Diwali 2024: दिवाली पर क्यों जलाते हैं पटाखे, जानिए कितना पुराना है इसका इतिहास
History of Crackers : भारत में दिवाली पर पटाखे जलाना अब रिवाज बन गया है। लोग दिवाली पर आतिशबाजी करते हुए त्योहार मनाते हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि, क्या शुरुआत से ही दिवाली पर आतिशबाजी की जाती है। क्या दिवाली पर पटाखे जलाना हमारी परंपरा का हिस्सा है? बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए दिल्ली, हरियाणा और पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों में दिवाली पर कुछ घंटों के लिए पटाखे फोड़ने की गाइडलाइन जारी कर दी है। राज्य सरकारों ने ग्रीन पटाखे फोड़ने की आजादी दी है। ये पटाखे पारम्परिक पटाखों की तुलना में 30% कम प्रदूषण फैलाते हैं। पटाखे जलाने न जलाने को लेकर हर साल बहसबाजी होती है। तो आइए जानते हैं क्या है पटाखों का इतिहास...।
भारत दुनिया में पटाखों का दूसरा सबसे बड़ा निर्माता
ऐसा माना जाता है कि, पटाखों का आविष्कार 8- 9वीं शताब्दी में चीन में हुआ था और वहां से यह सिल्क रूट के जरिए भारत पहुंचा। शुरुआत में यह केवल शाही और धार्मिक आयोजनों में इस्तेमाल होता था, लेकिन धीरे-धीरे यह आम लोगों के बीच लोकप्रिय हो गया। आज भारत दुनिया में पटाखों का दूसरा सबसे बड़ा निर्माता है, जिसका वार्षिक कारोबार लगभग 5000 करोड़ रुपये से अधिक है। तमिलनाडु का शिवकाशी पटाखा उत्पादन का प्रमुख केंद्र है। पटाखों का भारत में सांस्कृतिक महत्व है लेकिन पर्यावरण और स्वास्थ्य पर इसके दुष्प्रभाव के कारण अब इसका विरोध बढ़ रहा है।
चीन से हुई पटाखों की शुरुआत
पटाखों की शुरुआत को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन इतिहासकार इसकी उत्पत्ति को चीन से जोड़ते हैं। माना जाता है कि छठी सदी में एक रसोइए ने गलती से सॉल्टपीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) को आग में डाल दिया, जिससे रंगीन लपटें, और धुआं निकला। इसके बाद रसोइए ने सॉल्टपीटर के साथ कोयले और सल्फर का मिश्रण तैयार किया, जिससे तेज धमाका हुआ। इस घटना के साथ ही बारूद की खोज हुई और पटाखों की उत्पत्ति हुई।
ऐसा भी माना जाता है कि, यह प्रयोग चीन के सैनिकों ने किया था। उन्होंने कोयले पर सल्फर डालकर पोटेशियम नाइट्रेट और चारकोल के साथ मिलाकर बारूद तैयार किया। इस मिश्रण को बांस की नली में भरकर विस्फोट के लिए इस्तेमाल किया गया। पटाखों की कहानी 13वीं सदी में आगे बढ़ती है, जब बारूद चीन से यूरोप और अरब देशों में पहुंचा। यहां बारूद का उपयोग शक्तिशाली हथियार बनाने के लिए किया जाने लगा। इस दौरान आतिशबाज़ी बनाने की विद्या (पायरोटेक्निक) के लिए पूरे यूरोप में प्रशिक्षण स्कूल खोले गए।
भारत में ऐसे हुआ पटाखों का आगमन
भारत में पटाखों का इतिहास भी बहुत पुराना है। पंजाब यूनिवर्सिटी के इतिहास के प्रोफेसर राजीव लोचन के अनुसार, ईसा पूर्व काल में लिखित कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे मिश्रण का जिक्र है जो जलने पर तेज लपटें निकलती थी। इसे बांस की नलिका में डालकर बांधा जाता था।
भारत में 15वीं सदी से पटाखों के प्रमाण हैं। बाबर के भारत पर हमले के दौरान बारूद का इस्तेमाल हुआ था। 1633 में दारा शिकोह के बेटे के विवाह की पेंटिंग में भी आतिशबाजी के दृश्य मौजूद हैं। इतिहासकार पीके गोड़े ने अपनी किताब में 1518 में गुजरात में एक ब्राह्मण दंपत्ति की शादी का जिक्र करते हुए बताया कि इस शादी में भी आतिशबाजी हुई थी।
