इसे संयोग ही कहेंगे कि जिस समय नागपुर में हिंदू समुदाय को समर्थ बनाने के लिए राष्टीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, ठीक उसी वक्त सुदूर दक्षिण में हिंदू समुदाय के कथित ब्राह्मणवाद को नष्ट करने के उद्देश्य से रामास्वामी पेरियार द्वविड़ आंदोलन की नींव रख रहे थे। दोनों संगठनों ने एक साथ तकरीबन शतकीय यात्रा पूरी कर चुकी है। इस पूरी यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विराट संगठन के रूप में उभरता है। पेरियार के समर्थक भी बढ़ चुके हैं। दोनों संगठनों में अंतर सिर्फ इतना है कि पेरियार के उत्तर भारत में समर्थक कम हैं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पेरियार की धरती तमिलनाडु में उपस्थिति अपेक्षानुकूल नहीं हो पाई है। दो साल बाद दोनों ही संगठनों की शतकीय पारी पूरी होगी। तमिलनाडु के युवा और खेल मंत्री उदयनिधि स्टालिन के बयान ने इन दोनों ही संगठनों, विशेषकर रामास्वामी की वैचारिकी के हासिल पर चर्चा का मौका दे दिया है।
उदयनिधि ने हाल ही में सनातन धर्म के उन्मूलन पर केंद्रित एक सेमिनार में जो बोला है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। अपने लिखित भाषण में उदयनिधि ने कोरोना वायरस और कुछ अन्य संक्रामक बीमारियों के साथ सनातन धर्म के बारे में कहा कि इनका सिर्फ विरोध नहीं, उन्मूलन किया जाना चाहिए। कुछ यही भाषा पेरियार भी बोलते थे। शुरू में महात्मा गांधी के अनुयायी रहे पेरियार ने 1925 में तमिलनाडु के कांग्रेसी आंदोलन में ब्राह्मण वर्चस्व के विरोध में कांग्रेस छोड़ दिया और ब्राह्मणों के विरोध में उतर गए। तमिलनाडु में देखते ही देखते उनका आंदोलन फैल गया। तमिलनाडु में कांग्रेस के समानांतर उनका संगठन फैलता चला गया। पिछली सदी के अस्सी के दशक में एक शब्द बड़ी तेजी से फैला और देखते ही देखते वह राजनीति की केंद्रीय धुरी बन गया। वह शब्द रहा सामाजिक न्याय। सामाजिक न्याय शब्द सही मायने में पेरियार के ही आंदोलन से उभरा। पेरियार कहने को तो हिंदू धर्म में छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ थे। इसके लिए उन्होंने जो शब्दावली चुनी, वह ब्राह्मणवाद का विरोध रही। सामाजिक न्याय और पिछड़ी जातियों को बराबरी का हक दिलाने को लेकर शुरू पेरियार का आंदोलन देखते ही देखते ब्राह्मणों के खिलाफ हो गया। उनकी भाषा इतनी आक्रामक रही कि आजादी के बाद तो एक बार धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार माने जाने वाले पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने पेरियार को पागलखाने तक में डालने की बात कह डाली थी।
पेरियार का मानना था कि हिंदू या सनातन धर्म में जो भी कुरीतियां हैं, उसके लिए ब्राह्मण ही जिम्मेदार हैं। सदियों से पूजा-पाठ ब्राह्मणों का मुख्य कर्म रहा है, लिहाजा उन्होंने पूजा-पाठ, ईश्वरवाद आदि को खारिज करते हुए नास्तिक विचारधारा को बढ़ावा दिया। कहने को पेरियार का आंदोलन ब्राह्मणवाद के विरोध में रहा, लेकिन देखते ही देखते वह ब्राह्मण समुदाय के विरोध में उतर गया। पेरियार यहीं पर नहीं रूके। वे ब्राह्मणवाद विरोधी नास्तिकवाद की पैरोकारी करते-करते भारत से इतर तमिल इलाकों के लिए अलग द्रविड़ देश की मांग पर उतर आए। हां. यह बात और है कि उनके द्रविड़ राष्ट्र में आज का श्रीलंका भी था। लेकिन पेरियार के अनुयायी सीएन अन्नादुरै को अलग द्रविड़ राष्ट्र की मांग पसंद नहीं आई और उन्होंने 1949 में पेरियार के आंदोलन से नाता तोड़ कर अलग से द्रविड़ मुनेत्र कषगम् बनाई। देखते ही देखते अन्ना दुरै का कद पेरियार से तमिलनाडु में बड़ा हो गया। साठ के दशक के बाद से कुछ सालों का अपवाद छोड़कर तमिलनाडु की सत्ता इसी द्रमुक आंदोलन के हाथ रही। उदयनिधि स्टालिन उन्हीं अन्नादुरै के अनुयायी करूणानिधि के राजनीतिक और पारिवारिक वारिश है।
