सामाजिक न्याय के नैतिक प्रश्न और अम्बेडकर

डॉ राघवेंद्र शर्मा

Update: 2022-04-13 14:07 GMT

वेबडेस्क। आज जब भारतीय जनता पार्टी डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती के उपलक्ष्य में सामाजिक न्याय पखवाड़े मना रही है, तब मन में यह विचार आता है कि सामाजिक न्याय के मामले में भारतीय जनमानस की अवधारणा क्या है। इस विषय पर यदि गहरी दृष्टि डाली जाए तो हम तय कर पाएंगे कि भारत को अथवा भारत सरकार को या फिर यहां के जनमानस को सामाजिक न्याय पखवाड़ा मनाने का नैतिक अधिकार है भी या नहीं। इसकी वास्तविकता जानने के लिए हमें डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और उनके अभिन्न मित्र रहे जोगेंद्र नाथ मंडल के जीवन प्रसंग से जुड़े पहलुओं को बारीकी से देखना होगा। बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और जोगेंद्र नाथ मंडल के बीच विचारों का सामंजस्य काफी गहरे तक स्थापित था।

लेखक - डॉ राघवेंद्र शर्मा 

उदाहरण के लिए - यह दोनों नेता ऐसा मानते रहे कि दलितों का भला तभी हो सकता है जबकि अंग्रेजों और कांग्रेस को इनके मामलों में दखलअंदाजी करने से वर्जित कर दिया जाए। शायद यही वजह रही कि वर्ष 1940 में अनुसूचित जाति संघ की स्थापना अविभाजित बंगाल में हुई, तब उसके संस्थापक अंबेडकर और मंडल ही बने। इस घटना के बाद से इन दोनों नेताओं के जीवन प्रसंगों में इतने नाटकीय मोड़ आए, जिन से यह साबित हो गया कि सामाजिक न्याय के मामले में भारतीय जनमानस बेहद स्पष्ट और सकारात्मक सोच रखता है।

जब देश का विभाजन हुआ तब जोगेंद्र नाथ मंडल को लगा कि कांग्रेस शासित भारत में दलितों का शायद ही भला हो पाए। इसी सोच के चलते उन्होंने दलितों को इस्लाम आधारित पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा किया और उन्हें भारी लाव लश्कर के साथ उस ओर ले जाने में सफल रहे। यहां तक कि उन्हीं की कार्यप्रणाली के चलते बंगाल क्षेत्र का बहुत बड़ा भूभाग हिंदू बाहुल्य होते हुए भी दलितों के साथ पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। चूंकि जोगेंद्र नाथ मंडल मुस्लिम लीग के संस्थापक और पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना के काफी करीबी थे। इसलिए वे पाकिस्तान सरकार में मंत्री बनाए गए और वहां के कानून मंत्री भी बने। यही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान के संविधान रचना में भी निर्णायक भूमिका निभाई। लेकिन जल्दी ही उन्हें यह एहसास हो गया कि पाकिस्तान में तो सामाजिक न्याय की अवधारणा सिरे से ही गायब बनी हुई है। वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं से दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाना वहां की सरकार और जन सामान्य के सामान्य व्यवहार में शामिल है। जब उन्होंने देखा कि जिन दलितों को वे शेष हिंदू समाज के खिलाफ भड़का कर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा करने में कामयाब हुए थे, उनका भी पाकिस्तान में बुरा हाल है।

मोहम्मद अली जिन्ना के बेहद नजदीक होने के बावजूद और सरकार में काबीना मंत्री रहते हुए भी मंडल उनकी हिफाजत नहीं कर पाए। अंततः उन्होंने वर्ष 1950 में पाकिस्तान सरकार को मंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया और हमेशा हमेशा के लिए भारत लौट आए। आपको बता दें कि उन्होंने अपनी जिंदगी के अंतिम 18 वर्ष भारत के पश्चिम बंगाल में गुजारे और अंततः यह माने कि सामाजिक न्याय की अवधारणा तो भारतीय जनमानस की रगों में रक्त बनकर दौड़ रही है। अब हमें सामाजिक न्याय के प्रति भारतीय प्रतिबद्धता की तस्वीर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के जीवन प्रसंगों में भी देखनी होगी।

उदाहरण के लिए- यह उल्लेख करना कोई बड़ा रहस्योद्घाटन का विषय नहीं है कि जब 1950 में मंडल भारत लौटे तब हमारे देश का संविधान हमारी स्वतंत्रता को पूर्णता प्रतिपादित कर रहा था। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर संविधान निर्माता समिति के अध्यक्ष बन चुके थे और देश के प्रथम कानून मंत्री के पद को गौरवान्वित कर रहे थे। वह भी तब, जबकि उनके कांग्रेस से काफी गहरे मतभेद रहे। क्योंकि वे ऐसा मानते थे कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार दलितों का उतना ही शोषण करती है, जितना आजादी के पहले अंग्रेज शासक करते रहे। फिर भी उन्होंने जो संविधान इस देश को सौंपा, उसका भारतीय जनमानस में काफी सम्मान है। यही वजह है कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर केवल दलित नेता ना रहकर इस देश में संविधान निर्माता के रूप में जाने पहचाने जाते हैं। लिखने का आशय यह कि हमारे यहां दलित, अगड़ा, पिछड़ा आदि शब्दों का प्रयोग राजनीतिक लाभ हानि की दृष्टि से कुछ अवसरवादी दलों और नेताओं द्वारा किया जाता रहता है, इससे किसी को इनकार नहीं। लेकिन जब सामाजिक न्याय की बात आती है तो हम देखते हैं कि हमारे यहां का जनमानस इसके लिए पूरी तरह स्वयं को सक्षम सिद्ध करता आया है। यहां के एक महाकवि कह गए हैं-

जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।।

इस रचना को भारतीय जनमानस में उतना ही सम्मान प्राप्त है, जितना एक धार्मिक व्यक्ति गीता, गुरु ग्रंथ साहिब, बाइबल, अथवा कुरान को देता आया है। इस संदर्भ में यही कहना उचित रहेगा कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर या फिर महात्मा ज्योतिबा फुले की स्मृति में यदि इस देश और दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी सामाजिक न्याय पखवाड़ा मनाने का संकल्प ग्रहण करती है तो वह भारतीय जनमानस की इस बाबत गहरे तक स्थापित अवधारणा की सच्चाई को प्रतिपादित ही कर रही है।

(लेखक मप्र बाल आयोग के पूर्व अध्यक्ष है)

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