क्रिसमस और पाश्चात्य नव वर्ष पर ईसाई मिशनरियों का षड्यंत्र तथा सेक्यूलरों, वामियों की चुप्पी

डॉ. आनंद सिंह राणा

Update: 2023-12-24 20:22 GMT

होली पर पानी और महाशिवरात्रि पर दूध की बर्बादी का संज्ञान लेने वालों ने क्या कभी पूछा कि क्रिसमस और पाश्चात्य नव वर्ष पर घरों, दुकानों और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स को भिन्न-भिन्न रोशनियों से सजाने में कितनी मेगावॉट ऊर्जा 'बर्बादÓ हुई? क्या दीपावली पर पटाखों और दुर्गा-पूजा, गणेश-चतुर्थी आदि पर प्रतिमा विसर्जन से प्रदूषण बढ़ने की बात करने वालों ने इस ओर ध्यान दिया कि क्रिसमस पर सजावट-उपहारों में इस्तेमाल ज़हरीला प्लास्टिक या फिर करोड़ों असली पेड़ काटकर बने क्रिसमस-ट्री और ग्रीटिंग कार्ड्स से पर्यावरण पर कितना दुष्प्रभाव पड़ा? पुराने पारंपरिक भोजन के नाम पर दुनिया भर में करोड़ों- अकेले इंग्लैंड में प्रतिवर्ष 1 करोड़, तो अमेरिका में 2.2 करोड़ टर्की पक्षी मार दी जाती हैं। क्रिसमस के कारण टर्की-पालन एक वैश्विक उद्योग बन चुका है, जिसमें भूमि, जल और अन्य संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग होता है। क्या यह सब ईसा मसीह के मृदु व्यक्तित्व, उनके विनयशील जीवन और उनकी शिक्षाओं के अनुरूप है? जीसस क्राइस्ट यानी ईसा मसीह को ईश्वर की संतान माना जाता है, क्रिसमस का नाम भी उन्हीं के नाम पर पड़ा है, जिनकी जन्मतिथि को लेकर बहुत मतभेद रहे हैं , यहां तक कि बाइबिल में भी उनके जन्म की तारीख का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ईसाई धर्म में प्रचलित कथा के अनुसार ईश्वर ने अपने दूत जिब्रील जिसे गैब्रियल भी कहते हैं, उसे मरियम नाम की महिला के पास भेजा था। जिब्रील ने मरियम को बताया कि जो बच्चा उनके गर्भ से जन्म लेगा उसका नाम जीसस क्राइस्ट होगा। पवित्र ग्रंथ बाइबिल में वर्णित ल्यूक - मैथ्यू की गोस्पेल कथाओं के अनुसार बेथलेहेम में दिव्य हस्तक्षेप के बाद कुंवारी मेरी ने यीशु को जन्म दिया, क्या उक्त तथ्य की स्वीकार्यता पाश्चात्य देशों के वैज्ञानिक और मार्क्सवादी देंगे? यदि इस विश्वास को भी आधार बनाएं तो भी इसमें यीशु की जन्मतिथि का कोई उल्लेख नहीं है इसलिए 25 दिसंबर से 6 जनवरी एपीफेनी तक अलग-अलग जन्मतिथियां निर्धारित की जाती हैं। यह भी गौरतलब है कि ईसा के जन्म के तीसरी शताब्दी पश्चात 350 ईसवी में तत्कालीन पोप जूलियस- 1ने यीशु जयंती को 25 दिसंबर को मनाने की घोषणा की। यह व्यक्तिगत निर्णय था। उन दिनों पैगन (बुतपरस्त) रोमन वासी प्रति वर्ष सैटर्नालिया पर्व मनाते थे, जिस पर उत्सव के साथ प्रीतिभोज का आयोजन और उपहारों का आदान-प्रदान होता था। यह परंपरा आज हम क्रिसमस के समय भी देखते हैं, तब पोप जूलियस - 1ने बड़ी चतुराई से एक पैगन पर्व पर ईसाइयत की छाप लगा दी। संयोग देखिए कि सैटर्नालिया उन्हीं सैटर्न देवता (शनिदेव) को समर्पित था, जिन्हें प्रसन्न रखने हेतु सदियों से हिंदू पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं।