रामास्वामी पेरियार की वैचारिकता में विध्वंस ज्यादा रहा। चूंकि तमिलनाडु की जनसंख्या में करीब सत्तर फीसद आबादी पिछड़े वर्ग की है और करीब इक्कीस प्रतिशत लोग दलित हैं, लिहाजा ब्राह्मणवाद और कालांतर में ब्राह्मणविरोध की राजनीति को वहां परवान चढ़ना ही था। संख्या बल की राजनीति में गुणवाद को तिरोहित होना ही था। इसका असर यह हुआ कि राज्य के करीब तीन फीसद ब्राह्मणों के खिलाफ सूबे मेंमाहौल जहरीला बनता गया। जिन ब्राह्मणों के खिलाफ पेरियार ने कांग्रेस छोड़ी, उस कांग्रेस की ओर से राज्य के सिर्फ एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री ही बन पाया और वे रहे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी। ब्राह्मण विरोध की राजनीति के बाद राज्य के ब्राह्मणों को राज्य के बाहर ही अपना ठौर तलाशना पड़ा। ज्यादातर लोग केंद्रीय नौकरशाही में गए या वकालत का पेशा चुना। या फिर सिंगापुर, संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों का रूख किया।
सौ साल में यह देखना होगा कि पेरियार और द्रविड़ आंदोलन के चलते राज्य की राजनीति से ब्राह्मणों की विदाई तो हो गई,लेकिन अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और मेधा के चलते नौकरशाही, वकालत या निजी कारोबार और नौकरियों में गए। सिर्फ गए ही नहीं, देखते ही देखते छा गए। अमेरिका की धरती पर प्रमुख चेहरे के रूप में उभरे सुंदर पिचाई हों या इंदिरा नूई, वे उसी ब्राह्मण समुदाय से आते हैं, जिनके विरोध के नाम पर द्रविड़ राजनीति परवान चढ़ी। रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में उभरे विवेक रामास्वामी हों या फिर ऐसे कई नाम, वे आज भारतीयता के गर्व के प्रतीक हैं। लेकिन कटु सत्य यह है कि वे उसी ब्राह्मण समुदाय से आते हैं, जिनके विरोध में पेरियार,अन्नादुरै, करूणानिधि और अब उदयनिधि की जुबान आग उगलती रही है या उगल रही है।
सौ साल की यात्रा में ईवी रामास्वामी 'पेरियारÓ की नास्तिक विचारधारा ने ना सिर्फ हिंदू या सनातन धर्म को खारिज किया है, बल्कि आर्यसमाज आंदोलन, विवेकानंद के रामकृष्ण मिशन के साथ ही गांधी के सनातनी चिंतन पर भी हमला बोला। इस दौर में गांधी के साथ सबसे ज्यादा जिस विवेकानंद ने समानता आधारित सनातनी विचार को बढ़ावा दिया है। उनको भी पेरियार ने नहीं बख्शा। द्रविड़ आंदोलन ने उसे भी खारिज किया है। अगर पेरियार की नास्तिकवादी विचारधारा और अन्नादुरै के द्रविड़ आंदोलन को देखें तो शुरू में वह ब्राह्मणविरोधी नजर आता है, बाद में वह उग्र हिंदी विरोधी हो जाता है। कई बार वह उत्तर भारत विरोधी भी होता नजर आता है। यह पूरा विरोध कुल मिलाकर सनातन या हिंदू दर्शन और धर्म का विरोध बनकर उभर आता है। उदयनिधि का बयान एक तरह से पेरियार और अन्नादुरै के आंदोलन का समेकित रूप है।
