त्योहार महज उत्सवधर्मिता भर नहीं, बल्कि इसके विशाल आंचल में संबंधित देश की संस्कृति आश्रय पाती है। पुन: संस्कृति के साथ कला, साहित्य, रीति-रिवाज और परंपराएं भी जुड़ी रहती हैं। इससे देश के स्वरूप का निर्माण होता है। त्योहार अपने साथ भाषा की लंबी परंपरा को भी जीवित रखते हैं। अभी समय है लोक आस्था के महान पर्व छठ पूजा का। तो बात इसी पर्व के संदर्भ में समझते हैं। एक समय था जब छठ पर्व का नाम लेते ही बिहार खास कर मगध क्षेत्र मानस पर कौंधता था। बाद के दिनों में पर्व-परंपरा पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी लोकप्रिय होने लगी। प्रत्यक्ष देव सूर्य की पूजा के कारण लोकमानस की आस्था का यह त्योहार केंद्र बना। क्योंकि यह पूजा शास्त्रीय पद्धति से इतर थी, बाज़ार के तामझाम से भी तब दूर थी, लोकाचार और लोक आस्था से जुड़ी थी, इसलिए लोक का एक बड़ा परास इसमें आता चला गया। आज छ्ठ पर्व राष्ट्रीय स्तर का हो चुका है, इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रकृति पूजा भारतीय परंपरा की विशेष पद्धति है। सूर्य की उपासना वैदिक काल से ही भारत में होती आयी है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में भी 12 प्रकार के आदित्य का उल्लेख आया है। बावजूद इसके छठ की पूजा पद्धति या छठी मैया की पूजा तथा इसके साथ सूर्य की उपासना के पीछे कुछ तथ्य हैं। जैसे मगध में ही इस पूजा की क्यों शुरुआत हुई आदि प्रश्नों से संबंधित।
शाक्य-द्वीप के पुरोहित भगवान सूर्य के बड़े उपासक थे और उन्हें मग ब्राह्मण के नाम से जाना जाता था। मग ब्रह्मण नाम का उल्लेख विष्णु पुराण में आता है। प्राचीन ईरानी भाषा में 'मगÓ का अर्थ था-'आग का गोलाÓ अर्थात सूर्य। माना जाता है किमग शब्द से ही मगध शब्द की उत्पत्ति हुई। देवताओं द्वारा, गयासुर के वक्ष-स्थल पर होने वाले यज्ञ के लिये सात योग्य पुरोहितों को गया लाया गया। इन सातों पुरोहितों के वंशज आज भी मगध क्षेत्र में शाकद्वीपीय ब्राह्मण, शकद्वीपीय ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण के नाम से जाने जाते हैं। इसका उल्लेख भीष्म-पर्व, भविष्य पुराण, ब्राह्मण पुराण में मिलता है। सभी सातों ब्राह्मण-गण समय के साथ धीरे-धीरे गया क्षेत्र तथा इसके निकटवर्ती जिलों में बस गए। जिसका उल्लेख 1937-38 ई. के गया जिला के गोविंदपुर अभिलेख से भी होता है। मग ब्राह्मणों की सूर्य-उपासना से प्रभावित होकर मगध क्षेत्र के मूल निवासियों ने भी सूर्य-आराधना व पूजा-पाठ शुरू कर दी।
सूर्यदेव प्रत्यक्ष देवता हैं इसलिए बगैर शास्त्रीय पद्धति के इस पूजा को लोक परंपरा से आसानी से स्थान मिल गया। चार दिवसीय इस अनुष्ठान के पीछे कई आयाम भी हैं। वैदिक कथाओं के अनुसार छठ महापर्व में माता षष्ठी यानी छठ मैया और भगवान सूर्य की पूजा आराधना की जाती है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक छठ मैया ब्रह्मा की मानस पुत्री और भगवान सूर्य की बहन हैं। षष्ठी देवी यानी छठ मैया संतान प्राप्ति की देवी हैं और शरीर के मालिक भगवान सूर्य हैं। माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना करते हुए खुद को दो भागों में विभाजित किया