एक देश, एक चुनाव का परिप्रेक्ष्य

मोनिका चौहान

Update: 2023-09-18 20:35 GMT

वर्तमान में चुनावी प्रक्रिया में संशोधन कर एक नई चुनाव व्यवस्था का निर्माण करने से संबंधित चर्चा पूरे देश में हो रही है। भारतीय लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चुनाव एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से लोकतंत्र में जनता अपनी इच्छाएं और अपेक्षाएं व्यक्त करती है। जनप्रतिनिधि को चुनने की यह रीति इस देश में पिछले 7 दशकों से चली आ रही है। इस पद्धति में अनेक खामियां हैं इन खामियों को दूर कर एक नई चुनावी व्यवस्था का संचालन और निर्माण करने का प्रयास 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ के माध्यम से हो सकता है। वार्षिक चुनावों के चलते देश लगातार चुनावी माहौल में रहता है, जिससे विकास और प्रगति में बाधा आती है। 'एक देश, एक चुनावÓ की अवधारणा इस समस्या का समाधान कर सकती है, जिसमें एक समय में सभी स्तर के चुनाव हों। पिछले 7 दशकों में चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी निष्पक्ष और सुचारू बनाने हेतु अनेक प्रयास और संशोधन हुए हैं। भारत, जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अपनी चुनावी प्रक्रिया के लिए प्रसिद्ध है। हर वर्ष भारत में किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं, जिससे चुनावी व्यवस्था पर हमेशा दबाव बना रहता है। 'एक देश, एक चुनावÓ - यह एक ऐसा प्रयास है जो इस दबाव को कम कर सकता है। यह प्रस्ताव इस बात पर आधारित है कि भारत में सभी चुनाव - चाहे वह संघीय, राज्य, या स्थानीय स्तर के हों - एक ही समय पर हों। अर्थात यह सभी चुनाव 5 साल में एक बार ही होगा या यूं कहें भारत को मध्यावती चुनाव और हमेशा होने वाले चुनावों से मुक्त करना है।

आजादी के बाद के पहले कुछ दशकों में (1952, 1957, 1962 व 1967) भारत में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। इसका मुख्य कारण था संघीय संरचना में स्थिरता और सामाजिक-राजनीतिक संविधान की अवबोधना। 1968-69 में इस समानांतरता का विच्छेद हो गया, जिससे चुनावी क्रम में असंगतियाँ आने लगीं। कुछ राज्यों में विधानसभाओं को वक्त से पहले भंग किया गया और 1971 में लोक सभा के चुनाव को भी अग्रसार किया गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व में भी दोनों चुनावों को एक समय करने के प्रयत्न किये हैं लेकिन सफल नहीं हुए। 1983 में चुनाव आयोग ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ऐसी संभावना का उल्लेख किया। इसके बाद 1999 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस पर टिप्पणी की। 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से इस विषय पर संवाद साझा किया, परन्तु सहमति नहीं बन सकी। फिर, लालकृष्ण आडवाणी ने 2010 में इंटरनेट के माध्यम से बताया कि उन्होंने पीएम मनमोहन सिंह (तत्कालीन प्रधानमंत्री) और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से दोनों चुनावों को एक साथ कराने और कार्यकाल को स्थिर बनाने की मांग की थी। 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसे समर्थन प्रदान किया, जिससे इस विषय पर विवाद उत्तेजित हो गया। 2016 में मोदी ने 'एक देश, एक चुनावÓ की ओर ध्यान केंद्रित किया, जिस पर नीति आयोग ने त्वरित रूप से रिपोर्ट प्रस्तुत की। अन्तत: 2019 में विधि आयोग ने इस तरह की व्यवस्था की अनुमति के लिए पांच संविधान संशोधन की आवश्यकता की सूचना दी। लगातार इस विषय पर अब तक चर्चा और टिप्पणी हो रही है लेकिन कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है।

यदि हम देशव्यापी चुनावी घटनाक्रमों की समीक्षा कर चुनावी प्रकिया का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होते हैं। इससे देश की आर्थिक स्थिति पर बहुत ज्यादा असर पड़ता है। इस चुनावी प्रक्रिया की अविरतता का परिणाम यह है कि राष्ट्र सदैव चुनावी परिपेक्ष में रहता है, जिससे प्रशासनिक और नीतिपरक निर्णयों पर प्रभाव पड़ता है, तथा राष्ट्रीय कोष पर अत्यधिक भार रहता है। इसे दूर करने के लिए नीतिज्ञों ने सभी विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव को एक समय पर आयोजित करने का सुझाव दिया है। हाल ही में 17वीं लोकसभा चुनाव में अंदाजन 60 हज़ार करोड़ रुपए का व्यय हुआ और पूरे देश में करीब 3 महीने तक चुनावी माहौल देखने को मिला। इसी प्रकार का माहौल वर्ष में अन्य राज्यों में भी देखा जा सकता है। 'एक देश एक चुनावÓ की सोच इस अविरत चुनावी चक्र से मुक्ति प्रदान कर सकती है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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