17वीं सदी में भारत आए यात्री फ्रैंकोसिस बर्नियर ने उल्लेख किया कि उस समय पटाखों का इस्तेमाल हाथियों जैसे बड़े जानवरों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता था। धमाके की आवाज से जानवर डर जाते थे, जिससे युद्ध के समय हाथियों का इस्तेमाल कम हो गया।
भारत में पटाखा निर्माण
चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा पटाखा निर्माता देश है। यहां का पटाखा कारोबार 5000 करोड़ से अधिक का है और लाखों लोगों की आजीविका इससे जुड़ी हुई है। सबसे अधिक पटाखे चेन्नई से 500 किमी दूर स्थित शिवाकाशी में बनाए जाते हैं। शिवाकाशी में 800 से ज्यादा पटाखा यूनिट्स हैं, जो देश में बनने वाले पटाखों का 80 प्रतिशत यहां तैयार किया जाता हैं। यहां के नडार भाईयों (षणमुगम नडार और अय्या नडार) ने 1922 में कोलकाता से माचिस बनाने की कला सीखी और शिवाकाशी लौटकर माचिस की एक छोटी सी फैक्ट्री लगाई। इसके बाद, उन्होंने मिलकर पटाखे बनाने का काम शुरू किया। आज उनकी कंपनियां (स्टैंडर्ड फायर वर्क्स और श्री कालिश्वरी फायर वर्क्स) देश की सबसे बड़ी पटाखा निर्माता कंपनियों में गिनी जाती हैं।
दिवाली पर पटाखे जलाने की परंपरा
दिवाली अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है, भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व रखता है। इस दिन दीप जलाने और पूजा-पाठ का महत्वपूर्ण जिक्र धार्मिक ग्रंथों में मिलता है, लेकिन पटाखे जलाने का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। दिवाली पर पटाखे जलाने या आतिशबाजी करने की परंपरा का कोई धार्मिक महत्व नहीं है, फिर भी आज यह पर्व का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। दिवाली पर पटाखे जलाने का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है लेकिन यह पर्व के उल्लास और खुशियों को और भी बढ़ा देती है। बता दें कि, पटाखों की परंपरा मूलतः चीन से आई है। चीन में लोग मानते हैं कि आतिशबाजी के शोर से बुरी आत्माएं, नकारात्मक विचार और दुर्भाग्य दूर होते हैं। यही कारण है कि चीन में विभिन्न त्योहारों पर आतिशबाजी की जाती है, और यह परंपरा धीरे-धीरे भारत में भी अपनाई गई।
पटाखे जलाने से होने वाले नुकसान
दिवाली और अन्य त्योहारों पर पटाखे जलाना आनंद और उत्सव का हिस्सा माना जाता है, लेकिन इसके साथ ही कई नुकसान भी होते हैं। आइए, जानते हैं पटाखे जलाने से होने वाले कुछ महत्वपूर्ण नुकसान:
वायु प्रदूषण: पटाखों से निकलने वाले धुएं और रसायनों के कारण वायु में प्रदूषण बढ़ता है, जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
ध्वनि प्रदूषण: पटाखों की तेज आवाज से ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है, जो जानवरों और इंसानों दोनों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
हो सकती हैं ये स्वास्थ्य समस्याएँ
सांस संबंधी समस्या: पटाखों से निकलने वाले धुएं और धूल के कण अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और अन्य सांस संबंधी बीमारियों को बढ़ा सकते हैं।
जलन और एलर्जी: पटाखों से होने वाले धुएं से आंखों में जलन, खुजली और एलर्जी की समस्या हो सकती हैं।
जानवर हो सकते हैं आक्रामक
पटाखों की आवाज़ से पालतू जानवरों और पक्षियों में डर और तनाव उत्पन्न होता है, जिससे उनकी स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। तेज आवाज से जानवर भागने की कोशिश करते हैं या कुछ जानवर आक्रामक भी हो जाते हैं।