एलोपैथी का विकल्प बनता आयुर्वेद

प्रमोद भार्गव

Update: 2020-12-21 10:39 GMT

जिस तरह से योग शारीरिक स्वास्थ्य और स्फूर्ति का अग्रदूत पूरी दुनिया में बन गया है, उसी क्रम में अब आयुर्वेद चिकित्सा की बारी है। संकल्प के धनी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयुर्वेद से स्नातकोत्तर करने वाले छात्रों को अनेक प्रकार की सामान्य शल्य-चिकित्सा करने की अनुमति दी है। इस उपचार में आंख, कान, दांत, नाक, हड्डियां आदि के ऑपरेशन कर चिकित्सा करने के प्रस्ताव को स्वीकृति मिल गई है। ये छात्र शल्य प्रक्रिया के प्रशिक्षण के बाद इन कार्यों को अंजाम देंगे। शल्य चिकित्सा के प्रशिक्षण को भी आयुर्वेदिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में जोड़ा जाएगा। चिकित्सा सेवा में यह बदलाव सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन के नियमों में बदलाव करने के बाद संभव हुआ है। केंद्र सरकार का यह फैसला आधुनिक चिकित्सा पद्धति को परंपरागत चिकित्सा पद्धति की ओर मोडऩे की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है।

एलोपैथी चिकित्सक आयुर्वेद के वैद्यों को शल्य क्रिया के अधिकार देने से परेशान दिख रहे हैं। परंतु उन्हें जानने की जरूरत है कि आपरेशन की विद्या आयुर्वेद से ही आई है। दरअसल दुनिया को यह ज्ञान काशी के आयुर्वेदाचार्य श्रुत ने दिया था। मसलन शल्य क्रिया की उत्पत्ति ही आयुर्वेद से हुई है। बावजूद अनेक लोग आयुर्वेद को जड़ी-बूटी की उपचार प्रणालियों को काम-चलाऊ टोटकों से ज्यादा कुछ नहीं मानते । ईसा से 1500 साल पहले भारत में प्लास्टिक सर्जरी करने के साक्ष्य मिले हैं। काशिराज दिवोदास धन्वंतरि के सात शिष्यों में प्रमुख आचार्य श्रुत को फादर ऑफ प्लास्टिक सर्जरीÓ भी कहते हैं। इसीलिए मेलबर्न स्थित द रॉयल आस्ट्रेलिया कॉलेज ऑफ सर्जन्स में श्रुत की प्रतिमा लगी है।

बनारस हिंदू विश्व-विद्यालय के आयुर्वेद संकाय में पहले से ही ऑपरेशन से जुड़े शल्य-तंत्र और शाल्क्य विभाग हैं। यहां नाक, कान, गला और आंख के ऑपरेशन किए जाते हैं। बवासीर की शल्य क्रिया केवल आयुर्वेद चिकित्सा से ही संभव है। श्रुत बीएचयू में पहले आयुर्वेद कॉलेज ही खुला था। महान चिकित्सक केएन उडप्पा ने यहीं से आयुर्वेदिक चिकित्सा में स्नातक किया, फिर यहीं प्राचार्य हो गए। उन्हीं के नेतृत्व में यह कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसÓ बना, जो अब इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसÓ है। बीएचयू के डॉक्टर जीडी सिंघल ने नवें दशक में यहीं से सुश्रुत संहिता व आधुनिक चिकित्सा का तुलनात्मक अध्ययन किया था, जिसमें उम्मीद जताई थी कि आयुर्वेद में एलोपैथी के सापेक्ष हर प्रकार के इलाज की संभावना है। उन्होंने माना है कि श्रुत संहिता में यंत्र व शल्य प्रक्रिया अत्यंत उच्चकोटि के हैं।

धरा पर प्राणियों की सृष्टि से पहले ही प्रकृति ने घटक-द्रव्य युक्त वनस्पति जगत की सृष्टि कर दी थी, ताकि रोगग्रस्त होने पर उपचार के लिए मनुष्य उनका प्रयोग कर सके। भारत के प्राचीन वैद्य धन्वन्तरि और उनकी पीढिय़ों ने ऐसी अनेक वनस्पतियों की खोज व उनका रोगी मनुष्य पर प्रयोग किए। इन प्रयोगों के निष्कर्ष श्लोकों में ढालने का उल्लेखनीय काम भी किया, जिससे इस खोजी विरासत का लोप न हो। इन्हीं श्लोकों का संग्रह आयुर्वेद है। एक लाख श्लोकों की इस संहिता को ब्रह्म-संहिता भी कहा जाता है। वनस्पतियों के इस कोश और उपचार विधियों का संकलन अथर्ववेद भी है। अथर्ववेद के इसी सारभूत संपूर्ण आयुर्वेद का ज्ञान धन्वन्तरि ने पहले दक्ष प्रजापति को दिया और फिर अश्विनी कुमारों को पारगंत किया। अश्विनी कुमारों ने ही वैद्यों के ज्ञान-वृद्धि की दृष्टि से अश्विनी कुमार संहिता की रचना की। चरक ने ऋ षि-मुनियों द्वारा रचित संहिताओं को परिमार्जित करके चरक-संहिता की रचना की। यह आयुर्वेद का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।

