ब्रज की उत्सव प्रिय संस्कृति के संबंध में एक उक्ति प्रचलित है, सात वार और नौ त्यौहार। कार्तिक माह के लगते ही ब्रज वनिताएं बड़े सवेरे ही तारों की छांव में कार्तिक माह के गीत गाते हुए यमुना स्नान के लिए यमुना के घाटों पर जाती हैं।
बंसी के बजैया रथ ठाड़ौ रखिओ।
दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा होती है। घर-घर में गोबर के गिरिराज जी बनाए जाते हैं कौड़ी सरकंडा खील बतासे चढ़ाए जाते हैं।
श्री गोवर्धन महाराज तेरे माथे मुकुट बिराज रह्यौ।
तीसरे दिन यमद्वितीया के पर्व पर भाई बहन एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर यमुनाजल में स्नान करते हैं। ऐसी मान्यता है कि कभी यमराज अपनी बहन सूर्यतनया यमुना से मिलने यमलोक से भूलोक पर पधारे।बहन यमुना ने यमराजजी की बड़ी आवभगत की जिससे प्रसन्न हो कर यमराजजी ने वरदान दिया कि आज के दिन जो भाई-बहन हाथ पकड़ कर यमुना जल में स्नान करेंगे उन्हें यमयातनांएं नहीं झेलनी पड़ेंगी। तब से आज भी यमद्वितीया के दिन भाई-बहन हाथ पकड़ कर यमुना में पारंपरिक रूप से स्नान कर पुण्य फल प्राप्त करते हैं।
ब्रज भूमि का कण-कण आज भी कृष्ण की लीलाओं की स्मृतियों से रचाबसा है। कभी श्रीकृष्ण गोधूलि बेला में गाये चरा कर वापस लौटते थे। कार्तिक माह की अष्टमी के रोज़ गोपाष्टमी का पर्व मनाया जाता है। बाजार में शोभायात्रा निकाली जाती है। हाथी पर सवार हो कर कृष्ण बलराम के स्वरूप बहुत ही मनमोहक प्रतीत होते हैं। गोप ग्वाल ढोल मंजीरे पर गाते बजाते हुए निकलते हैं।
फूलन के बाजूबंद फूलन की माला
गउअन चराये घर आए नंद लाला।
इसके बाद अक्षय नवमी के दिन ब्रज वासी मथुरा की परिक्रमा लगाते हैं आंवले व अन्य वस्तुओं का दान पुण्य करते हैं। अखय नवमी अखय दान। परिक्रमा मार्ग में पडऩे वाले देवालयों के श्रद्धा पूर्वक दर्शन करते हैं। परिक्रमा की ये परंपरा आज भी अक्षुण्य बनीं हुई है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म संस्थापनार्थाय: संभवामि युगे युगे।
ब्रज में कंस के अत्याचार पराकाष्ठा पार कर चुके थे।
कार्तिक मास की दशमी तिथि के रोज श्री कृष्ण ने क्रूर कंस का वध किया था। आज भी मथुरा के चतुर्वेदी बांधव मथुरा में कंसवध का मेला पारंपरिक रुप से मनाते हैं ।
मथुरा के कंसटीले पर विशाल कंस के पुतले को रखते हैं। हाथी पर सवार कृष्ण बलराम छड़ी से संकेत करते हैं इसके पश्चात चतुर्वेदी बंधु लट्टठों से कंस के पुतले को पीटते हैं और कंस के पुतले को ले कर मथुरा के बाजारों में गाते बजाते यमुना के विश्राम घाट पर कंस के पुतले को विसर्जित करते हैं। सुंदर पारंपरिक वस्त्र धारण किऐ चतुर्वेदी बांधव गाते हैं
कंसा मार मधुपुरी आए
कंसा के घर के घबराए
मार मार लठ्ठन धूर करि आए
छज्जू लाए खाट के पाए
बाई कंस की दाढ़ी लाए मूंछै लाए
हरे हरे गोबर अंगन लिपाए।
गज मुतियन के चौक पुराए
सब सखान मिलि मंगल गाए
जे आए ब्रज नारी जू।
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति चतुर्वेदी महिलाएं अति प्रसन्न होती हैं । मेले के मनमोहक पारंपरिक स्वरूप का आनंद लेने के लिऐ दूर-दूर से लोग मथुरा आते हैं।
देव उत्थान एकादशी का पर्व एकादशी के दिन ब्रज में बड़े पारंपरिक रूप से मनाया जाता है।
घर घर गन्ने के मंडप में तुलसी दामोदर का विवाह किया जाता है।
तुलसा महारानी नमो नमो
हरि की पटरानी नमो नमो।
ब्रज में तुलसी उपासना की परंपरा महत्वपूर्ण है ।
तुलसा माता
तू सुखदाता ,
तू कृष्ण की प्यारी
मैं बिरवा सीचौं तेरौ
तू कर निस्तारौ मेरौ
आज के दिन ही सोये हुएं देव जाग जाते हैं विवाह प्रारंभ हो जाते हैं ।
ब्रज वनों की भूमि है। एकादशी के रोज ब्रज में तीन वन की परिक्रमा लगाई जाती है। मथुरा, गरुण गोविंद और वृन्दावन। श्रद्धालु बड़े सवेरे ये परिक्रमा एकादशी का वृत रखते हुए श्रद्धा पूर्वक ये परिक्रमा लगाते हैं।
इस तरह पूर्णिमा तक कार्तिक माह के पर्व उत्सव पूरे आनंद के साथ मनाएं जाते हैं।
(लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त कार्यक्रम अधिकारी हैं)