पॉलिटिकल किस्से : जवाहरलाल नेहरू की जिद पर कांग्रेस में आईं राजमाता विजयाराजे सिंधिया

चंद्रवेश पांडे

Update: 2024-04-07 14:13 GMT
1957 में गुना से जीता पहला चुनाव, 1962 में ग्वालियर से दर्ज की जीत

ग्वालियर। ग्वालियर अंचल की राजनीति में सिंधिया परिवार का दबदबा रहा है। सिंधिया परिवार किसी भी राजनीतिक दल में रहा हो, लेकिन राजनीति उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती रही है। हालांकि हाल के कुछ दिनों में सिंधिया परिवार का राजनीतिक असर कम हुआ है। लेकिन पूर्व में चाहें कांग्रेस रही हो या जनसंघ-भाजपा, सभी ने महल से ही राजनीतिक ऊर्जा ग्रहण की है। सिंधिया परिवार के राजनीति में प्रवेश के कई रोचक किस्से हैं। आजादी से पहले सिंधिया परिवार राजनीति में सक्रिय नहीं था। लेकिन पांचवें दशक में पंडित जवाहरलाल नेहरू के आग्रह या कहें कि जिद की वजह से राजमाता विजयाराजे सिंधिया राजनीति में आईं और कांग्रेस की सदस्यता लेकर चुनाव के मैदान में उतरीं। यहां से अंचल की राजनीति में एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ। इसके बाद सन् 1957 से लेकर आज तक ग्वालियर अंचल में कोई चुनाव सिंधिया परिवार की भागीदारी के बगैर नहीं हुआ।

स्वतंत्रता के कोई दस महीने बाद मई 1948 में सिंधिया रियासत का भारत में विलय हो गया था। पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ग्वालियर के तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया को मध्यभारत राज्य का राजप्रमुख नियुक्त कर दिया। कहते हैं कि नेहरू की जीवाजीराव सिंधिया से खासी मित्रता थी, लेकिन सन् 52 में हुए आम चुनावों में ग्वालियर-अंचल में कांगे्रस को मिली करारी हार से नेहरू बेचैन हो उठे। नेहरू को शक था कि ग्वालियर- गुना- शिवपुरी में कांग्रेस को मिली हार के पीछे सिंधिया परिवार है। काफी हद तक ये बात सही भी थी, क्योंकि सन् 52 के आम चुनावों में सिंधिया राजवंश हिन्दू महासभा का साथ दे रहा था। ऐसे में नेहरू ने जीवाजीराव सिंधिया को कांग्रेस में आने का निमंत्रण दिया। नेहरू को इस बात का अंदाजा हो गया था कि सिंधिया परिवार के सहयोग के बगैर कांग्रेस ग्वालियर अंचल में अपने पैर नहीं जमा पाएगी। कांग्रेस की इस रणनीति से जीवाजीराव सिंधिया तो अनजान थे, लेकिन राजमाता विजयराजे सिंधिया नेहरू की चाल को समझ रहीं थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि नेहरू के प्रस्ताव में इस बात का जिक्र था कि यदि उनकी बात नहीं मानी तो यह माना जाएगा कि सिंधिया परिवार कांग्रेस के विरोध में हैं। उन्हें कांग्रेस की तरफ से कड़ी कार्रवाई का भी अंदेशा था।

बताते हैं कि इसके बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया पं. जवाहरलाल नेहरु से मिलने दिल्ली जा पहुंची। उन्होंने बातचीत में नेहरु को समझाया कि वे और उनका परिवार कांग्रेस के खिलाफ नहीं है। उन्होंने नेहरु जी से कहा कि महाराज को राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। लेकिन नेहरु जिद पर अड़े थे। वे बोले, फिर आप ही चुनाव लड़ेंगी। इसके बाद हुआ ये कि राजमाता विजया राजे सिंधिया ने विधिवत कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली।

