लखनऊ: क्रीमीलेयर आरक्षण का कूटरचित लाभ लेने वाले लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रो. बिमल जायसवाल की संकट में नियुक्ति

लखनऊ: क्रीमीलेयर आरक्षण का कूटरचित लाभ लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रो. बिमल जायसवाल की नियुक्ति के मामले में 4 मार्च को हाईकोर्ट डबल बेंच ने निर्णय सुरक्षित रख लिया था।;

Update: 2025-03-10 17:07 GMT

लखनऊ: क्रीमीलेयर आरक्षण का कूटरचित लाभ लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रो. बिमल जायसवाल की नियुक्ति के मामले में 4 मार्च को हाईकोर्ट डबल बेंच ने निर्णय सुरक्षित रख लिया था। न्यायपीठ ने सोमवार को दिए निर्णय में प्रो. जायसवाल की नियुक्ति और उसे चुनौती देने वाली शिकायत पर गठित जांच समिति पर गंभीर सवाल उठा दिया। न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी और अत्ताउ रहमान मसूदी की खंडपीठ ने कहा, विश्वविद्यालय कुलपति जांच समिति के अध्यक्ष/सदस्य नहीं हो सकते हैं। हाईकोर्ट की इस टिप्पणी के बाद अकूत सम्पदा के मालिक प्रो. जायसवाल की नियुक्ति खतरे में आ गई है।

डबल बेंच ने अपर महाधिवक्ता कुलदीप पति त्रिपाठी, अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता निशांत शुक्ला, वरिष्ठ अधिवक्ता संदीप दीक्षित, निलय गुप्ता और लखनऊ विश्वविद्यालय के अधिवक्ता अनुराग कुमार सिंह की दलीलों को सुना। विशेष सचिव (उच्च शिक्षा) ने हाईकोर्ट की एकल पीठ के 27 जनवरी को पारित निर्णय तथा आदेश की वैधता को चुनौती दी थी।

विशेष अपील में प्रो. बिमल जायसवाल ने राज्य सरकार के आदेश की वैधता को चुनौती दी थी, जिसके तहत राज्य सरकार ने एक समिति का गठन किया है।

न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी और अत्ताउ रहमान मसूदी की खंडपीठ ने कहा, इस न्यायालय की एकल पीठ के दृष्टिकोण से सहमत हैं। जिसमें, यह दृष्टिकोण शामिल है, राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 8(1) में परिकल्पित जांच विश्वविद्यालय के कामकाज से जुड़े व्यक्ति के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की जानी है। राज्य सरकार ने लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति की अध्यक्षता में जांच समिति नियुक्त की है। राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा (31) में प्रावधान है, विश्वविद्यालय के शिक्षकों की नियुक्ति विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद करेगी। 

खंडपीठ ने कहा, राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 30(2) के अनुसार कुलपति कार्यकारी परिषद के अध्यक्ष होते हैं। इन परिस्थितियों में कुलपति को जांच समिति का अध्यक्ष या सदस्य भी नहीं बनाया जाना चाहिए था। इसलिए, राज्य सरकार को प्रो. बिमल जायसवाल के खिलाफ लगाए आरोपों की जांच का अधिकार है। जांच समिति का गठन (जहां तक ​​इसकी अध्यक्षता लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा की जाती है) सही नहीं है। राज्य सरकार को एक नई समिति का गठन करना चाहिए, जिसमें निर्धारित कानून के अनुसार लखनऊ विश्वविद्यालय के कामकाज से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सदस्य नहीं होगा। राज्य सरकार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा (8) में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करेगी।

एएजी के उद्धृत अन्य दो निर्णय, उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नीरज अवस्थी और अन्य तथा निशीथ राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य को खारिज करते डबल बेंच ने कहा, राज्य विश्वविद्यालयों के प्रावधानों या उसके समान किसी अन्य वैधानिक प्रावधान से निपटते नहीं हैं, इसलिए, वे निर्णय वर्तमान अपील के निर्णय के लिए प्रासंगिक नहीं हैं। बेंच ने प्रो. जायसवाल द्वारा उद्धृत राकेश रंजन वर्मा बनाम बिहार राज्य और रेखा यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामलों में कहा, ये निर्णय भी राज्य विश्वविद्यालयों के प्रावधानों या उसके समान किसी अन्य वैधानिक प्रावधान से निपटते नहीं हैं। इसलिए वे निर्णय भी वर्तमान अपील के निर्णय के लिए प्रासंगिक नहीं हैं।

डबल बेंच ने कहा, 10 मई 2022 को पारित निर्णय और आदेश को इस सीमा तक रद्द किया जाता है कि राज्य सरकार के पास प्रो. जायसवाल के खिलाफ लगाए आरोपों की जांच कराने का कोई अधिकार नहीं है। जांच समिति गठित करने का 8 जनवरी का कार्यालय ज्ञापन इस कारण से निरस्त किया जाता है कि विश्वविद्यालय के कुलपति जांच समिति के अध्यक्ष/सदस्य नहीं हो सकते। राज्य सरकार को विश्वविद्यालय के कामकाज में शामिल न होने वाले व्यक्तियों को शामिल करते हुए एक नई जांच समिति गठित करने तथा राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा (8) में निहित प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए नए सिरे से कार्यवाही की स्वतंत्रता होगी।

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