आपातकाल की कहानी : इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए लगाई थी इमेरजेंसी या वजह और भी थी?

आपातकाल की कहानी : 25 जून 1975, इंदिरा गांधी के लिए फैसले का दिन था। उन्हें फैसला लेना था कि, पीएम पद से इस्तीफा दें या देश में आपातकाल लगा दें।

Update: 2024-06-25 04:17 GMT

आपातकाल की कहानी

आपातकाल की कहानी : साल 1971 में अगर भारत में कोई सबसे ताकतवर नेता था तो उस नेता का नाम इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) था। अभी हाल ही में उन्होंने पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग करके एक नया देश बनाया था। उनके इस फैसले की चर्चा वाशिंगटन की सड़कों तक थी। भारत में जनता उन्हें किसी महान नायिका के रूप में देखने लगी थी। युद्ध के बाद देश में आम चुनाव हुए। जनता ने इंदिरा गांधी पर खूब प्यार बरसाया। उन्हें 352 सीट मिली। इंदिरा गांधी ने विपक्ष का सूपड़ा साफ़ कर दिया। इंदिरा गांधी ने रायबरेली से चुनाव लड़ा था और जीत हासिल की थी। ये उनकी उपलब्धियां थी लेकिन जल्द ही यही उपलब्धियां देश को बड़े संकट में डालने वाली थीं। ये घटनाक्रम उस कहानी की शुरुआत मात्र थे जिसके कारण 25 - 26 जून को देश के कई नेता जेल की सलाखों के पीछे थे। हम बात कर रहे हैं भारतीय लोकतंत्र के काले अध्याय आपातकाल की...।

25 जून 1975, इंदिरा गांधी के लिए फैसले का दिन था। उन्हें फैसला लेना था कि, पीएम पद से इस्तीफा दें या देश में आपातकाल लगा दें। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए कांग्रेस संसदीय दल की बैठक भी बुला ली थी यही नहीं उन्होंने अपना त्याग पत्र भी टाइप करवा लिया था। अंत में उन्होंने निर्णय ले ही लिया। 26 जून की सुबह ऑल इंडिया रेडियो पर मधुर संगीत रुक गया और घोषणा हुई कि, "राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा कर दी है। घबराने की कोई बात नहीं है।" यह शब्द किसी और के नहीं बल्कि भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के थे। उन्होंने इस्तीफा न देते हुए देश में आपातकाल लगाने का निर्णय लिया।

आखिर क्या वजह थी कि, इंदिरा गांधी इस्तीफा देना चाहती थीं और इस्तीफा देना था तो आपातकाल लगाने का निर्णय कैसे ले लिया?

इतिहास बड़ा दिलचस्प विषय होता है। एक सवाल को खोजने जाओ तो कई सवालों के जवाब ढूंढने पड़ जाते हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही है। आपातकाल क्यों लगा, क्यों प्रधानमंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया और सबसे बड़ा सवाल कि, आखिर 350 से अधिक सीट जीतने वाली और विपक्ष का सूपड़ा साफ कर देने वाली नेता को इस्तीफा देने की नौबत आई कैसे...सिलसिलेवार समझते हैं।

साल 1971 में वापस लौटते हैं जब इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग कर दिया था। बेशक उनका यह फैसला एक अच्छा फैसला था लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले थे। हजारों - लाखों शरणार्थी और युद्ध के बाद बढ़ती महंगाई देश के विकास को रोक रही थी। गरीबी हटाओ का नारा अब बस नारा बन कर ही रह गया था। देश में कई क्षेत्रों में जनता मूलभूत सुविधा के लिए मोहताज थी। कहा जाता है कि, आप भले ही दुनिया में हजारों युद्ध जीत लें लेकिन अगर देश के अंदर जनता ही संतुष्ट न हो तो सबकुछ व्यर्थ माना जाएगा। ये बढ़ती महंगाई ही आपातकाल की पृष्ठभूमि थी।

इसके बाद की कहानी लिखी गई गुजरात और बिहार में। यहां जो हुआ उसने सरकार की नींव ही हिला दी। जब छात्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लें तो परिणाम दूरगामी ही होते हैं। गुजरात में कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री थे चिमनभाई पटेल। भ्रष्टाचार इस कदर फैला था कि, चिमनभाई पटेल को 'चिमन चोर' कहने लगे थे। छात्रों ने यहां मोर्चा संभाल रखा था। दिसंबर 1973 में जब मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज के कुछ छात्रों ने अपने भोजन के बिलों में हुई वृद्धि के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, तो असंतोष सार्वजनिक आक्रोश में बदल गया। इन विरोधों को जल्द ही व्यापक समर्थन मिला और सरकार के खिलाफ एक राज्यव्यापी जन आंदोलन शुरू हो गया। छात्रों ने गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन से लोगों को जोड़ा। इसका असर ये हुआ कि, मुख्यमंत्री को इस्तीफ़ा देना पड़ा और चुनाव की तारीखों का ऐलान किया गया।