सिंधिया परिवार के किसी सदस्य का लोकतांत्रिक धारा में शामिल होने का यह पहला अवसर था। सन् 57 के दूसरे आम चुनाव में राजमाता गुना संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ी। उनका मुकाबला हिन्दू महासभा के विष्णु घनश्याम देशपांडे से था। यह वही देशपांडे थे, जो 52 के चुनाव में ग्वालियर और गुना दोनों जगह से हिमस के टिकट पर जीते थे। बाद में उन्होंने ग्वालियर की सीट छोड़ दी थी। बहरहाल, गुना क्षेत्र की जनता ने राजघराने के प्रति आस्था जताई। राजमाता को देशपांडे से दो गुने वोट मिले। राजमाता को कुल 1 लाख 18 हजार 578 वोट मिले जबकि देशपांडे सिर्फ 58,521 वोट ही पा सके। राजमाता के कांग्रेस में जाने का असर ये हुआ कि पूरे अंचल में हिमस का पत्ता साफ हो गया। नेहरु भी यही चाहते थे।

खैर, पांच साल गुना की जनता का प्रतिनिधित्व करने के बाद 1962 के आम चुनाव में राजमाता ग्वालियर लौट आईं। इससे पहले उनके पति व राजप्रमुख महाराज जीवाजीराव सिंधिया 17 जुलाई 1961 को कैलासवासी हो गए। राजमाता पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। महाराज के जाने के बाद वे 62 का चुनाव लड़ने की कतई इच्छुक नहीं थीं, लेकिन नेहरु जी के आग्रह पर वे ग्वालियर से कांगे्रस की प्रत्याशी बनीं।

इसी तीसरे आम चुनाव तक देश के राजनीतिक आकाश पर जनसंघ का उदय हो चुका था। राष्ट्रवादी विचार के लोग जनसंघ के जरिए एकत्र हुए। उन्होंने कांग्रेस का विरोध करना शुरू कर दिया। ग्वालियर में जनसंघ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता और प्रखर पत्रकार माणिकचंद वाजपेयी उपाख्य मामाजी को राजमाता के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा।

उधर कांग्रेस में कक्का डोंगर सिंह, गौतम शर्मा, डॉ. रघुनाथ राव पापरीकर, बाला प्रसाद दुबे, रामनिवास बांगड़, वृन्दा सहाय जैसे युवा कांग्रेसी सक्रिय थे। यह पूरा गुट उस समय महल के विरोध में खड़ा था। 57 के इस चुनाव में कांग्रेसी युवा कार्यकर्ताओं व राजमाता के बीच टकराव के कई मौके आए। इसी दौर में नेहरु जी जब आमसभा लेने ग्वालियर आए तो इन युवा नेताओं को यह बात पता चल गई कि वे चाय-नाश्ते पर महल जाने वाले हैं। बताते हैं कि तब इन युवा नेताओं ने नेहरु से साफ कह दिया कि वे महल न जाएं, वरना हम लोग सभा में नहीं आएंगे। नेहरु को इन युवा नेताओं की बात माननी पड़ी। एसएएफ मैदान में आमसभा के मंच पर बैठने को लेकर भी तकरार हुई थी। पहले तय हुआ था कि मंच पर नेहरु जी के साथ कांग्रेस प्रत्याशी राजमाता विजयाराजे सिंधिया ही बैठेंगी, लेकिन बाद में महापौर होने के नाते डॉ. पापरीकर भी मंच पर बैठे। बहरहाल इस चुनाव का परिणाम भी वैसा ही रहा जैसा कि उम्मीद थी। राजमाता ने जनसंघ के प्रत्याशी माणिकचंद वाजपेयी मामाजी को 1,48, 820 वोटों के अंतर से हराया। राजमाता को 1,73,171 एवं वाजपेयी को मात्र 24,351 वोट प्राप्त हुए। मामाजी ने उसके बाद फिर कभी चुनाव नहीं लड़ा। पत्रकारिता में उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया। मामा जी ने जिस राष्ट्रवादी विचार के लिए काम किया, बाद में राजमाता उसी विचार की अनुगामी होकर जनसंघ और भाजपा में आईं। यह बात भी कहना समीचीन होगा कि जिस सिंधिया परिवार ने कांग्रेस से राजनीति की शुरूआत की आज वह पूरा परिवार भाजपा के साथ हैं।

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