आपातकाल को बीते हुए साढ़े चार दशक के आस—पास हो गए हैं. लेकिन इसकी स्मृति बनाए रखना आवश्यक है. यह विडंबना ही तो है कि जिन्होंने आपातकाल के माध्यम से मौलिक अधिकारों का हनन किया और खासकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निरंकुश होकर अंकुश लगाया वे आज उन लोगों की आलोचना कर रहे हैं जिन्होंने लोकतंत्र व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाने के लिए संघर्ष किया.
25—26 जून, 1975 की मध्य रात्रि को भारत में आपातकाल की घोषणा हुई थी. लगभग 19 महीने तक आपातकाल लागू रहा जिस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विपक्ष के सभी प्रमुख नेताओं सहित अपने सभी विरोधियों को जेल में डाल दिया था. देश भर में उन 18 महीनों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस सरकार की तानाशाही खिलाफ एक बड़ा आंदोलन चला. इसे चलाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका अग्रणी थी. संघ के शीर्ष नेतृत्व को को तो आपातकाल लगाते ही जेल में डाल दिया गया था पर उसके कई प्रचारक भूमिगत हो गए और उन्होंने इस आंदोलन को ऐसे जोरदार ढंग से चलाया कि वे इंदिरा गांधी और पूरी कांग्रेस के लिए सर दर्द बन गए. इन प्रचारकों में भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी थे.
मोदी ने पूरे 18 महीने भूमिगत रहकर जिस प्रकार आंदोलन चलाया उसे उन्होंने 1978 में एक किताब में कलमबद्ध किया. यह उनकी पहली किताब भी थी. गुजराती में साधना प्रकाशन ने आपातकाल समाप्त होने के फौरन बाद इसे 'संघर्षमा गुजरात' शीर्षक से प्रकाशित किया।
पुस्तक के परिशिष्ट 4 में 'कुछ निजी बातें' शीर्षक से इस पुस्तक का परिचय देते हुए मोदी लिखते हैं, ''यह मेरी प्रथम पुस्तक है. भूमिगत संघर्ष के बारे में अब तक अनुत्तरित रहे कुछ कठिन प्रश्नों की कुंजी स्वरूप यह पुस्तक मैने किसी लेखक की नहीं,वरन लड़ाई के एक सिपाही की हैसियत से लिखी है.
उन्होंने इस किताब में कई दिलचस्प किस्से लिखे हैं. जिसमें से कुछ आंदोलन में उनकी भूमिका के बारे में हैं। मोदी आंदोलन के शुरूआती दिनों के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं, ''संघ कार्यालय ही हम प्रचारकों के लिए निवास स्थान हुआ करते हैं. चार जुलाई को संघ पर प्रतिबंध लगाया गया और संघ के कार्यालयों पर सरकार ने कब्जा कर लिया. अत: मैं एवं संघ के प्रांत प्रचारक श्री केशवराव देशमुख दोनों ही श्री वसंतभाई गजेंद्रगडकर के यहां रहा करते थे.''
उस समय के भूमिगत नेताओं में जार्ज फर्नांडीज़ भी थे. आंदोलन के समन्वय के लिए उनकी और मोदी की मुलाकात बड़े दिलचस्प ढंग से हुई जिसका वर्णन मोदी ने किया है. '' पीले रंग की एक फिएट कार दरवाज़े के पास आकर रुकी. उसमें से विशाल कायावाले, बिना इस्तरी का कुर्ता पहने, सिर पर हरे रंग का कपड़ा, पट्टेदार छपाईवाली तहमत तथा कलाई पर सुनहरी चेनवाली घड़ी पहने,चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ एक मुस्लिम फकीर का वेश धारण किए हुए 'बाबा' के नाम से बुलाए जाने वाले जार्ज भीतर उतर कर आए. उन दिनों संघर्ष से जुड़े साथियों का मिलना भी एक आनंददायक अवसर हुआ करता था.हम आपस में गले मिले तथा संघर्ष में डटकर लगे रहने के लिए हमने एक दूसरे को शाबाशी दी. मेरे पास गुजरात तथा अन्य प्रांतों की उपलब्ध जानाकरी मैने उन्हें दी.'