इसी कालखंड में वैद्य वाग्भट्ट ने धन्वन्तरि से ज्ञान प्राप्त किया और अष्टांग हृदय संहिता की रचना की। श्रुत संहिता तथा अष्टांग हृदय संहिता आयुर्वेद के प्रमाणिक ग्रंथों के रूप में आदि काल से आज तक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। आयुर्वेद व अन्य उपचार संहिताओं में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व पंच-तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण प्राणी स्वेदज, जरायुज, अण्डज और उद्भ्जि रूपों में विभक्त हैं। इन शास्त्रों में केवल मनुष्य ही नहीं पशुओं, पक्षियों और वृक्षों के उपचार की विधियां भी उल्लेखित हैं। साफ है, भारत में चिकित्सा विज्ञान का इतिहास वैदिक काल में ही चरम पर पहुंच गया था। क्योंकि वनस्पतियों के औषध रूप में उपयोग किए जाने का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद की रचना ईसा से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुई मानी जाती है।

ऋग्वेद के पश्चात अथर्ववेद लिखा गया, जिसमें भेषजों की उपयोगिताओं के वर्णन हैं। भेषजों के सुनिश्चित गुणों और उपयोगों का उल्लेख कुछ अधिक विस्तार से आयुर्वेद में हुआ है। यही आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है। इसे उपवेद भी माना गया है। इसके आठ आध्याय हैं, जिनमें आयुर्विज्ञान और चिकित्सा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। इसका रचनाकाल पाश्चात्य विद्वानों ने ईसा से ढाई से तीन हजार साल पुराना माना है। इसके आठ अध्याय हैं, इसलिए इसे 'अष्टांग आयुर्वेदÓ भी कहा गया है। आयुर्वेद की रचना के बाद पुराणों में श्रुत और चरक ऋषियों और उनके द्वारा रचित संहिताओं का उल्लेख है। ईसा से करीब डेढ़ हजार साल पहले लिखी गई श्रुत संहिता में शल्य-विज्ञान का विस्तृत विवरण है। चरक संहिता में रेचक, वामनकारक द्रव्यों और उनके गुणों का वर्णन है। चरक ने केवल एकल औषधियों को ही 45 वर्गों में विभाजित किया है। इसमें औषधियों की मात्रा और सेवन विधियों का भी तार्किक वर्णन है। इनका आज की प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से साम्य है। यहां तक कि कुछ विधियों में इंजेक्शन द्वारा शरीर में दवा पहुंचाने का भी उल्लेख है। यह वह समय था जब भारतीय चिकित्सा विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था और भारतीय चिकित्सकों की भेषज तथा विष विज्ञान संबंधी प्रणालियां अन्य देशों की तुलना में उन्नत थीं। श्रुत और चरक की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब गणना होने लगी है। यही कारण है कि एलोपैथी की दवा निर्माता कंपनियां भी श्रुत और चरक के अपने कैलेंडरों में शल्य क्रिया करते हुए चित्र छापने लगे हैं।

याद रहे, करीब तीन साल पहले हमने प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के बूते दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध पेटेंट की लड़ाई जीती थी। पहली लड़ाई कुल्ला करने के पारंपरिक तरीकों को हथियाने के परिप्रेक्ष्य में कोलगेट पामोलिव से जीती, तो दूसरी आयोडीन युक्त नमक उत्पादन को लेकर, हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से जीती। दरअसल कोलगेट ने जावित्री से कुल्ला करने और हिंदुस्तान यूनीलीवर ने आयोडीन युक्त नमक बनाने की पद्धतियां भारतीय ज्ञान परंपरा से हथिया ली थीं। इन दोनों ही मामलों में विदेशी कंपनियों ने भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों से उत्पादन की पद्धति व प्रयोग के तरीके चुराए थे। भारत की वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने भारतीय पारंपरिक ज्ञान के डिजिटल पुस्तकालय से तथ्यपरक उदाहरण व संदर्भ खोजकर आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के क्रम में यह लड़ाई लड़ी और जीती। इस कानूनी कामयाबी से साबित हुआ है कि भारत की ज्ञान-परंपरा सदियों से मार्गदर्शक रही है।

(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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