साहित्य एवं कला क्षेत्र और वामपंथ: भारतीयता से नफरत ही जिनका एजेंडा...

Update: 2025-03-16 11:13 GMT

सोनाली मिश्रा: होली का पर्व इस सप्ताह बीत गया। होली ऐसा पर्व है जिसका इतिहास आज का नहीं बल्कि युगों-युगों का है। यह तमाम कारणों से मनाया जाता है, तथा इसके मूल में जो कथा है वह भक्त प्रह्लाद की भक्ति की है कि कैसे उसकी भक्ति के कारण उन्हें उनके पिता एवं बुआ के कोप का भाजन बनना पड़ा था।

इस कथा से यह सीख मिलती है कि बुराई का अंत बुरा ही होता है, परंतु कुछ वर्षों से इस पर्व की इस अद्भुत कथा को भी विभाजनकारी विमर्श में बाँट दिया गया। जहां यह पर्व बताता है कि अपराध और दंड लिंग निरपेक्ष होते हैं, तो वहीं एक वर्ग ऐसा हुआ जिसने होलिका को मात्र एक महिला तक सीमित कर दिया। एवं उसे महिला मानते हुए तमाम कविताएं लिखी गईं, विमर्श गढ़ दिया गया कि यह एक महिला विरोधी पर्व है।

क्या यह वास्तव में वामपंथ है?

प्रश्न उठता है कि ये वामपंथ क्या है? वामपंथ एक राजनीतिक विचारधारा है जो सामाजिक बराबरी की बात करती है। हालांकि इसे वामपंथ कहना गलत होगा, क्योंकि लेफ्ट विंग अर्थात वामपंथ शब्द का आरंभ फ्रांस की नेशनल असेंबली से हुआ था और उसमें राजशाही का विरोध करने वाले बाईं ओर बैठे तो राजशाही का विरोध करने वालों को लेफ्ट विंग और राजशाही का समर्थन करने वालों को राइट विंग कहा गया, क्योंकि वे दाईं ओर बैठे थे।

भारत में न ही राजशाही है और न ही कोई वाम और दक्षिण पंथ। कथित वामपंथ के नाम पर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विरासत का विरोध पूरी तरह से राजनीतिक विरोध है, इसलिए इसे कम्युनिस्ट हस्तक्षेप ही कहा जाना चाहिए। क्योंकि यदि यह राजशाही का विरोध करने वाला वर्ग होता तो यह भारत की आत्मा पर प्रहार करने वाले और भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को रौंदने वाले आतताइयों का विरोध करने वाला आंदोलन होता, परंतु ऐसा नहीं है। इसे कथित राजशाही से घृणा तो है, परंतु उस राजशाही से, जिसमें न्याय के पर्याय स्वयं प्रभु श्रीराम राजा है, न कि उस मुगल दरबार से जिसके क्रूर शासकों ने अयोध्या, मथुरा और काशी की सांस्कृतिक अस्मिता का ध्वंस करने का पाप किया।

साहित्य में कम्युनिस्ट हस्तक्षेप की जड़?

कम्युनिस्ट एक राजनीतिक विचारधारा है और इसने अपना माध्यम साहित्य को बनाया है। इस राजनीतिक विचारधारा की आड़ में हर देश की मूल संस्कृतियों को नष्ट करने का प्रयास किया गया।यह राजनीति में जितनी हानिकारक है, साहित्य में उससे और भी अधिक। परंतु एक प्रश्न जो उससे भी अधिक रह-रह कर उभरता है कि इस विचारधारा का साहित्य में प्रवेश कब और कैसे हुआ। साहित्य तो राजनीति से परे होता है, साहित्य तो सत्य की बात कहता है। साहित्य भूत, वर्तमान और भविष्य को कहता है। फिर ऐसा क्या हुआ कि वह एक विशिष्ट विध्वंसक राजनीतिक विचारधारा का वाहक बन गया?

1935 और लंदन में प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना 

यह वह समय था जब कम्युनिस्ट विचारधारा उभार पर थी और भारत से अंग्रेजों की विदाई होनी भी लगभग तय ही मानी जा रही थी। भारत में लगातार ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वर उठ रहे थे और भारत में भी राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण रचनाएं रची जा रही थीं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, सुभद्रा कुमारी चौहान सहित अनेकोनेक स्वर थे जो इस चेतना को आकार दे रहे थे।

ये सभी भारतीय चेतना के नायकों के साथ सांस्कृतिक गौरव को जनमानस में भर रहे थे। मगर वर्ष 1935 में लंदन में मुल्क राज आनन्द, सज्जाद जहीर और अहमद अली सहित कुछ अंग्रेजों ने प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना की। और उसके घोषणापत्र में उन्होनें जो लिखा, उसे पढ़ना महत्वपूर्ण है, क्योंकि होलिका सहित हर हिन्दू पर्व पर जो विभाजनकारी विमर्श हमारे मध्य घोला जा रहा है, उसकी जड़ वही घोषणापत्र है।