इसके बाद वह कहते हैं, ''श्री जॉर्ज के साथ मैं लगातार संपर्क में था अत: उनकी भी मैने नानाजी (संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री नानाजी देशमुख) के साथ भेंट करवाई.'' नानाजी, आपातकाल का नेतृत्व कर रही लोक संघर्ष समिति के मंत्री थे और इंदिरा सरकार उन्हें खोजने के लिए जमीन—आसमान एक कर रही थी.
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में आपातकाल के विरोध में जो भूमिगत साहित्य बंटा उसकी छपाई मुख्यत: गुजरात में हुई थी. यह कैसे संभव हुआ, इसका ब्यौरा देते हुए मोदी बताते हैं, ''संघ के ही एक भूमिगत प्रचारक श्री किशनभैया 'राजस्थान लोक संघर्ष समिति की ओर से साहित्य छपवाने के लिए राजस्थान से अहमदाबाद आए. उनके लिए दो लाख पत्रिकाएं हिंदी में छपवाकर राजस्थान पहुंचाने का यह कार्य काफी चुनौती भरा था. मैं और जनसंघ के संगठन मंत्री श्री नाथाभाई झघडा इस कार्य के लिए योग्य प्रेस की तलाश में जुट गए. हिंदी भाषा में इतनी भारी मात्रा में साहित्य छाप सके, वैसा प्रेस गुजरात में मिलना कठिन था. ..दो दिन लगातार खोजबीन करने के बाद एक प्रेस मालिक इस काम के लिए तैयार हुए.हमने राहत की सांस ली, सोचा एक बार छपाई हो जाए, फिर आगे देखा जाएगा. पत्रिकाएं छपने लगीं.. दो लाख पत्रिकाओं का ढेर लग गया. पत्रिकाएं तैयार होने के बाद अहमदाबाद में उन्हें चार अलग—अलग स्थानों पर सावधानीपूर्वक रख दिया गया.'' इसके पश्चात राजस्थान में हर जिले से दो कार्यकर्ता आए और अपने खाली बिस्तरबंद में इन पत्रिकाओं को भरकर ले गए. राजस्थान में जब यह साहित्य बंटा तो वहां की पुलिस इसे छापने वाली प्रेस को ढूंढने के लिए राज्य भर में छापे मारती रही!
एक अन्य प्रकरण की चर्चा करते हुए मोदी ने लिखा है, ''हमारी भूमिगत योजना के सहयोगी स्वयंसेवक श्री नवीनभाई भावसार को गिरफ्तार कर लिया गया. श्री नवीनभाई के घर भूमिगत संघर्ष् से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण पत्रों के डाक द्वारा पहुंचते ही पुलिस ने छापा मार दिया...उनके साथ ही श्री परींदु भगत, श्री गोविंदराव गजेंद्र गडकर तथा श्री विनोद गजेंद्र गडकर को भी हिरासत में ले लिया गया. सभी से कड़ी पूछताछ की गई. पत्रों पर भेजने वाले का नाम लिखा था 'प्रकाश'.
(प्रकाश मेरा ही छद्म नाम था.) सरकार को इस नाम के धारक का भी पता चल गया. अब मेरे बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए पकड़े गए सभी लोगों को तरहं—तरहं की धमकियां दी जाने लगीं.. कई तरकीबों के बाद भी भी इन लोगों ने पुलिस को कोई जानकारी नहीं दी.''
मोदी ने इस पुस्तक में बताया है कि किस प्रकार कभी वह सिक्ख का वेश धारण कर लेते थे और कभी गेरूआ पहनकर सन्यासी के वेश में इस आंदोलन में अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए पुलिस गिरफ्तारी से बचने में सफल रहे.