- आशीष वशिष्ठ
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा वाराणसी के प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद में हुए सर्वेक्षण से उस दावे की पुष्टि हो गई है कि वह हिन्दू मंदिर पर ही बनाई गई थी। इस सर्वेक्षण को रोकने के लिए मुस्लिम पक्ष द्वारा न्यायालय में चरम सीमा तक जाकर तर्क दिए गए। बीती 31 जनवरी को वाराणसी की एक न्यायालय ने हिन्दू पक्ष को ज्ञानवापी मस्जिद के व्यास जी तलगृह में पूजा का अधिकार दे दिया है। पूर्ण विधि-विधान से पूजा अर्चना शुरू हो गई है। हिन्दू पक्ष कुछ समय से ज्ञानवापी परिसर में स्थित एक तलगृह में पूजा का अधिकार मांग रहा था। यह तलगृह मस्जिद परिसर में है। वर्ष 1992 तक व्यास जी तलगृह में पूजा नियमित तौर पर होती थी। 06 दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद 1993 से व्यास जी के तलगृह को बंद कर दिया गया और बैरिकेडिंग कर दी गई थी। उस समय समाजवादी पार्टी की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। अयोध्या में राम जन्मभूमि मामले को लेकर भी मुलायम सिंह यादव ने बैरिकेडिंग लगवा दी थी जिससे सांप्रदायिक माहौल न बिगड़े और लड़ाई-झगड़े न हों। पहले बांस-बल्ली लगाकर बैरिकेडिंग की गई और बाद में पक्की तरह से बंद कर दिया गया। इसके बाद यहां पर वार्षिक माता शृंगार गौरी की पूजा हो रही थी।
ज्ञानवापी में किए गए सर्वेक्षण की जो रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत हुई, उसके आधार पर कोई भी कह सकता है कि वह मंदिर ही है। मुस्लिम पक्ष को इसका ज्ञान काफी पहले से था। इसीलिए उन वस्तुओं को छिपा और ढक दिया गया था जो हिन्दू धर्म के प्रतीक और चिह्न हैं। सबसे बड़ी बात शिवलिंग का मिलना है। पौराणिक ग्रंथों से पता चलता है कि ज्ञानवापी कुआं का निर्माण स्वयं भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से किया था। पौराणिक काल से ही काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का इलाका अविमुक्त क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध रहा है। महाभारत में भी काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के पूरे क्षेत्र को अविमुक्त क्षेत्र के नाम से पुकारा गया है। वर्तमान में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद भी अविमुक्त क्षेत्र का ही भाग रहा है। इस क्षेत्र में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद को मुक्त कराने के लिए सैकड़ों वर्षों से विश्व भर के हिंदू संघर्ष कर रहे हैं।
होना तो यह चाहिए था कि स्वतंत्रता के बाद केंद्र सरकार मुगल काल में हिन्दू धर्मस्थलों को तोड़कर या उन्हीं ढांचों पर खड़ी की गई मस्जिदों को हिन्दुओं को सौंपने की नीति बनाती। लेकिन कांग्रेस सहित अन्य पार्टियां मुसलमानों की नाराजगी से बचने के लिए हिन्दुओं के वैध दावों को ठुकराती रहीं। मथुरा और वाराणसी में हिन्दुओं के सर्वाेच्च आराध्यों के पवित्र मंदिर के बगल में बनी मस्जिद के हिन्दू मंदिर होने की बात पंडित नेहरू से लेकर तमाम नेताओं को ज्ञात थी। लेकिन उन्होंने इस दिशा में सोचने का कष्ट इसलिए नहीं उठाया क्योंकि वे हिन्दुओं की सहनशक्ति को जानते थे। वरना क्या कारण था कि हिन्दुओं की विवाह व्यवस्था संबंधी रीति-रिवाजों को तो उलट-पलट दिया गया किंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ को छेड़ने की हिम्मत नहीं हुई।
देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हमारे नेताओं ने स्वीकार किया था। सर्व धर्म समभाव के भारतीय संस्कारों के कारण भले ही मुस्लिमों की बड़ी आबादी भारत में रह गई और पाकिस्तान के उलट भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया किंतु ये भी उतना ही सही है कि तत्कालीन शासकों ने मुस्लिम तुष्टीकरण के फेर में बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को धक्का पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि सरदार पटेल न होते तब बड़ी बात नहीं सोमनाथ मंदिर का जीर्णाेद्धार भी न हो पाता। अयोध्या का विवाद तो स्वाधीनता के पहले से चला आ रहा था। वास्तव में, देश में एक ऐसी जमात है जो भय और लोभ से भरी हुई है। उसमें कायरता का कीचड़ है। वह ऐतिहासिक यथार्थ और सांस्कृतिक सत्य का सामना करने से कतराती है। समस्या का समाधान सौदेबाजी में तलाशती है और समस्या को टालते जाने को अपनी कुशलता और चतुराई मानती है। इस जमात के भगीरथ हैं राजनेता। ऐसा राजनेता जिनकी सोच और दृष्टि का क्षितिज केवल एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक का है। भावी पीढ़ियों, दशाब्दियों और शताब्दियों की बात सोचने का सामर्थ्य उनमें नहीं है। वे हम मर गए तो किसने दुनिया देखी की मानसिकता से पीड़ित हैं।
