राजनीतिक स्वार्थ के लिए मंदिर-स्कूल में भेद पैदा करती आरजेडी
लालू जी अपने चमचों को समझाओ, मंदिर-स्कूल में भेद नहीं, ये वैशिष्ट्य है हमारा
स्वदेश वेबडेस्क। अयोध्या में भगवान श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को होनी है, इसके मुख्य समारोह की तैयारियां जोरों पर हैं। इस समारोह को लेकर अंतर्विरोध भी देखने को मिल रहा है। एक तरफ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिममीन राजनीतिक पार्टी है, जिसके प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी राममंदिर और बाबरी ढांचे के बहाने फिर से सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर राम मंदिर को लेकर कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद उदित राज का एक विवादित बयान सामने आया है, जिसमें वे कहते दिखे, ''500 साल बाद मनुवाद की वापसी हो रही है।'' इसी बीच राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में काम करनेवाले लालू यादव एवं उनके बच्चों के भक्तगण, राजनीतिक कार्यकर्ता और कुछ चमचे हैं जो मंदिर की तुलना आज स्कूल से कुछ इसत तरह से कर रहे हैं जैसे कि मंदिर अज्ञानता के गढ़ हैं और इनसे सभी को दूरी बनाए रखना चाहिए ।
वस्तुत: लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के घर के बाहर जो विवादित पोस्टर लगा है, उससे तो यही समझ आ रहा है कि अयोध्या में बन रहा भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर इन लोगों को रास नहीं आ रहा । इस पोस्टर में मंदिर को गुलामी का मार्ग बताया गया है और लिखा गया है, ''मंदिर का मतलब मानसिक गुलामी का मार्ग और स्कूल का मतलब होता है जीवन में प्रकाश का मार्ग। जब मंदिर की घंटी बजती है तो हमें संदेश देती है कि हम अंधविश्वास, पाखंड, मूर्खता और अज्ञानता की तरफ बढ़ रहे हैं और जब स्कूल की घंटी बजती है तो यह संदेश मिलता है कि हम तर्कपूर्ण ज्ञान और वैज्ञानिकता व प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं। अब तय करना है कि आपको किस ओर जाना चाहिए?''
यहां कहने को जिन्होंने ये पोस्टर लगवाया है, वे आरजेडी के विधायक अपने नाम के साथ जिस जाति कुशवाहा समाज और धर्म का उल्लेख करते हैं, वह हिन्दू है। आश्चर्य इस बात पर होता है कि हिन्दू होकर मंदिरों से इतना द्रोह! क्या इन्हें मंदिर के होने के पीछे का मनोविज्ञान नहीं पता ? और यदि नहीं भी पता है तो अच्छा होता यह सभी कुछ अनर्गल लिखने के पूर्व उस दर्शन और विशेष ज्ञान को प्राप्त करते जोकि प्रत्येक मंदिर के होने के पीछे का सत्य है।
सच पूछिए तो इस तरह की सोच रखनेवालों की बुद्धि पर तरस आता है, यह तरस इसलिए भी है क्योंकि भारत भूमि पर किसी हिन्दू घर में जन्म लेने के बाद भी ये लोग अब तक मंदिर के होने के पीछे के अंतदर्शन को नहीं जान पाए हैं और न ही आगे भी जानने में कोई रुचि रखते हैं। इस तरह की सोच रखने वाले थोड़ा इतिहास का अध्ययन अवश्य करें; भारत के इतिहास में ही नहीं दुनिया भर के इतिहासकार इस बात के लिए एकमत हैं कि मंदिरों में बैठकर ही महान ज्ञान परंपरा का विकास हुआ है। ये मंदिर जीवन को गहराई के साथ समझने के वो केंद्र रहते आए हैं, जिसमें कि परा-अपरा समस्त प्रकार की विद्याएं मौजूद हैं।
आरजेडी के लोगों का स्कूल के साथ मंदिर की तुलना भी मुखर्तापूर्ण लगती है, क्योंकि आज भी भारत के हजारों हजार मंदिर ज्ञान धारा के जीवंत केंद्र हैं। आधुनिक एवं प्राच्य शिक्षा को संचालित करनेवाले सुदूर दक्षिण के किसी प्रदेश से लेकर उत्तर के अंतिम छोर तक भारत भर में अनेकों मंदिर हैं जो ज्ञान का दीप अपने विभिन्न विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के माध्यम से प्रकाशित कर रहे हैं। यही स्थिति संपूर्ण भारत में पूर्व से पश्चिम तक देखी जा सकती है।
