संसद में जिस DM का हुआ जिक्र उन्होंने सीधे PM से लिया था पंगा, 75 साल बाद फिर याद आया वो किस्सा...
आदेश की अवहेलना का मतलब सीधे - सीधे देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति जवाहरलाल नेहरू से पंगा लेना था लेकिन कुछ तो खास था इस अधिकारी में...।
स्वदेश विशेष । 22 - 23 दिसंबर की दरमियानी रात, साल 1949 को एक ऐसा बवाल हो गया कि, प्रधानमंत्री कार्यालय से लिखी एक चिट्ठी सीधे फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को गई। डीएम को भारत के प्रधानमंत्री ने एक आदेश दिया। ऐसे किस्सों में अधिकारी अपनी कुर्सी से उठते हैं और आदेश के पालन के लिए जमीन - आसमान एक कर देते हैं लेकिन इस अधिकारी ने ऐसा नहीं किया। उसने तय किया वो पीएम के दफ्तर से दिए आदेश को कतई नहीं मानेगा। इस आदेश की अवहेलना का मतलब सीधे - सीधे देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति जवाहरलाल नेहरू से पंगा लेना था लेकिन कुछ तो खास था इस अधिकारी में...।
न निलंबन का डर न भविष्य की चिंता। कोई सिद्धांतों का इतना पक्का भी होता है क्या? इस अधिकारी द्वारा आदेश की अवहेलना करने से इसके जिले के ही नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान की अवाम पर दूरगामी परिणाम पड़ने वाला था। आदेश की अवहेलना करने का तोहफा इस अधिकारी को निलंबन आदेश के रूप में मिला लेकिन मजाल है इसे अपने निर्णय पर मलाल हो। 75 साल बाद इस अधिकारी के कारनामे की गूँज संसद में एक बार फिर गूंजी है। एक बार फिर वो किस्सा याद आया है...।
स्वदेश आपको इस रोचक कहानी के सबसे अहम किरदार की जिंदगी के हर एक पहलू और बहुचर्चित इस आदेश के बारे में विस्तार से बताएगा पहले जानिए आखिर संसद में 8 अगस्त को ऐसा क्या हुआ कि, 75 साल पुराना किस्सा याद आ गया।
8 अगस्त को लोकसभा में वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक पेश किया गया। मुस्लिम अधिकारों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में बहस गरम हो गई। जब सपा प्रमुख अखिलेश यादव को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने कहा, "ये बिल जो पेश किया जा रहा है वो बहुत सोची समझी राजनीति के लिए तैयार हो रहा है। यह भाजपा द्वारा कुछ सीमित वोट बैंक को खुश करने के लिए किया जा रहा है। भाजपा ये बिल इसलिए लाना चाहती है क्योंकि वे अभी - अभी हारे हैं। मैं इतिहास में नहीं जाना चाहता अध्यक्ष महोदय लेकिन डीएम को विस्तृत अधिकार देने का क्या परिणाम होता है ये हम सब जानते हैं।"
यहां उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख अखिलेश यादव जिस डीएम का जिक्र कर रहे हैं वे ही उस किस्से के प्रमुख पात्र हैं जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू के सीधे पंगा ले लिया था। इसके बाद निलंबन से लेकर कानूनी लड़ाई तक का सफर किया लेकिन अपने फैसले पर कभी मलाल नहीं किया।
फैजाबाद के नायर साहब :
फैजाबाद के इस बहुचर्चित डीएम का नाम है केके नायर। इन्हें लोग नायर साहब भी कहते थे। साल 1949 के जून महीने में केके नायर की पोस्टिंग फैजाबाद में हुई। ये वही साल है जब बाबरी मस्जिद में रामलला मूर्ती का प्रकरण चल रहा था। हिंदूवादी संगठन राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर लामबंद होना शुरू ही हुए थे। स्थिति धीरे - धीरे गंभीर हो रही थी।
पीएम के आदेश को कह दिया NO :
ऐसे में पहले गोबिंद वल्लभ पंत के नेतृत्व वाली उत्तरप्रदेश सरकार और प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसमें सीधे दखल दिया। केके नायर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। उन्हें आदेश दिया गया मस्जिद से मूर्ती हटा दी जाए। क्या करता कोई और अधिकारी होता तो...शायद आदेश का पालन लेकिन केके नायर थोड़े अलग किस्म के अधिकारी थे (हर IAS अधिकारी थोड़ा सनकी तो होता ही है।)। उन्होंने पीएम के आदेश को कह दिया NO... और फिर शुरू हुई दो लड़ाई। एक लड़ाई अपने सिद्धांत पर अड़े रहने की दूसरी लड़ाई रामलला मंदिर की। दोनों का ही अंजाम बहुत रोचक रहा।