इस घोषणापत्र में लिखा गया कि

““भारतीय समाज में बहुत ही तेजी से कट्टरवादी बदलाव हो रहे हैं। हमारा मानना है कि भारत के नए साहित्य को हमारी आज की मूल समस्याओं के विषय में बात करनी है, और जो हैं भूख और गरीबी, सामाजिक पिछड़ापन, और राजनीतिक दमन। वह सब जो हमें नकारात्मकता, अकर्मण्यता और तर्कहीनता की ओर लेकर जाता है, उसे हम प्रतिक्रियावादी के रूप में अस्वीकार करते हैं। वह सब जो हमारे अंदर आलोचनात्मक भावना पैदा करता है, जो तर्क के प्रकाश में संस्थानों और रीति-रिवाजों की जांच करता है, जो हमें कार्य करने, खुद को संगठित करने, बदलने में मदद करता है, हम प्रगतिशील के रूप में स्वीकार करते हैं।“

भारतीय इतिहास को नकारना ही प्रगतिशीलता 

प्रगतिशील लेखक संघ की पहचान रही कि अतीत को कट्टरपंथ कहने वाले सज्जाद जहीर ने “सोमनाथ” का इतिहास लिखने वाले कन्हैया लाल मुंशी को “प्रगतिशील” मानने से इनकार कर दिया, मगर

“सब बुत गिरवाए जाएंगे, बस नाम रहेगा अल्लाह का” का बिम्ब गढ़ने वाले फ़ैज़ प्रगतिशील बने रहे।

वहीं सज्जाद जहीर भी इतने प्रगतिशील थे कि उन्होनें विभाजन के बाद पाकिस्तान जाना चुना था, मगर जल्दी ही वहाँ का सपना टूटा और रजिया सज्जाद जहीर सहित वे भारत वापस आ गए।

यह भी बहुत हैरानी की बात है कि इस कथित प्रगतिशील लेखक संघ में इस्मत चुगताई भी थीं। ये वही इस्मत चुगताई हैं, जिनका वह प्रसंग बहुत प्रसिद्ध है कि वे अपनी शाकाहारी हिन्दू सहेली को छिपाकर मांस खिलाया करती थीं।

अल्लामा इकबाल भी प्रगतिशील ही थे

अल्लामा इकबाल को कौन नहीं जानता है। पाकिस्तान का विचार देने में सबसे अग्रणी और जिन्हें पाकिस्तान के लोग अपना आदर्श मानते हैं, वे अल्लामा इकबाल भी इस प्रगतिशील संघ के सदस्य थे। अल्लामा इकबाल की शिकवा नज़्म सभी को पढ़नी चाहिए, जिसमें वे पूरी दुनिया में मुसलमानों की बुरी हालत को देखकर अल्लाह से शिकवा करते हैं कि

“इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी

इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी

पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने

बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने”

प्रगतिशील अल्लामा इकबाल को यह दुख है कि काफिरों को सब कुछ मिल रहा है और ईमान वालों को केवल हूरों का वादा?

क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर

और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर”

जिस प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना भारत मे कट्टरवाद से लड़ने के लिए हुई थी, वह किस कट्टरवाद से लड़ रहा था? जाहिर है कि उसके लेखकों का निशाना केवल और केवल वे ही लेखक थे, जो लेखन में भारतीय पहचान को लेकर लिख रहे थे, फिर चाहे वे जयशंकर प्रसाद हों या फिर कन्हैया लाल मुंशी!

कम्युनिस्ट साहित्य के स्वर और महीन विभाजन रेखा 

यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत में साहित्य के नाम पर जो कथित प्रगतिशीलता प्रचलित है, उसमें हिन्दू द्वेष ही मुख्य आधार है। हालांकि भारत में मुंशी प्रेमचंद इसके पहले अध्यक्ष थे और उन्होनें यह स्पष्ट किया था कि “‘प्रगतिशील लेखक संघ’, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता।“

परंतु उनकी इस बात को अनदेखा किया गया और इस प्रगतिशीलता को जवाहर लाल नेहरू का भी समर्थन प्राप्त था। वर्ष 1938 के इलाहाबाद अधिवेशन में वे इसमें सम्मिलित हुए थे और उन्होनें वहाँ पर भाषण भी दिया था। इस आंदोलन में जवाहर लाल नेहरू के जुडने का यह परिणाम हुआ कि जो लोग इस आंदोलन से कतराते थे, परंतु जवाहर लाल नेहरू का आदर करते थे, वे भी इस आंदोलन के प्रति नरम पड़ गए। इस आंदोलन में पड़ित जवाहर लाल नेहरू ने साहित्य को समाजवादी ढांचे तक सीमित कर दिया था।

आज जो भी हम साहित्यिक विमर्श देखते या सुनते हैं जो भारतीय पहचान का विरोध करता है, भारतीय पर्वों की कथाओं का विरोध करता है और भारत के विमर्श का विरोध करता है, तो यह बार-बार समझने की आवश्यकता है कि इसकी जड़ें कहाँ पर हैं?

