विश्व की महान और शाश्वत परंपराओं का धनी भारत देश भले ही अपने अपनी पहचान बताने वाली कई बातों को भूल गया हो, लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनका स्वरूप आज भी वैसा ही दिखाई देता है, जैसा दिग्विजयी भारत का था। हम जानते हैं कि भारत में जितने भी त्योहार एवं मांगलिक कार्य किए जाते हैं, उन सभी में केवल भारतीय काल गणना को ही प्रधानता दी जाती है। इसका आशय स्पष्ट है कि भारतीय ज्योतिष उस कार्य के गुण और दोष को भलीभांति प्रकट करने की क्षमता रखता है। किसी अन्य कालगणना में यह संभव ही नहीं है।
अब नव वर्ष को ही ले लीजिए। अंग्रेजी पद्धति से एक जनवरी को मनाया जाने वाला वर्ष नया कहीं से भी नहीं लगता। इसके नाम पर किया जाने वाला मनोरंजन फूहड़ता के अलावा कुछ भी नहीं है। आधुनिकता के नाम पर समाज का अभिजात्य वर्ग वह सब कुछ कर रहा है, जो सभ्य भारतीय समाज के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं है। विसंगति तो यह है कि हमारे समाज के यही लोग संस्कृति बचाने के नाम पर लंबे-चौड़े व्याख्यान दे देते हैं। भारतीय काल गणना के अनुसार मनाए जाने वाले त्योहारों के पीछे कोई न कोई प्रेरणा विद्यमान है। हम जानते हैं कि हिन्दी के अंतिम मास फाल्गुन में वातावरण भी वर्ष समाप्ति का संकेत देता है, साथ ही नव वर्ष के प्रथम दिन से ही वातावरण सुखद हो जाता है। हमारे ऋषि मुनि कितने श्रेष्ठ होंगे, जिन्होंने ऐसी काल गणना विकसित की, जिसमें कब या होना है, इस बात की पूरी जानकारी समाहित है।
पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया, किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत् के साथ ही जुड़ी रही। पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईसवी संवत् का बोलबाला हो और भारतीय तिथि- मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों, परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा महापुरुषों की जयंतियां आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईसवी संवत् के अनुसार नहीं।
भारतीय नव वर्ष का अध्ययन किया जाए तो चारों तरफ नई उमंग की धारा प्रवाहित होती हुई दिखाई देती है वहीं भारत माता अपने पुत्रों को धन धान्य से परिपूर्ण करती हुई दिखाई देती है। भारतीय नव वर्ष के प्रथम दिवस पूजा पाठ करने से असीमित फल की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि शुभ कार्य के लिए शुभ समय की आवश्यकता होती है और यह शुभ समय निकालने की सही विधा केवल भारतीय काल गणना में ही समाहित है। भारतीय नववर्ष का पहला दिन यानी सृष्टि का आरंभ दिवस, युगाद और विक्रम संवत् जैसे विश्व के प्राचीन संवत् का प्रथम दिन, श्रीराम एवं युधिष्ठिर का राज्याभिषेक दिवस, मां दुर्गा की साधना चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, प्रखर देशभक्त डॉ. केशवराव हेडगेवार जी का जन्मदिवस, आर्य समाज का स्थापना दिवस, संत झूलेलाल जयंती। इतनी विशेषताओं को समेटे हुए हमारा नव वर्ष वास्तव में हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। हिन्दू नववर्ष का प्रारभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार पितामह ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि निर्माण प्रारंभ किया था, इसलिए यह सृष्टि का प्रथम दिन है। इसकी काल गणना बड़ी प्रचीन है। सृष्टि के प्रारंभ से अब तक 1 अरब, 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार, 115 वर्ष से ज्यादा दिन बीत चुके हैं।
यह गणना ज्योतिष विज्ञान के द्वारा निर्मित है। आधुनिक वैज्ञानिक भी सृष्टि की उत्पत्ति का समय एक अरब वर्ष से अधिक बता रहे हैं। जो भारतीय काल गणना की शाश्वत उपयोगिता का प्रमाण देता है। हिन्दू शास्त्रानुसार इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ गणितीय और खगोलशास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारंभ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परंपराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत् को चलाने की परंपरा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)