सत्ता लोभ और चुनाव में पराजय के भय से पीड़ित इन लोगों को राष्ट्रीय अस्मिता की अवमानना करने और उसे नकारने में लाज ही नहीं आती। लोभ, भय ओर मौन हो जाने का परिणाम भारत का राष्ट्रीय समाज 75 वर्ष पूर्व भुगत चुका है। राजनीतिक नेतृत्व में भय एवं राष्ट्रीय समाज के मौन से तुष्टिकरण और खुशामद कर जन्म हुआ था। यह इतिहास सिद्ध अनुभव है कि हिन्दुओं का मौन राष्ट्र के विभाजन को जन्म देता है। अल्पसंख्यकों की मुखरता और उनका तुष्टिकरण राष्ट्र के भूगोल को बिगाड़ता और इतिहास का मान भंग करता है।
1991 में केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने जो कानून बनाया उसके अनुसार 15 अगस्त, 1947 को किसी भी धर्मस्थल की जो स्थिति थी उसे परिवर्तित नहीं किया जाएगा। लेकिन अयोध्या विवाद में सर्वाेच्च न्यायालय ने अपना निर्णय इस आधार पर दिया कि बाबरी ढांचा हिन्दुओं के मंदिर को मस्जिद का रूप देकर खड़ा किया गया था। ठीक वही बात ज्ञानवापी के बारे में भी सामने आ रही है। अयोध्या विवाद को सुलझाकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो रास्ता खोल दिया वह उन सभी धर्मस्थलों को मुक्त करवाने में सहायक होगा जिनको मुस्लिम शासकों ने बलपूर्वक मस्जिद का रूप दे दिया। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के बारे में भी ऐसा ही दावा है। ये सब देखते हुए मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने समुदाय के लोगों को समझाना चाहिए कि वे हठधर्मिता के बजाय समझदारी और व्यवहारिकता से काम लें। इसमें दोराय नहीं है कि मुगलों द्वारा पूरे देश में हिन्दुओं के धर्मस्थलों को नष्ट करने का काम बड़े पैमाने पर हुआ। प्राचीन धर्मस्थलों के बारे में जो तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं वे चौंकाने वाले हैं।
ज्ञानवापी में हिन्दू पक्ष को पूजा का अधिकार प्रदान करने के न्यायालय के निर्णय के बाद मुस्लिम पक्ष ने इस पर नाराजगी जताई है। मुस्लिम पक्ष ने कहा है कि फैसले के बाद हाई कोर्ट में इस आदेश के खिलाफ अपील की जाएगी। मुस्लिम पक्ष ने इस फैसले को नकार दिया है। इससे पहले मुस्लिम पक्ष ने एएसआई के सर्वे को भी नकार दिया था। ज्ञानवापी परिसर में स्थित माता शृंगार गौरी भी पूजा का अधिकार मांगा जा रहा है। देखा जाए तो, मुस्लिम पक्ष द्वारा इस बारे में वही गलती दोहराई जा रही है जो अयोध्या विवाद में देखने मिली। इसलिए इस विवाद को निपटाने के लिए अदालत ही एकमात्र विकल्प बचता है, जहां ठोस प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते हैं। अयोध्या में हिन्दू मंदिर होने की बात भी वहां किए गए उत्खनन से ही तय हुई। वही प्रक्रिया ज्ञानवापी के बारे में भी अपनाई जा रही है।
मुस्लिम समाज को ये बात समझ लेनी चाहिए कि जिन राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर वह सच्चाई की स्वीकार करने से बचता है उनका उद्देश्य मात्र उनके वोट प्राप्त करना है। जहां मूर्ति हो और जिस भूमि पर जबरन कब्जा किया गया हो, वहां मस्जिद बनाने और नमाज पढ़ने को कुरान और पैगम्बर दोनों ने मना किया है। मस्जिद को हटाने का भी कुरान में निषेध नहीं है। ऐसे में वो विशाल हृदय का प्रदर्शन करते हुए अतीत में मुगल शासकों द्वारा हिन्दुओं के धर्मस्थलों पर बलपूर्वक अधिकार जमाने और नियंत्रण किए जाने वाली गलती को सुधारने की पहल करते हुए उनकी सद्भावना प्राप्त करें। सद्भावना और सहिष्णुता एकपक्षीय नहीं, द्विपक्षीय होती है। एक पक्ष को अपमानित करके दूसरे पक्ष को सम्मान देने से सद्भाव को नहीं, शत्रुता का जन्म होता है। जन-जन को दिग्भ्रमित करने के दुष्चक्र की लंबी कहानी है।
(लेखक, स्वंत्रत टिप्पणीकार हैं।)