Exclusive : प्रधानमंत्री मोदी के सपनों पर मध्यप्रदेश की अफसरशाही का पानी

बिलों के भुगतान की लंबी अफसर यात्रा

Update: 2024-03-20 12:15 GMT

विजय मनोहर तिवारी। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने खाद्यान्न भंडारण के लिए पूरे देश में ऑनलाइन व्यवस्था लागू की थी। इसके तहत मध्य प्रदेश में खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग को 190 करोड़ रुपए इसी सिस्टम को बनाने के लिए दिए थे। उपार्जन करने वाली सभी सहकारी समितियों और स्व सहायता समूहों को भी 5000 करोड़ से अधिक की राशि आवंटित की गई थी। लेकिन प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत के सपने को प्रदेश की अफसरशाही ने ग्रामीण क्षेत्र में चकनाचूर करके रख दिया है। प्रदेश में 8000 से अधिक निजी क्षेत्र के गोदाम महिलाओं द्वारा संचालित हैं। ग्रामीण अधो संरचना विकास के अंतर्गत यह केंद्र सरकार की योजना है, जिसमें 90 प्रतिशत महिलाओं को अनुदान दिया गया है। किसानों को खाद्यान्न भंडारण के लिए आसपास ही व्यवस्था देने और स्थानीय स्तर पर रोजगार विकसित करने का यह एक बड़ा स्वप्न था किंतु प्रदेश में अधिकारियों की आदतन मनमानी और लापरवाही ने लाखों किसानों से जुड़े इस असंगठित क्षेत्र के लघु एवं सूक्ष्म उद्योग को नष्ट होने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है

बिलों के भुगतान की लंबी अफसर यात्रा

वेयर हाउसिंग कॉर्पोरेशन की ब्रांच से बिल उनके रीजनल ऑफिस भोपाल जाते हैं। यह बिल भुगतान की प्रक्रिया का पहला बड़ा स्पीड ब्रेकर है। यहां 15 से 20 दिन का विलंब आम है। रीजनल ऑफिस से बिल सिविल सप्लाई कारपोरेशन के जिला कार्यालय में लौटते हैं। 15 से 20 दिन का विलंब यहां भी आम है और यह दूसरा बड़ा स्पीड ब्रेकर है। सिविल सप्लाई कारपोरेशन के रीजनल ऑफिस से उनके मुख्यालय बिल भेजे जाते हैं। मुख्यालय में अनेक स्तरों पर घूमते हुए उन्हें पास होने में एक माह से अधिक और लग जाता है। उसके पश्चात वेयरहाउसिंग कारपोरेशन के मुख्यालय के पास यह बिल भेजे जाते हैं। सिविल सप्लाई कॉरपोरेशन से पैसा वेयरहाउसिंग कारपोरेशन के पास आने पर ही भुगतान की प्रक्रिया शुरू होती है। बिलों के भ्रमण की यह दर्दनाक यात्रा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दी गई व्यवस्था के अनुसार हर स्तर पर 2 से 3 दिन से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। लेकिन अजब गजब मध्यप्रदेश में 6 से 8 माह का विलंब अफसरों की आदत में शुमार है। सिविल सप्लाई कॉरपोरेशन और वेयरहाउसिंग कारपोरेशन के बीच अगर कोई पुराने हिसाब लंबित हैं तो इस कारण से भी गोदाम संचालक महिलाओं के भुगतान अटका दिए जाते हैं। सिविल सप्लाई कॉरपोरेशन के उच्च स्तर पर अंतिम चरण में अगर पुन: परीक्षण की टीप लग गई तो इतने ही चैनलों से फिर बिलों का घूमना तय है और तब यह विलंब 8 माह से अधिक का हो सकता है। यह रवैया प्रदेश की कार्य प्रणाली का हिस्सा बन चुका है।

दलहन में 40 फीसदी तक रकम जेब में

दलहन की खरीदी में केंद्र सरकार 125 रुपए प्रति मीट्रिक टन किराया देती है लेकिन संचालकों की जेब में केवल 79 रुपए ही आते हैं। इस प्रकार 40 प्रतिशत से अधिक राशि कॉर्पोरेशन की जेब में जाती है। यह विशुद्ध गोदाम संचालक महिलाओं का हक है।

एमपी वेयरहाउसिंग एंड लॉजिस्टिक कार्पोरेशन की भूमिका

मई में खाद्यान्न भंडारण के बाद इनकी ब्रांचों के मैनेजर बिल तैयार करते हैं। दो साल पहले तक 15 से 20 प्रतिशत किराया बढ़ाया जाता था लेकिन अब हर साल लगातार घट रहा है। 2021-22 तक 85 प्रति मीट्रिक टन का किराया था जो इस समय घटकर 79 रुपए हो गया है। 20 प्रतिशत से अधिक राशि कॉरपोरेशन की जेब में जाती है। जबकि विशेषज्ञों के अनुसार इस पूरे नेटवर्क में वह एक सफेद हाथी से अधिक नहीं है। गोदाम मालिकों का पहला हक कॉर्पोरेशन हड़प रहा है जबकि बिल बनाने के सिवाय सुपरविजन के नाम पर और उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। इसकी समीक्षा होनी चाहिए।