अभी केके नायर की कहानी में आगे बढ़ेंगे लेकिन उसके पहले उनके बारे में भी जान लीजिए। तभी तो समझ आएगा कि, ये व्यक्ति है क्या चीज।
साल 1907 केरल के कंदमकलाथिल पाणिक्कर शंकर और पार्वती अम्मा के घर एक बालक ने जन्म लिया। इनका नाम रहा गया। कैनाकारी पिल्लई। कैनाकारी पिल्लई को मिलाकर शंकर और पार्वती के कुल 6 बच्चे थे। कंदमकलाथिल पाणिक्कर शंकर ने अपने सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दी थी। कैनाकारी पिल्लई नांव से स्कूल जाया करते थे। बचपन से ही स्ट्रगल। अब आप सोच रहे होंगे की केके नायर कहां गए और ये कैनाकारी पिल्लई कहानी में कहां से आ गए। तो घबराइए मत इसकी भी बड़ी रोचक कहानी है।
नाम की भी कहानी रोचक :
जिस स्कूल में कैनाकारी पिल्लई जाते थे वहां उन्हीं के नाम का एक और बालक पढ़ा करता था। शिक्षक को दो एक ही नाम के बालकों में बड़ा कन्फ्यूज होता था। उन्होंने इस पूरी उलझन को दूर करने के लिए कैनाकारी पिल्लई को कैनाकारी नायर कर दिया। यहीं से मिल गए हमें हमारी कहानी के अहम किरदार केके नायर। केके नायर के परिवार में वे ही नायर हैं बाकी सभी सदस्य पिल्लई हैं।
21 साल में पास की ICS परीक्षा :
जब केके नायर की स्कूली शिक्षा ख़त्म हुई तो वे तिरुवनंतपुरम चले गए। यहां उनके बड़े भाई गोपाल पिल्लई रहा करते थे। वे न्यायिक सेवा में थे। केके नायर पढ़ाई में बहुत तेज थे। फेवरेट सब्जेक्ट था गणित। उन्होंने ऑनर्स की डिग्री में गोल्ड मैडल पाया था। 20 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे ब्रिटेन चले गए। मात्र 21 साल के थे जब उन्होंने ICS (आज की UPSC IAS परीक्षा) पास की थी। उनका परिवार चाहता था कि, वे पढ़ाई जारी रखें लेकिन उन्होंने देश सेवा करने का फैसला किया। जो काफी सही फैसला साबित हुआ।
निजी जीवन में दिक्कतें :
उनकी पोस्टिंग संयुक्त प्रान्त में हुई। जिसे अब उत्तरप्रदेश कहा जाता है। नायर की प्रोफेशनल लाइफ तो अच्छी थी लेकिन निजी जीवन में कुछ दिक्कतें थीं। उनके पत्नी सरसम्मा पारिवारिक महिला थीं। अपने माता - पिता के पास ही रहना चाहती थीं। अनबन बढ़ने लगी तो बात तलाक तक पहुंच गई। आखिरकार उनका तलाक हो गया। सरसम्मा अपने बेटे को लेकर अलग हो गई। बाद में उनके बेटे की भी मौत हो गई थी। इसके बाद केके नायर अपने कर्तव्य को निभाने में व्यस्त हो गए। 1946 में उन्होंने दूसरी शादी की शकुंतला से। दोनों का एक बेटा था जिसने बाद IRS सर्विस ज्वाइन की।
अब लौटते हैं वापस डीएम नायर और प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू के किस्से पर...
पीएम कार्यालय से नायर साहब को एक नहीं बल्कि दो खत आए। दोनों में मस्जिद से रामलला की मूर्ति हटाने की बात कही गई। नायर ने दोनों बार आदेश मानने से इंकार कर दिया था। नायर अपने सिद्धांतों के पक्के थे। उन्होंने तय कर लिया था मासूम लोगों के खून और आस्था को दांव पर लगाकर नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने आदेश नहीं माने और निलंबन आदेश उनके हाथों में थमा दिया गया।
बात सही - गलत की :
जब केके नायर को निलंबित किया गया वे 42 साल के थे। वे स्वयं सेवा नहीं देना चाहते थे लेकिन जब बात सही - गलत की हुई तो उन्होंने मामले को कोर्ट में सुलझाया। अदालत ने जब सभी तथ्यों को समझा तो फैसला केके नायर के पक्ष में आया। उन्हें उनकी नौकरी ससम्मान लौटाई गई लेकिन उन्होंने नौकरी पर लौटने से मना कर दिया और अपना इस्तीफा सरकार को सौंप दिया।
नौकरी छोड़ने के बाद नायर ने वकील के रूप में इलाहाबाद में प्रेक्टिस की और जनसंघ में सक्रीय हो गए। वे साल 1962 में लोकसाभा के सदस्य बने। उनकी पत्नी 1962, 1967 और 1971 में सांसद बनी।
केके नायर का फैसला न केवल ऐतिहासिक था बल्कि सटीक भी था। उनका जिक्र राम मंदिर आंदोलन में हर बार होता है और बार - बार होता रहेगा। वे भुलाए तो नहीं जा सकते, संसद में उनका नाम लिए बिना अखिलेश यादव ने जिक्र करके यह साबित कर दिया।