ईश्वरकृत हैं आदिज्ञान के भंडार वेद
वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। आदि ज्ञान के भंडार चार वेद ग्रन्थ हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।
- अशोक प्रवृद्ध
वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। आदि ज्ञान के भंडार चार वेद ग्रन्थ हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद के पदों को मन्त्र कहते हैं। ब्रह्म की विद्या ब्रह्म अर्थात वेद ही है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद में चार विषय क्रमश: ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। ऋग्वेद का मुख्य विषय पदार्थ ज्ञान है, इसमें मुख्य रूप से संसार में विद्यमान पदार्थों का मूल स्वरुप का बखान किया गया है । यजुर्वेद में कर्मों के अनुष्ठान, सामवेद में ईश्वर की भक्ति उपासना तथा अथर्ववेद में विभिन्न प्रकार के विज्ञान को मुख्यत: दर्शाया गया है। ऋग्वेद में मंत्रों की संख्या 10552 (युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार 10482), यजुर्वेद में 1975, सामवेद में 1875 तथा अथर्ववेद में 5977 है । इस प्रकार चारों वेदों में कुल मंत्रों की संख्या 20397 है। वैदिक मतानुसार विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेद को लगभग एक अरब, 96 करोड़, आठ लाख, तिरपन हजार वर्ष पूर्व, जब इस पृथ्वी पर सर्वप्रथम मनुष्यों की उत्पत्ति हुई, तब ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्रदान किया, और इन ऋषियों के माध्यम से अन्य मनुष्यों तक पहुँचाया, जो तब से अब तक गुरु शिष्य परम्परा के माध्यम से अपने शाश्वत रूप में विद्यमान है। सहस्त्राब्दियों से वेद मंत्र श्रवण के माध्यम से ग्रहण किये जाते रहे, इसलिए इनका नाम श्रुत्ति भी पड़ गया है ।
महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार वेद परमात्मा का ज्ञान है, जो परमात्मा ने इस संसार में मनुष्य के कल्याण के लिए दिया है। मान्यता यह भी है कि वेद अपौरुषेय हैं अर्थात वेदज्ञान का किसी ने भी आविष्कार नहीं किया। परमत्मा भी इसका निमार्ता नहीं। यह ऐसे ही अनादि है, जैसा परमात्मा स्वयं तथा जीवात्मा और प्रकृति अनादि हैं। वेदज्ञान सदा रहता है, केवल यह प्रकट होता है जब ग्रहण करने योग्य मनुष्य जैसा प्राणी उत्पन्न होता है। मनुष्य पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ इसलिए मनुष्य के उत्पन्न होते ही यह ज्ञान उसे मिल गया। यह भारतीय परम्परा है कि वेद अनादि हैं। इसी कारण इसे ब्रह्म कहते हैं। परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति भी ब्रह्म माने जाते हैं और उनके साथ ही वेद भी ब्रह्म हैं। ये चारों अनादि पदार्थ हैं। केवल इनका आविर्भाव इस पृथ्वी पर तब हुआ जब मनुष्य यहाँ पर उत्पन्न हुआ। इनके आविर्भाव की कथा वेद में ही वर्णित है-
तस्माद्याज्ञात्सर्वहुतऽॠच: सामानिजज्ञिरे।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत। ।
- यजुर्वेद 31-7
उस सर्वहुत अर्थात सबसे ग्रहण करने योग्य यज्ञस्वरूप परमात्मा से ऋक, साम, अथर्व और यजुर्वेद प्रकट हुए । ऐसा ही अर्थ वाला एक मन्त्र अथर्ववेद में भी है। इस वेद प्रमाण से यह स्पष्ट हुआ कि वेद इस भूमंडल की सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक है। युक्ति की बात यह भी है कि सृष्टि पर प्रथम मानव को परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया। परमात्मा है और वेद उस सर्वज्ञ परमात्मा के ही ज्ञान का रूप है। ध्यातव्य हो कि सृष्टि रचना महान ज्ञानवान और शक्तिशाली आत्मतत्व के बिना सम्भव नहीं। इससे सिद्ध होता है कि महान ज्ञानवान व शक्तिशाली आत्मतत्व परमात्मा है।