सेंटा क्लाज की भी कथा अजब है, इसमें यह बताया जाता है कि सैंटा क्लॉस(सैंट निकोलस)जिन्हें फादर क्रिसमस भी कहते हैं। उनका जन्म ईसा मसीह के लगभग 280 साल बाद तुर्किस्तान के मायरा शहर में हुआ था। सैंटा क्लॉज के पते के बारे में यह कहा जाता है वे उत्तरी धु्रव में रहते हैं वहां पर एक खिलौने की फैक्ट्री है जहां बौनों द्वारा ढेर सारे खिलौने बनाए जाते हैं। इस फैक्ट्री में क्रिसमस के लिए वर्ष भर खिलौने बनते हैं। दुनिया भर में सांता क्लाज के कई पते हैं, जहां पर बच्चे अपने पत्र भेजते हैं। आश्चर्य जनक बात तो यह है कि अमेरिकी खोजकर्ता राबर्ट पियरी ने सन् 1909 में उत्तरी धु्रव की खोज की परंतु वहां न ही सेंटा क्लाज मिले और न ही खिलौनों की फैक्ट्री! अब सेंटा की कहानी को क्या माना जाए, यह आप स्वयं तय कर सकते हैं। क्या तथाकथित सेक्यूलरों, न्यायाधीशों, वामियों और मोमबत्ती गेंग का मानवीय आधार पर कर्तव्य नहीं है कि दिवाली, होली जैसे त्योहारों पर तथाकथित 'कल्याणकारीÓ मुहिम छेड़ने के बाद अब मोर्चा क्रिसमस और पाश्चात्य नव वर्ष के लिए खोले और लोगों में जागरूकता फैलाएँ। आखिर पता होना चाहिए कि प्रकृति को इस एक दिन से कितना नुकसान होता है। क्रिसमस के बाद के दिन, दिल्ली के प्रदूषण का स्तर कैसा होता है? फिर भी दीवाली पर ज्ञान देने वाले बहुतायत होते हैं, क्रिसमस की आतिशबाजी पर कोई कुछ नहीं कहता। क्रिसमस ट्री इस अवसर पर घर की सजावट में चार चाँद लगाता है। बड़ी मात्रा में लोग कृत्रिम पेड़ों को घर में सजा देते हैं। अब समस्या ये है कि ऐसे लोगों के कारण क्रिसमस ट्री के नाम पर इतने पर बड़ी मात्रा में कृत्रिम क्रिसमस ट्री का उत्पादन किया जाता है। क्रिसमस जाने के बाद इसमें प्रयुक्त प्लास्टिक का सारा दुष्प्रभाव हमारे पर्यावरण को हजार सालों तक झेलना पड़ता है। इस कारण भी इको-फ्रेंडली क्रिसमस समय की माँग है।

अंतत: सच यही है कि जितने तर्क हिंदुओं के त्योहारों की आलोचना करने में दिए जाते हैं, अगर वैसे ही तर्क 25 दिसंबर, क्रिसमस पर्व पर दिए जाएँ तो स्पष्ट होता है कि क्रिसमस का बाजारीकरण, इस त्योहार का महिमामंडन केवल संस्कृतियों को ध्वस्त नहीं कर रहा है बल्कि देश, सीमा, धर्म की परवाह किए बिना जेबों को खाली करवा रहा और हमारे पर्यावरण को भी खोखला कर रहा है। वर्तमान परिदृश्य यह है कि भारत के मिशनरीज स्कूलों में भी क्रिसमस के नाम पर बच्चों से प्रोजेक्ट बनवाए जाते हैं। अच्छा खासा पैसा खर्च करवाकर इस त्योहार के प्रति उनके मन में रुझान पैदा किया जाता है। इसी प्रकार पाश्चात्य नव वर्ष मनाने की कहानी रची गई है। पाश्चात्य नव वर्ष 1 जनवरी से प्रारंभ होता है । यह कितना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाश्चात्य नव वर्ष का शुभारंभ अवांछनीय कुकृत्यों से होता है। फलस्वरुप सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत वशीभूत होकर पश्चिमी देशों का अनुकरण कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाने की मुहिम में भारत के तथाकथित सेक्युलर,न्यायाधीश ,पर्यावरणविद्, वामी और मोमबत्ती गेंग के विचारक सम्मिलित होकर चुप्पी साध लेते हैं। यह अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। आलेख में बहुत से तथ्य और आंकड़े गूगल से साभार हैं। अत: आलेख को वैज्ञानिकता के आलोक में पर्यावरण, स्वास्थ्य और प्रकृति संरक्षण की दृष्टि से देखा जाए तो श्रेयस्कर होगा।

(लेखकश्रीजानकीरमण महाविद्यालय जबलपुर के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)

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