बिल भुगतान के लिए इंतजार अंतहीन है

मध्य प्रदेश में 5000 मिट्रिक टन औसत की क्षमता के गोदाम हैं जिनका पूरे भरने पर प्रति माह किराया 2 से 3 लाख रुपए होता है। 8000 गोदाम का मासिक किराया करोड़ों में है। अगर यह राशि समय पर मिलती है तो ग्रामीण क्षेत्र में गोदाम संचालक महिलाएं गांव में इस फंड का उपयोग अन्य कार्यों में कर सकती हैं। जिससे स्थानीय स्तर पर ही रोजगार सृजन के अवसर बढ़ सकें। लेकिन उनका पूरा समय केवल लंबित राशि के भुगतान के इंतजार में जाता है और यह राशि भी उन्हें टुकड़ों टुकड़ों में प्राप्त होती है। केंद्र सरकार की एजेंसी का तो और बुरा हाल है। नाफेड के स्तर पर दलहन के भुगतान में डेढ़ से 2 साल का विलंब चल रहा है।

भुगतान संबंधी सूचनाओं का सिस्टम नहीं

दुखद यह है कि किसी एजेंसी के स्तर पर समय-समय पर गोदाम संचालकों को भुगतान के विलम्ब से संबंधित सूचनाएं देने का कोई सिस्टम ही नहीं है। इन एजेंसियों के मकडज़ाल की जानकारी आम संचालक महिलाओं को नहीं है। पांच वर्ष से ऑनलाइन सिस्टम है। तब अपेक्षा की गई थी कि भुगतान की प्रक्रिया तीव्र और समय पर होगी। इसमें कोई फाइल या कागज नहीं चलते हैं और ई हस्ताक्षर से ऑनलाइन ही रिकॉर्ड आगे बढ़ता है। अब वही ऑनलाइन सिस्टम हजारों गोदाम संचालक महिलाओं के भुगतान ट्रैफिक में एकमुश्त जाम रखता है।

प्रधानमंत्री के सपनों पर पानी

प्रदेश की खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव स्मिता भारद्वाज के ताजा आदेश के कारण असंगठित क्षेत्र का यह कारोबार अचानक चर्चा में आ गया है और इस कार्यवाही ने सरकार की सभी एजेंसियों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। उनकी ढीली और लालफीताशाही से भरी मनमानी भूमिका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों पर बुरी तरह पानी फेर रही है। प्रदेश सरकार को इसकी समीक्षा विशेषज्ञों से कराने का यह सही समय है। यह एक ऐसा सेक्टर है जिसकी कोई आवाज नहीं है, जो संगठित नहीं है, जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में ग्रामीण क्षेत्र में काम करता है और पूरी तरह मध्य प्रदेश की आदतन बेफिक्र अफसर शाही का शिकार है। मजे की बात है कि पिछले 10 वर्षों में राजनीतिक रूप से सक्षम लोगों ने केंद्र सरकार की इस अनुदान योजना के तहत गोदाम बनवाए लेकिन उनकी राजनीतिक ताकत भी इस जड़ता को तोडऩे में नाकाम रही।

अनुबंध में भुगतान की कोई समय सीमा नहीं

बड़ी चतुराई से गोदाम संचालक महिलाओं के शासकीय अनुबंध में कहीं भी भुगतान की कोई समय सीमा का प्रावधान ही नहीं किया है, न ही यह स्पष्ट है कि वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन 20प्रतिशत हिस्सा क्यों हड़प रहा है? जबकि उसकी कोई कारगर और सकारात्मक भूमिका ही आर्थिक जोखिम से भरे इस काम में नहीं है। अनाज में नमी, कीट का प्रकोप या अन्य कारणों से हुए नुकसान का सारा खामियाजा हर साल हजारों महिलाएं और उनके परिवार झेल रहे हैं। सब तरह की मनमानियों और नुकसान के सारे जोखिम उन्हीं के हैं, जिन पर बैंक के कर्जे के दबाव हर महीने हैं।

बेचकर बाहर होने का ही रास्ता छोड़ा

प्रदेश में सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि की ऐसी अनेक गोदाम संचालक महिलाएं हैं, जो जैविक कृषि, आधुनिक बागवानी, डेरी फार्मिंग और दुग्ध से बने उत्पादों की प्रोसेसिंग यूनिट डालना चाहती हैं। किंतु भुगतान की इस अंधी, भयावह और मनमानी से भरी प्रक्रिया ने उन्हें समय पर कर्ज चुकाने लायक भी नहीं छोड़ा है। कई गोदाम संचालक परिवार ऐसे हैं जो शहरों से गांव लौटकर कुछ बड़े सपने लेकर आए थे, उनके पास अब सब कुछ बेचकर वापस शहर लौटने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं बचा है। यह सेक्टर गंभीर संकट में है। केंद्र सरकार को अनुदान तत्काल बंद करने के साथ राज्य सरकार को अपनी एजेंसियों के नट बोल्ट कसने की जरुरत है। एक ऐसे समय जबकि गांवों में बुनियादी ढांचा आजादी के बाद पहली बार सुधरा है, लघु एवम सूक्ष्म उद्योग में पंजीकृत इस सेक्टर की दुर्दशा पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। 

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