जम्मू कश्मीर में लम्बे समय से सरकार बनाए जाने की संभावनाओं पर पूरी तरह से विराम लगने के बाद जैसे ही राज्यपाल ने विधानसभा भंग करने की घोषणा की, अब राजनीतिक सक्रियता तेज होती दिखाई दे रही है। कल तक एक दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाने वाली पार्टियां कांग्रेस, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस गलबहियां करने की ओर प्रवृत हो रही हैं। इसे येनकेन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने का प्रयास माना जाए तो यकीनन ठीक ही होगा। वैसे विधानसभा भंग करने के इस कदम को कई राजनीतिक विद्वान एक सोची समझी राजनीति के रूप में भी देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि जम्मू कश्मीर में देश विरोध की हवा को समर्थन देने के पीछे धारा 370 का योगदान है और भाजपा सदैव से इस धारा का विरोध ही करती आई है। विधानसभा भंग करने के इस कदम को जम्मू कश्मीर को राष्ट्रीय धारा में लाने का अभूतपूर्व प्रयास भी कहा जाने लगा है। उम्मीद की जाती है कि राज्यपाल शासन के बाद अब राष्ट्रपति शासन के दौरान इस दिशा में माहौल बनाया जा सके।
जम्मू-कश्मीर के लिए धारा 370 के चलते ही कोई भी बड़ा कार्य बिना जम्मू कश्मीर सरकार के सहमति के नहीं किया जा सकता। दूसरी सबसे बड़ी बात यह भी है कि जबसे इस प्रदेश में राज्यपाल शासन लगा, तब से आतंकी घटनाओं में बहुत कमी आई है। यह पाकिस्तान और उसकी शह पर काम करने वाले आतंकियों के लिए गहरा झटका है। राज्यपाल द्वारा उठाए गए इस कदम को जम्मू कश्मीर की भलाई के लिए सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है।
जहां तक निर्वाचित सरकार बनाने की बात है, तो इसमें सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अगर इन अवसरवादी दलों को सरकार बनाना ही था तो इसके लिए राज्यपाल शासन की समय सीमा समाप्त होने का इंतजार क्यों किया गया। इसके पीछे का तर्क यही है कि इन राजनीतिक दलों की अंदरूनी तौर पर अपनी-अपनी शर्तें थीं। इन्हीं शर्तों के चलते इनका गठबंधन नहीं हो पा रहा था। जैसे ही इन दलों को यह लगने लगा कि अब प्रदेश हाथ से जा रहा है, तो बेमेल गठबंधन की राह पर चल पड़े। यह सच है कि जम्मू कश्मीर में किसी भी दल के पास पूर्ण बहुमत वाली संख्या का अभाव था। गठबंधन की मंशा वाले यह तीनों ही दल विधानसभा चुनाव में एक दूसरे को पटखनी देने का राजनीतिक खेल भी खेल रहे थे। ऐसे में इन दलों का गठबंधन आसानी से हो जाता, इस बात की संभावना भी न के बराबर ही थी। कहा तो यह भी जा रहा है कि पीडीपी की मुखिया महबूबा मुफ्ती के गठबंधन वाले निर्णय से उनकी अपनी ही पार्टी में दरार पड़ गई। पीडीपी के कद्दावर विधायक इमरान अंसारी अपनी ही पार्टी की मुखिया के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे थे। उन्होंने तो यहां तक दावा कर दिया कि उनको पीडीपी के 18 विधायकों का समर्थन प्राप्त है। इमरान अंसारी ने भी भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा किया। विधानसभा भंग होने से पहले की राजनीतिक तस्वीर के मुताबिक पीडीपी के पास सबसे ज्यादा विधायक थे। सरकार बनाने के लिए केवल 44 विधायकों की आवश्यकता थी। अगर भाजपा के विधायकों के साथ अंसारी के सरकार बनाने की संभावनाएं बनतीं तो स्वाभाविक है कि 19 विधायकों की और आवश्यकता होती। इमरान अंसारी 18 विधायकों के समर्थन का दावा कर ही रहे थे। अगर यह दावा सच था तो सरकार बनाने के लिए उन्हें मात्र एक विधायक की जरूरत होती। ऐसे में इमरान अंसारी के सरकार बनाने के दावे में दम दिखाई दिया।
जम्मू कश्मीर में अवसरवाद की राजनीति का समर्थन करने में विधायक भी नये गठबंधन का साथ दे सकते हैं। फिर सवाल तो वही है कि इन सभी को करीब छह महीने के राज्यपाल शासन के अंत में ही सरकार बनाने की याद क्यों आई। राज्यपाल का स्पष्ट कहना है कि उनके पास समय सीमा तक कोई भी पार्टी सरकार बनाने के लिए आगे नहीं आई। ऐसे में राज्यपाल को तो अपना कर्तव्य पूरा करना ही था। उनका यह कर्तव्य पूरी तरह से संवैधानिक और जरूरी भी था। जम्मू कश्मीर में राज्यपाल शासन लगने के बाद बहुत सी समस्याओं का समाधान हुआ है। हम यह तो नहीं कह सकते कि किसी राज्य में चुनी हुई सरकार का लंबे समय तक नहीं होना अच्छी बात है। फिर भी निहित स्वार्थों के लिए बनी सरकार राज्य की समस्याएं हर कर दे, यह भी जरूरी नहीं।
जम्मू कश्मीर में जब भाजपा और पीडीपी सरकार का अंत हुआ, उसके तत्काल बाद से ही पीडीपी, कांग्रेस और नेकां की ओर से यही मांग की जाती रही थी कि राज्य विधानसभा को भंग किया जाए। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि राज्यपाल ने इन दलों की मंशा अनुसार ही कार्य किया है। इस कदम से निश्चित रूप से इन खेमों में अंदरूनी तौर पर बहुत ही खुशी होगी। साफ बात है कि राजनीतिक कारणों से राज्यपाल के कदम का विरोध किया जा रहा है।
राजनीतिक जगत में बोम्मई मामले पर आए एक फैसले के आधार पर एक काल्पनिक स्थिति यह भी दिखती है कि राज्यपाल के निर्णय को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाए। ऐसी संभावनाएं लग भी रही हैं। अगर ऐसा होता है तो भी इस बात की उम्मीद बहुत ही कम है कि सरकार बन जाए। कारण साफ है कि गठबंधन की तैयारी कर रहे तीनों दलों की अंदरूनी राजनीति जिस प्रकार का वातावरण दिखा रही हैं, उससे तो सरकार बनाने लायक संख्या भी नहीं दिख रही। लगता है कि किसी काल्पनिक स्थिति में भी गठबंधन सरकार बनाने की कवायद निरर्थक ही प्रमाणित होगी।