गठबंधन के प्रयासों में पड़ती दरार
वास्तव में आज जो राजनीतिक दल विपक्ष में हैं, वे कभी सत्ता में रहा करते थे या सत्ता के साथ रहते थे। वे चाहते तो महंगाई पर लगाम लगाने का प्रयास कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। आज वे नेरन्द्र मोदी की सरकार पर उन सभी समस्याओं का आरोप लगा रहे हैं, जो देश में सत्तर साल के शासन की देन हैं।
एक कहावत है सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम लट्ठा। यह कहावत वर्तमान में विपक्षी दलों द्वारा संभावित गठबंधन की दशा और दिशा पर पूरी तरह से चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। देश में सत्ता प्राप्त करने के लिए विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा जिस प्रकार छटपटाहट में गठबंधन बनाने का प्रयास किया जा रहा है, उसी प्रकार से विपक्षी क्षेत्रीय दलों द्वारा गठबंधन के प्रयास में दरार डालने का काम भी किया जा रहा है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की यह तड़प भरी राजनीति देश में कौन सा वातावरण बनाने का काम कर रही है। क्या यह वातावरण राष्ट्रीय हित की कसौटी पर खरा उतर सकता है।
वर्तमान में देश में जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, उसे देखकर ऐसा ही लगता है कि यह समस्याएं पिछले चार साल में ही पैदा हुर्इं हैं। क्योंकि विपक्षी राजनीतिक दल जिन समस्याओं को आधार बनाकर अपनी राजनीति कर रहे हैं, वे समस्याएं उनके शासन काल ही देन हैं। महंगाई का मुद्दा हो या फिर बेरोजगारी का, इसे दूर करने के लिए सरकारों ने पूरे मन से कोई प्रयास नहीं किया। वास्तव में आज जो राजनीतिक दल विपक्ष में हैं, वे कभी सत्ता में रहा करते थे या सत्ता के साथ रहते थे। वे चाहते तो महंगाई पर लगाम लगाने का प्रयास कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। आज वे नेरन्द्र मोदी की सरकार पर उन सभी समस्याओं का आरोप लगा रहे हैं, जो देश में सत्तर साल के शासन की देन हैं। इन सभी मुद्दों पर देश के क्षेत्रीय राजनीतिक दल हालांकि एक मत नहीं हैं। कोई कांगे्रस के साथ जाना चाहता है तो कोई कांगे्रस से दूरी बनाकर चल रहा है। कर्नाटक में जनतादल सेक्युलर के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने कांगे्रस को साफ संकेत कर दिया है कि उनका गठबंधन मात्र सरकार को अच्छी तरह से चलान के लिए ही है। चुनाव के लिए नहीं, इसलिए कर्नाटक में स्थानीय निकाय के चुनावों में जनतादल सेक्युलर अलग होकर चुनाव लड़ने का मन बना चुकी है। इसी कारण यह कहा जा सकता है कि विरोधी दल सत्ता प्राप्त करने के लिए भले ही एक हो जाएं, लेकिन उनमें एकता हो सकेगी, इसकी संभावना कम ही है।
उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने खुलेआम रुप से अन्य विरोधी दलों को चेतावनी भरे शब्दों में कह दिया है कि उसे सीट बंटवारे में सम्मानजनक भागीदारी नहीं मिली तो वह अकेले ही चुनाव लड़ सकती है। मायावती के कथन का आशय यह भी है कि वह विपक्षी दल सपा और कांग्रेस पर दबाव बनाने की राजनीति कर रही हैं। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी गठबंधन के नेता के बारे में बेरागी सुर का आलाप गाया है। इनका कहना है कि गठबंधन की ओर से नेता का नाम तय नहीं किया जाना चाहिए। यानी जो गठबंधन बनेगा वह किसी एक राजनीतिक दल के नियंत्रण में न होकर ही चुनाव लड़ेगा। ऐसी हालत में विपक्षी दलों के गठबंधन में हर कोई अपने दल का नेता ही होगा। बिना नेतृत्व के गठबंधन की दशा क्या होगी, यह भली भांति समझ में आ सकता है। साफ शब्दों में कहा जाए तो अभी विरोधी दलों द्वारा जो गठबंधन की कवायद की जा रही है, वह मात्र हवाहवाई के अलावा कुछ नहीं है। गठबंधन को आकार लेने में अभी ऐड़ी चोटी का जोर लगाना होगा। लेकिन जिस प्रकार के हालात दिखाई दे रहे हैं, उससे फिलहाल तो ऐसा कतई नहीं लगता कि गठबंधन बनने का रास्ता आसान है। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस ने जिस प्रकार से अपनी ओर प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी का नाम तय कर दिया है, उसे अन्य राजनीतिक दल स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। यानी कोई भी राजनीतिक दल राहुल गांधी को नेता मानने की स्थिति में नहीं है। बाद में हालांकि कांग्रेस की ओर से यह भी सफाई दी गई कि विपक्षी दल की ओर से कोई भी नेता प्रधानमंत्री बन सकता है। इस प्रकार की सफाई देकर कांग्रेस ने यह संकेत कर दिया है कि वह क्षेत्रीय दलों के दबाव में है। इसी दबाव के कारण ही कांग्रेस की ओर से ऐसी सफाई दी जा रही है। क्योंकि राहुल के नाम पर विपक्ष एक मंच पर नहीं आ सकता, इसे कांग्रेस भी जानती है और क्षेत्रीय दल भी जानते हैं। वैसे भी यह गठबंधन केवल किसी को कुर्सी से उतारने के लिए ही किया जा रहा है, कुछ अच्छा करने के लिए कदापि नहीं। मात्र भाजपा की सरकार को केन्द्र की सत्ता से हटाने के लिए देश के विपक्षी दल इतने उतावले क्यों हो रहे हैं। इस सवाल का उत्तर तलाश किया जाए तो संभवत: यही दिखाई देगा कि केन्द्र सरकार ने कई कार्य ऐसे किए हैं, जिनके लिए विपक्षी दल कभी सोच भी नहीं सकते। नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक और अभी हाल ही में असम में किया गया एनआरसी वाला मामला ऐसा ही था, जिसमें विपक्षी दलों को न तो निगलते बन रहा था और न ही उगलते। वास्तव में यह सभी कदम देश हित और महिलाओं के सम्मान में ही उठाए गए थे। इनमें से कई कदम तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर ही उठाए गए हैं। इसलिए इनका विरोध करना एक प्रकार से न्यायालय का अपमान ही है। ऐसे विरोध से यह भी पता चल जाता है कि देश के विपक्षी दल किस दिशा की ओर जा रहे हैं। भले ही अभी इन विरोधी दलों का गठबंधन नहीं बन पाया हो, लेकिन इनकी मानसिकता का तो पता चल ही गया है। कहीं विरोधी दलों का यह गठबंधन अराष्ट्रीयता की ओर तो नहीं जा रहा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)