गुजरात से उठी आग बिहार तक जा पहुंची :

गुजरात में तो आंदोलन सफल रहा अब बारी थी बिहार की। यहां मोर्चा जिस व्यक्ति ने संभाला था उसका नाम था जय प्रकाश नारायण। ये कोई आम व्यक्ति नहीं थे बल्कि एक स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। जाहिर है आंदोलन की A, B, C, D... वो इंदिरा गांधी से बेहतर जानते थे। उनके नेतृत्व में विपक्ष के नेता और छात्र एक जुट हुए। उन्होंने नारा दिया संपूर्ण क्रांति। जाहिर है इसका उद्देश्य आंतरिक युद्ध नहीं बल्कि इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकना था। अक्सर ऐसा होता ही है कि, किसी लोकप्रिय नेता के खिलाफ कुछ कहो तो उसे देश विरोधी मान लिया जाता है। यहां भी यही हुआ। जीपे मूवमेंट में दिया गया सम्पूर्ण क्रांति का नारा देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा बताया गया। इसके बाद जो हुआ उसे हम लोकतंत्र के काले अध्याय के रूप में जानते हैं।

बिहार, गुजरात में जो हुआ उसने सरकार की नींव हिला दी थी लेकिन अभी एक और घटनाक्रम बाकी था। सड़कों पर लड़ाई तो जारी थी लेकिन अभी कोर्ट में भी इंदिरा को चुनौती मिल रही थी। एक बार फिर 1971 में लौटते हैं। रायबरेली लोकसभा सीट पर इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था समाजवादी राजनारायण ने। जब इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती मिलने लगी तो राजनारायण ने भी मोर्चा खोल दिया। अदालत में इंदिरा गांधी पर आरोप लगाए गए कि, उन्होंने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का गलत उपयोग किया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा मामले की सुनवाई कर रहे थे।

इलाहाबाद हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान इंदिरा गांधी को खुद कोर्ट में पेश होना पड़ा। यह पहली बार था जब कोई प्रधानमंत्री कोर्ट में पेश हुआ था। इधर जस्टिस सिन्हा को इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला सुनाने के लिए प्रलोभन मिल रहे थे लेकिन हर कोई बिकाऊ नहीं होता। उन्होंने दलीलों को सुना और 12 जून 1975 को फैसला सुनाया। ये फैसला ऐतिहासिक था। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को शून्य घोषित कर दिया और 6 साल के लिए इंदिरा गांधी को किसी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य ठहरा दिया।

अब हाई कोर्ट ने तो फैसला दे दिया था बारी सुप्रीम कोर्ट की थी। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। जस्टिस वी.आर.कृष्णा अय्यर मामले की सुनवाई कर रहे थे। इंदिरा गांधी के वकीलों ने बताया कि, देश की स्थिरता के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे लगाना जरूरी है। जस्टिस अय्यर ने दलीलों को सुना और 24 जून को फैसला सुनाया। उन्होंने फैसला दिया कि, इंदिरा गांधी, प्रधानमंत्री के पद पर तो रह सकती हैं लेकिन संसद में वोट नहीं दे सकती और सांसद के रूप में मिलने वाले वेतन और भत्ते की भी हकदार नहीं थी। बस इसके बाद इंदिरा गांधी ने निर्णय ले लिया था। देश को अब वह आपातकाल लगाकर चलाएंगी।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की घोषणा कर दी। इस खबर को सुनने वाले उतने ही बेखबर थे, जितना कि गांधी के कैबिनेट मंत्री। प्रधानमंत्री के एआईआर स्टूडियो में जाने से कुछ घंटे पहले ही उन्हें आपातकाल लगाए जाने की सूचना मिली थी। आपातकाल की घोषणा पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 - 26 जून की दरमियानी रात ही हस्ताक्षर कर दिए थे। इसके तुरंत बाद, दिल्ली भर के अखबारों के प्रेस अंधेरे में डूब गए, क्योंकि बिजली कटने के कारण अगले दो दिनों तक कुछ भी नहीं छप सका। दूसरी ओर, 26 जून की सुबह-सुबह कांग्रेस पार्टी का विरोध करने वाले सैकड़ों राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियनवादियों को जेल में डाल दिया गया। देश भर की जेल राजनीतिक बंदियों से भर दी गई थी। यही है लोकतंत्र का काला इतिहास।

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