनाव भी स्थगित कर दिए गए।

गोहद या भाण्डेर से लडऩा चाहते हैं उपचुनाव

राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने दो सीटों से दिग्विजय सिंह और फूलसिंह बरैया को उम्मीदवार बनाया है, लेकिन बरैया प्रथम वरीयता के उम्मीदवार होंगे या दूसरी वरीयता के? अभी तक यह तय नहीं है। जहां तक संभावना है तो पार्टी दिग्विजय सिंह को प्रथम वरीयता देगी। ऐसे में वर्तमान में भाजपा व कांग्रेस के पास विधायकों का जो संख्या बल है, उसके अनुसार कांग्रेस के दोनों उम्मीदवारों का जीत पाना असंभव है, इसलिए बरैया निकट भविष्य में प्रदेश की 24 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अनुसूचित जाति वर्ग के लिए सुरक्षित गोहद और भाण्डेर विधानसभा में से किसी एक सीट से कांग्रेस से टिकट की आस लगाए बैठे हैं। इसके लिए उनको पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पर भरोसा है, लेकिन कमलनाथ सरकार गिर जाने के बाद सबसे ज्यादा किरकिरी दिग्विजय सिंह की ही हुई थी क्योंकि उन्हीं के कारनामों और करकमलों से कांग्रेस की सरकार गिरी थी। चूंकि मध्यप्रदेश से लेकर गुजरात तक तमाम नाटक नौटंकी करने के बाद भी दिग्विजय सिंह सरकार बचा नहीं पाए थे। अब प्रत्याशियों के चयन में उनकी कितनी चलेगी? कहना मुश्किल है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या पार्टी से बरैया को टिकट मिलेगा? यदि टिकट मिल भी गया तो क्या पार्टी उन्हें जिता पाएगी? इस पर भी संशय है क्योंकि बरैया हमेशा से ही सवर्ण विरोधी राजनीति करते आए हैं, इसलिए सवर्ण वर्ग उनको पसंद नहीं करता। ऐसा राजनीति के जानकारों का मानना है। स्थापित सत्य भी यही है कि सभी वर्गों के समर्थन के बिना किसी पार्टी के उम्मीदवार के लिए चुनाव जीत पाना संभव नहीं है।

जनता में विश्वास खो चुके हैं बरैया: कौशल

छात्र जीवन से लेकर बसपा की राजनीति तक फूलसिंह बरैया के साथी रहे बसपा के संभागीय कार्यालय प्रभारी बी.पी. कौशिक का कहना है कि कई लोग बसपा से निकाले गए तो कई लोग पार्टी छोड़कर चले गए, लेकिन कार्यकर्ता और मतदाता उनके साथ नहीं जाते हैं। बसपा का वोट अपनी जगह यथावत है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस भले ही बरैया को बड़ा नेता मानती हो, लेकिन वास्तविक सच्चाई यही है कि जनता में बरैया की अब पहले जैसी छवि नहीं रही। बरैया ने दो बार अपनी पार्टी बनाई। लोक जनशक्ति पार्टी और भाजपा में भी रहे। इस दौरान कई बार चुनाव भी लड़े और हर बार उनकी पराजय हुई। यह इस बात का प्रमाण है कि बार-बार दल बदलने से कार्यकर्ता और मतदाता दोनों ही बरैया से दूर हो गए हैं। 

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