आज आरजेडी के जो नेता एवं कार्यकर्ता 'मंदिर का मतलब मानसिक गुलामी का मार्ग बता रहे हैं और कह रहे हैं कि जब मंदिर की घंटी बजती है तो हमें संदेश देती है कि हम अंधविश्वास, पाखंड, मूर्खता और अज्ञानता की तरफ बढ़ रहे हैं तब उन्हें यह अवश्य ही सोचना चाहिए कि वे मंदिर के बहाने भारत की पूरी ज्ञान परंपरा को ही कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, क्योंकि भारत की संस्कृति में जो संस्कार हैं वे इन्हीं मन्दिरों की देन हैं। 'मंदिर' शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, मन के अंदर । संस्कृत भाषा और यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ "शतपथ ब्राह्मण" से आए इस शब्द में ‘मन’ और ‘दर’ की संधि विच्छेद करने पर मन + दर होता है। जिसका कुल तात्पर्य मन का द्वार है, जहाँ हम अपने मन का द्वार खोलते हैं, वह स्थान मंदिर है। इसी तरह से अगर हम मन का संधि विच्छेद करें तो म + न में म का अर्थ मम यानी कि मैं से है और न अर्थात नहीं, कुल शब्द का अर्थ हुआ जहाँ मैं नहीं ! यानी कि जिस स्थान पर जाकर हमारा ‘मैं’ यानि अंहकार ‘न’ रहे वह स्थान मंदिर है। इसलिए ही प्राचीन समय से ही मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र रहे हैं।
यदि इसकी और गहराई में जाएं तो प्रत्येक कार्य, विचार और भावना का प्रारंभिक बिंदु मन है। मन उन दृष्टियों का धारण स्थान है जिन्हें हम देखते हैं, सुनते हैं और महसूस करते हैं । यह मन के माध्यम से ही है कि हम पृथ्वी और आकाश की, संगीत की, कला की, वास्तव में हर चीज़ की सुंदरता, असुन्दरता की अनुभूति को अनुभव करते हैं । कोशिका और तंत्रिका के माध्यम से अंदर और बाहर काम करने वाला विचार यह मन ही है जो असंख्य मनोदशाओं को एक सामंजस्यपूर्ण संपूर्णता में पिरोता है , और हम इसे जीवन कहते हैं ।
इस मन की आध्यात्मिकता में तीन चरण बताए गए हैं, चेतन मन, अवचेतन मन और अतिचेतन मन। अतिचेतन मन वास्तव में मन के चेतन और अवचेतन दोनों चरणों से परे है । मनुष्य की अव्यक्त संभावनाओं को सामने लाने के लिए इन तीन अलग-अलग दिमागों का सामंजस्यपूर्ण ढंग से एक साथ काम करने के लिए जिस आत्मशांति और अतिरिक्त पवित्रता की आवश्यक होती है, कहना होगा कि उसकी पूर्ति मंदिर में जाकर होती है। इसलिए आप मानिए कि मन एक बाध्यकारी धारण प्रक्रिया भी है, जिसके बिना जीवन में एक कदम भी नहीं चला जा सकता है और इस मन को मंदिर में आत्मशांति और अनुभूति के स्तर पर परम ज्ञान एवं आनन्द मिलता है । अत: इस कारण से भी सनातन धर्म में मंदिर उसके अस्तित्व के साथ सतत् हैं।
हर मंदिर के अपने देवता हैं और उन देवताओं की अपनी चारित्रिक विशेषता भी हैं जो मानव को महामानव बन जाने के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए ही शायद जो मलेच्छ हैं उन्हें मंदिरों से डर लगता है, वह अपने जीवन में नहीं चाहते अपने अंदर की यात्रा करना, आनन्द में डूब जाना और अंतस् से पवित्र हो जाना । वे नहीं चाहते आत्मसाक्षात्कार। वे नहीं सुनना चाहते गुरु वाणी। वे नहीं चाहते मानव से महामानव हो जाना। उन्हें नहीं चाहिए मंदिरों द्वारा संचालित स्कूल और सतत प्रवाहित होती ज्ञान धारा। किंतु फिर भी वे ये समझ लेवें कि भारत में सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का जय घोष करनेवाले हमारे मंदिर हमारे पथ प्रदर्शक हैं। इनकी वैशिष्ट्यता हमें अंदर एवं बाहर दोनों ओर से पवित्र एवं सतत प्रकाशवान कर रही है।