था। एक भाग पुरुष और दूसरा भाग प्रकृति के रूप में था। वहीं प्रकृति ने भी अपने आप को 6 भागों में विभाजित किया था। इसमें से एक मातृ देवी या देवसेना थी। वहीं छठ मैया देवसेना की छठी अंश हैं, इसलिए इन्हें छठी मैया कहा जाता है। इनकी पूजा संतान के जन्म के बाद छठे दिन भी की जाती है। छठ पूजा कई अर्थों में विशेष है। चाहे परंपरा को जीवित रखने की बात हो या भाषा को बचाए रखने की। भाषा में संबंधित भाषिक समुदाय की संस्कृति, सभ्यता, अनुभूति-अभिव्यक्ति, विचार के साथ-साथ आस्था और विश्वास भी समाहित होता है; वह अपने देश की संपूर्ण संस्कृति को संजो कर साथ चलती है। जैसे- आज के समय में हम सब सूचना के हाइवे पर हैं। सोशल मीडिया से भाषा संचालित हो रही है, कमोबेश। इसलिए अपनी भाषा के मूल शब्दों को हिंगलिश या हिंदी के शब्द तेजी से विस्थापित कराते जा रहे हैं। ऐसे में त्योहार एक ऐसा जरिया है जो शब्दों का एक विशाल भंडार अपने साथ संजोकर चलता है। खास कर जब ऐसा त्योहार हो जिसके विशेष गीतों की गेय परंपरा हो।
ऐसे में पूजा और परंपरा के गीतों के शब्दों को हम विस्थापित नहीं कर सकते हैं। जैसे-एक शब्द 'पियरियाÓ अर्थात पीले वस्त्र है, गीतों में आए उस शब्द के स्थान पर हम पीले वस्त्र अगर बोलेंगे तो गीत बिखर जाएगा या उसका सौंदर्य बोध बाधित होगा। ऐसे में छठ के गीतों में सैकड़ों ऐसे शब्द हैं, जो मगही, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका, मैथिली के साथ पूर्वाञ्चल की भाषा को मूल रूप में बनाए रखे हुए हैं। हालांकि ये शब्द धराऊँ हैं। अब 'धराऊँÓ भी एक देशज शब्द है जिसका अर्थ है विशेष प्रयोजन के लिए रखी गई वस्तु। यहाँ वस्तु के स्थान पर भाषा के शब्दों को समझ सकते हैं। ऐसे में जिन शब्दों का प्रयोग दैनिक जीवन में खास कर नयी पीढ़ी भूलती जा रही है, पारंपरिक गीत उन शब्दों के प्रयोग के माध्यम से भाषा में पुन: पुन: जान डाल देते हैं।
प्रकृति पूजा के अंतर्गत आने वाले इस पर्व की एक बड़ी विशेषता है कि यहाँ वैदिक देवियाँ प्रत्यूषा और उषा के साथ ही सूर्यदेव की पूजा की जाती है। प्रकृति की ये देवियाँ संचालनकर्ता की भूमिका में हैं तथा सूर्यदेव की ऊर्जा की स्रोत हैं। कर्नाटक के एक मंदिर विरूपाक्ष में सूर्य के दोनों ओर उषा और प्रत्यूषा को आकाश की ओर अपने धनुष से प्रकाश के तीर चलाते हुए दर्शाया गया है। यहाँ प्रत्यूषा गोधूलि की देवी हैं और उषा भोर की देवी हैं। यानि सांझ का अर्घ्य प्रत्यूषा देवी से साथ भगवान सूर्य को और भोर का अर्घ्य उषा देवी के साथ। उषा भोर का प्रतिनिधित्व करती है, जो हमें हर दिन निरंतर प्रकाश देती है, और हमें हमारी गतिविधियों के प्रति जाग्रत करती है। तो प्रत्यूषा सृष्टि के नियम के अनुसार 'साँझÓ के स्वागत का भी संदेश देती हैं, क्योंकि हम चाह कर भी प्रकृति की शांझ हो या जीवन की साँझ, उसे अनदेखा नहीं कर सकते हैं। शायद लोक पर्व की कड़ी में प्रकृति की एकमात्र ऐसी पूजा है जिसमें इस पूरी सृष्टि के समूल रूप, एक संपूर्ण चक्र की आराधना की जाती है।
(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा, महाराष्ट्र में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)