वैदिक परम्परानुसार मनुष्य जैसा आज है वैसा ही आदि सृष्टि के समय बना था। इस कारण यह ज्ञान उसे न दिया जाता तो मनुष्य चलना फिरना भी न सीख सकता। वर्तमान में भी यह देखा जाता है कि मनुष्य के शिशु को यदि समाज से पृथक कर दिया जाय तो वह पशु समान ही रहेगा । कुछ भी नहीं सीख सकेगा। यह एक वस्तुस्थिति है कि सृष्टि आरम्भ में मनुष्य मनुष्य के रूप में ही पैदा हुआ था। यह नहीं कि कोई इतर जीव जंतु जाति परिवर्तन से मनुष्य बना हो। जाति परिवर्तन का सिद्धांत गलत है । इस कारण आदि मनुष्य को प्रारम्भिक ज्ञान देना आवश्यक था। इसलिए मनुष्य की आवश्यकता को देखते हुए यह ज्ञान परमात्मा ने दिया। यह है वेद की महिमा और मनुष्य के लिए इसकी आवश्यकता ।वेद सब कालों में सब विषयों का मूल ज्ञान देता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सृष्टि के पश्चात आज तक जो कुछ मनुष्य ने आविष्कार किया है, वह उस प्रारम्भिक ज्ञान के आधार पर ही किया है।
उल्लेखनीय है कि इन चारों ही वेदों के उपवेद भी हैं। ऋग्वेद के उपवेद का नाम आयुर्वेद है, जिसमें स्वास्थ्य तथा चिकित्सा का वर्णन किया गया है। यजुर्वेद के उपवेद धनुर्वेद में सेना, हथियार, युद्ध काल के विषय का वर्णन है ।सामवेद के उपवेद गन्धर्ववेद में गायन, वादन, नर्तन आदि विषयों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार अथर्ववेद के उपवेद अर्थवेद में व्यापार, अर्थव्यवस्था आदि विषयों का वर्णन है। जिन ग्रन्थों की रचना ऋषियों द्वारा की गई, उन ग्रन्थों को ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं। ऋग्वेद का ऐतरेय, यजुर्वेद का शतपथ, सामवेद का ताण्ड्य तथा अथर्ववेद का गोपथ नाम से प्रसिद्ध है। जिन ग्रन्थों में ऋषियों ने वेदों में वर्णित ब्रह्मविद्या से संबंधित आध्यात्मिक तत्वों यथा ब्रह्म, जीव, मन, संस्कार, जप, स्वाध्याय, तपस्या, ध्यान, समाधि आदि विषयों का आलंकारिक कथाओं के साथ सरल रूप से वर्णन किया है । उनका नाम उपनिषद है। इन उपनिषदों में ईशोपनिषद् आदि दस उपनिषदें प्रमुख है, जिन्हें दशोपनिषद के नाम से जाना जाता है।
कुछ लोग एकादशोपनिषद अर्थात ग्यारह उपनिषद मानते हैं। ऋषियों ने जिन ग्रन्थों में वेदों के दार्शनिक तत्वों की विस्तार से एवं शंका समाधानपूर्वक विवेचना की है, उनका नाम उपांग या दर्शनशास्त्र है। ये संख्या में छ: हैं। इनके नाम मीमांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग है। जैमिनि ऋषिकृत मीमांसा-दर्शन में धर्म, कर्म यज्ञादि का वर्णन है।
वेद मंत्रों के गंभीर व सूक्ष्म अर्थो को स्पष्टता से समझने के लिए ऋषियों ने छ: अंगों की रचना की, उन्हें वेदांग कहा जाता है। ये हैं शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष । शिक्षा ग्रन्थ में संस्कृत भाषा के अक्षरों का वर्णन, उनकी संख्या, प्रकार, उच्चारण-स्थान प्रयत्न आदि का उल्लेख सहित किया है। इनके अतिरिक्त वैदिक साहित्य के अंतर्गत ऋषियों ने स्मृति ग्रन्थ आरण्यक ग्रन्थ, सूत्रग्रंथ आदि भी बनाये थे। ऋषियों ने इन ग्रन्थों की रचना मानव मात्र को कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराने के लिए की थी। इन में पारिवारिक, सामाजिक,धार्मिक तथा राजनैतिक नियमों का विधान है। वैदिक धर्म से संबंधित, आरण्यक, प्रातिशाख्य, सूत्र ग्रंथ, पुराण, महाभारत आदि अनेक ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं।
मूल चारों वेद संहिताएँअपौरुषेय हैं। वेदों की शाखाएं तथा ब्राह्मण ग्रंथ मनुष्य कृत हैं। उन्हें वहीं तक विश्वासयोग्य माना जा सकता है जहां तक वे वेदों के अनुकूल हैं। मूल मंत्र संहिताओं का परम्परा से किया गया है और विद्वानों ने भी भाष्य उन पर ही किया है। अन्य ग्रन्थ उपनिषद, उपवेद,गीता इत्यादि ईश्वरीय नहीं हैं तथापि यह सब हमारे महान पूर्वजों, ऋषियों द्वारा निर्मित महान ग्रंथ हैं पर यह भी ईश्वरीय रचना वेदों की बराबरी नहीं कर सकते।