जब साहित्य में भारतीय पहचान वाले इतिहास को कट्टरवाद बताकर ही आगे बढ़ा गया, तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि कथित प्रगतिशीलता इस सीमा तक विभाजक है कि वह “जय श्रीराम” के उद्घोष को हिंसक ठहरा सकती है, जो उस राम मंदिर को घृणा का प्रतीक बता सकती है, जिसके लिए एक पूरी सभ्यता ने सैकड़ों वर्षों तक पीढ़ियों का संघर्ष किया है।

जो पौधा वर्ष 1935 में साहित्य में एकतरफा कट्टरता स्थापित करने के लिए लगाया गया था, वह अब बढ़कर इतना विस्तारित हो गया है, कि जब हिन्दू पर्व आते हैं, तो उनके प्रति घृणा का विमर्श अपने आप ही बन जाता है। जो वर्ग कथित समानता की बातें साहित्य में करता है, वह हिन्दू पर्वों पर यह कुतर्क देने लगता है कि “वह तो मजहब विशेष का इलाका है, वहाँ पर शोभायात्रा क्यों निकालनी है?”

जिस कथित प्रगतिशीलता के संघ में वे तमाम लोग थे, जो पाकिस्तान के समर्थक थे, जिन्होनें हिंदुओं के साथ ही रहने से इनकार कर दिया और नया मुल्क बनाया, और जो यहाँ रह भी गए, वे भी एकतरफा विमर्श चलाते रहे, आज उसी गढ़ी गई छद्म प्रगतिशीलता का वृक्ष इस सीमा तक बढ़ गया है कि द्रौपदी को कभी कृष्ण तो कभी कर्ण की प्रेयसी बता दिया जाता है, प्रभु श्रीराम की जलसमाधि को आत्महत्या लिख दिया जाता है तो वहीं योगीराज कृष्ण को मात्र छिछोरा प्रेमी बताया जाता है और इसका विरोध करने वालों को कट्टरवादी और प्रतिक्रियावादी कह दिया जाता है।

वहीं सैय्यदों का गुणगान करने वाली प्रगतिशील रजिया सज्जाद जहीर अपनी नमक कहानी में लिखती हैं कि “हम अपने को सैय्यद कहते हैं, फिर वायदा करके झुठलाने के क्या मायने? जान देकर भी वायदा पूरा करना होगा!”

भारतीय पहचान से घृणा करने वाले अल्लामा इकबाल की केवल इन दो पंक्तियों से समझा जा सकता है कि कथित प्रगतिशीलता क्यों केवल हिंदुओं या कहें हिन्दू पहचान वाले भारत से घृणा करने का एक नाम है और क्यों हिंदुओं की हर परंपरा, हर नायक और हर नायिका को विकृत करने का अपराधबोध भी इन लेखकों को नहीं होता है।

कथित प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़े हुए लेखक दरअसल उस भारतीय पहचान से घृणा करने वाला वर्ग है, जिसकी जड़ें हिन्दू धर्म ग्रंथों में हैं, तभी वह मकबूल फिदा हुसैन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ तो खड़ा होता है, जिसने हमेशा हिन्दू देवी-देवताओं को नंगा चित्रित किया है, परंतु वे बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरींन के साथ खड़े नहीं होते, जो इस्लामी कट्टरता के खिलाफ इस सीमा तक खड़ी हैं कि वे न ही अपने देश जा सकती हैं और न ही पश्चिम बंगाल तक!

चूंकि तस्लीमा अपनी भारतीय जड़ों से जुड़ी हैं इसलिए उनके साथ खड़ा होना कथित प्रगतिशील समाज स्वीकार नहीं करता है, परंतु मकबूल फिदा हुसैन पर फिदा है।

उलटबांसी का विमर्श

रावण ब्राह्मण है तो उसकी बहन शूपर्णखा भी ब्राह्मण हुई लेकिन प्रगतिशील जमात ब्राह्मण रावण के कुल को दलित साबित करना चाहती है।ताड़का एक राजकन्या थी लेकिन वह दलित बनाई जा रही है।हिरण्यकश्यप दलित है उसका पुत्र ब्राह्मण?महिला विमर्श हमारी लोकपरम्परा को लांछित करने तक सीमित है लेकिन इस्लाम और ईसाइयत में महिलाओं की दुर्दशा पर कभी कोई विमर्श प्रगतिशील जमात नही उठाती है।एक तरफ भारतीय परंपरा औऱ इतिहास को यह भीड़ माइथोलोजी साबित करती है दूसरी तरफ इन्ही प्रसंग और पात्रों की गलत व्याख्या कर समाज में भेद बढ़ाती है।इनकी बौद्धिकता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि राम मंदिर विवाद की सुनवाई में मुस्लिम पक्ष की ओर से खड़े इतिहासकारो ने लिखित में स्वीकार किया था कि उन्हें न संस्कृत आती है न फ़ारसी इसके बाबजूद वे राम के अस्तित्व पर सवाल उठा रहे थे।राम मंदिर से जुड़े सभी ऐतिहासिक तथ्य इन्ही दो भाषाओं में थे। 

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