ऐसे में सवाल उठने चाहिए कि आखिर इस आंदोलन का हासिल क्या है? आज भारत को इंदिरा नूई, सुंदर पिचाई और विवेक रामास्वामी पर गर्व होता है। सवाल यह है कि क्या तमिलनाडु में ऐसी प्रतिभाएं नहीं पनप सकती थीं, अगर ये प्रतिभाएं तमिलनाडु में होती तो क्या वे मौजूदा राजनीतिक दर्शन के मुताबिक पल्लवित-पुष्पित हो सकती थीं? क्या इन प्रतिभाओं और मेधाओं का सकारात्मक उपयोग हो सकता था? जैसा राजनीतिक माहौल है, उसमें ऐसा हो नहीं सकता था। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण राजनीति की दुनिया है। जिसमें गिनकर तीन ही नाम ब्राह्मण समुदाय से उभरे हैं। ये नाम हैं, सुब्रमण्यम स्वामी, मणिशंकर अय्यर और एस जयशंकर। इनमें पहले की राजनीति दिल्ली से उभरी है। बाकी दोनों के बारे में कहा जा सकता है कि अगर कांग्रेस और भाजपा के सर्वोच्च नेतृत्व की निगाह नहीं पड़ी होती तो क्या वे राजनीति की दुनिया में बड़े नाम बन सकते थे, इसके बावजूद कि वे अपनी-अपनी तरह की प्रतिभाएं हैं।
रामास्वामी पेरियार और अन्नदुरै के आंदोलन के बरक्स राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंदोलन को देखिए। संघ को वितंडा और विखंडनवाद से जोड़ कर देखा जाता है। अक्सर बांटने का आरोप उस पर लगाया जाता है। बिडंबना ही है कि विखंडन का यह आरोप पेरियारवादी भी लगाते हैं, जिन्होंने समाज को उच्छृंखलता के हद तक बांटा और एक छोटे समुदाय को सबसे ज्यादा नकारात्मक तरीके से निशाना बनाया है। संघ समन्वय की विचारधारा पर चलता रहा। इसकी वजह से उसका विस्तार देखिए। वह तकरीबन पूरे भारत में फैल चुका है। वह समाज के तमाम वर्गों के बीच अपनी मजबूत पैठ बना चुका है। उसकी वैचारिकी देश की सत्ता की केंद्रीय ताकत बन चुकी है। लेकिन रामास्वामी पेरियार की वैचारिकी को देखिए, वह तमिलनाडु से बाहर अपने विस्तार के बारे में सोच भी नहीं सकती। उदयनिधि इस सीमा को जानते हैं, इसीलिए वे विखंडन और नकार की राजनीति केंद्रित बयान दे रहे हैं। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि क्या तमिलनाडु अब भी वैसा ही है, जैसा 1960 के दशक में था, जब वह हिंदी और उत्तर भारत के विरोध के नाम पर उबल पड़ता था, जब वह ब्राह्मण विरोध में आगे आता था? इस सवाल का जवाब तलाशते वक्त उस पीढ़ी के विचार को भी जानना चाहिए, जिसने हिंदी विरोधी आंदोलन में हिंदी से किनारा कर लिया। अब उस पीढ़ी को हिंदी ना सीख पाने का अफसोस है। उसे लगता है कि ऐसा करके उसने अखिलभारतीय अवसर खोया है। इसीलिए वह पीढ़ी अगर चाहती है कि उसका बच्चा अखिल भारतीय सेवा में जाए तो हिंदी सिखाना नहीं भूलती। भले ही वह उत्तर भारत की तरह हिंदी ना जान पाए।
आखिर में एक अनुभव को यहां साझा करना जरूरी है। करीब सात साल पहले कोयंबटूर से दिल्ली लौटते वक्त अजब नजारा दिखा। हवाई जहाज को वाया चेन्नई आना था। शाम को छूटने वाली उस जहाज बहुत ऐसे तमिल ब्राह्मण परिवार भी थे, जिन्हें कोयंबटूर से चेन्नई ही जाना था। कोयंबटूर से चेन्नई की यात्रा के बीच ही सूर्यास्त का समय हो गया और उस फ्लाइट में अचानक तकरीबन हर पंक्ति में संध्या और तर्पण शुरू हो गया। यह दृश्य उस सोच का प्रतीक था, जो तमाम झंझावातों के बावजूद खड़ी रही और अपना सम्मान बचाए और बनाए रखी। कहना न होगा कि आज का तमिलनाडु अब इस सोच को समझने लगा है। इसलिए उदयनिधि की वैचारिकी को देखना होगा कि उसकी सोच कहां पहुंची, क्या उसे तमिलनाडु अब भी वैसे ही स्वीकार करेगा और संघ के बरक्स उसकी सोच का विस्तार कहां तक हुआ है?
(लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)