भारत राष्ट्र ने तीन दिन पूर्व ही सर्वांग दृष्टि से राष्ट्रभाषा की अधिकारिणी, किन्तु केन्द्रीय कार्यालयों में राजभाषा के रूप में सीमित तथा इच्छानुकूल अत्यल्प प्रयोग एवं मनगढ़न्त विराट आँकड़ों के मायाजाल में फँसी हिन्दी के लिए चिह्नित एक अधिकारी दिवस को उत्सव के रूप में मनाया। इसी क्रम में रस्मी भ्रान्तियों के निर्वाह-स्वरूप कहीं-कहीं हिन्दी पखवाड़ा, तो कहीं हिन्दी माह मनाने की रस्म अदायगी जारी है। बहुतांश स्थानों पर यह मिशन कमीशन भाव के साथ पूर्ण हुआ अथवा हो रहा है। कुलमिलाकर हिन्दी पुन: तात्कालिक रूप से चर्चा में है, किन्तु हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दृष्टि से उस प्रकार का, अर्थात् आमूलचूल परिवर्तन करने वाला कोई प्रभावकारी अभियान अभी तक दृष्टिगोचर नहीं होता। यह पढ़ते हुए यदि आये दिन सोशल मीडिया और स्थानीय समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने वाले हिन्दी पुरस्कारों अथवा हिन्दी के नाम पर बनायी गयी सभा-संस्थाओं की रस्मी स्थापनाओं पर आपका ध्यान जाए और आप यह मान लें कि इससे हिन्दी को बढ़ावा मिल रहा है या हिन्दी का किसी भी रूप में भला हो रहा है, तो थोड़ा संभल जाना चाहिए क्योंकि तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो ऐसे सभा-संस्थान चन्द लोगों के लिए रोजगार के अवसर से बढ़ कर विशेष कुछ भी नहीं हैं। ऐसी सभा-संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों में एक विचित्र प्रकार का अहंभाव व्याप्त है। जबकि बहुतांश की पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं है और बहुतांश को नियमत: पढ़ना-लिखना भी नहीं आता। ऐसी सभा-संस्थाओं के कर्मचारी जाति, क्षेत्र, लिंग, धर्म इत्यादि को कवच बना कर ओछी राजनीति में निमग्न रहते हैं और निम्नातिनिम्न स्तर पर जाकर आकण्ठ कीचड़ में आनन्दित रहते हैं। वहीं, हिन्दी के नाम पर पुरस्कारों की लुभावनकारी नीति विचित्र प्रकार के तुष्टीकरण और आत्ममुग्धता को बढ़ावा देने वाली है। इसके लिए अतीत (वर्तमान तक) में प्रदान किये गये पुरस्कारों के आलोक में हिन्दी की गति का सिंहावलोकन करने से हिन्दी प्रचार-प्रसार के मिथ्या अभियान का पूरा परिदृश्य (व्यक्त-अव्यक्त) स्पष्ट होगा।
पिछले कुछ वज्रपातों में मैंने हिन्दी वालों (?) के मिथ्या अभिजात्य भाव, अहंमन्यता और मिशनरियों के सर्वत्र विस्तीर्ण मायाजाल पर कटाक्ष करते हुए सनातन विरोधियों के स्वार्थ एवं प्रपंच को रेखांकित किया है। मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह दृढ़तापूर्वक मानता हूँ कि किसी भी कार्य की फलदायी परिणति के लिए 'मिशनरी भावÓ से काम करने की आवश्यकता है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में 'मिशनरी भावÓ का अभाव है। ऊपर जब मैंने 'मिशनरी भावÓ शब्द का सचेष्ट प्रयोग किया है, तो जानने-समझने की आवश्यकता है कि मिशनरियों ने सन् 1800 ई. से अब तक किस प्रकार विधिवत अपना जाल पूरे भारतवर्ष में फैलाया है। आज भारत में ईसाइयत पर्याप्त व्याप्त है। ऐसी कौन-सी माया है कि सरकारों के साथ-साथ जनता जनार्दन भी मिशनरियों के मोहपाश में बँध जाती है और उदयनिधि स्टालिन जैसा मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाला अत्यन्त सहजता से सनातन उन्मूलन की बात कर जाता है! स्टालिन की पार्टी हिन्दी का मिशनरी भाव से विरोध करके ही सत्तासीन हुई है। मैं कहता हूँ कि यह सब कुछ मिशनरी भाव के विस्तार का ही परिणाम है। हिन्दी वाले हिन्दी के पुरस्कार, नौकरी इत्यादि पाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। उन्हें भारत की आत्मा पर होने वाले प्रहार से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। ऐसे पुरस्कार वीर हिन्दी प्रेमी कम, और लूनैटिक अधिक प्रतीत होते हैं। ध्यान रहे कि स्टालिन जैसे मिशनरी भाव से काम करने वाले मिशनरियों के लक्ष्य को प्रति क्षण प्राप्त करने में जुटे रहते हैं और हिन्दी के अतिउत्साही प्रेमी (लूनैटिक) यह कहते नहीं थकते कि मिशनरियों ने हिन्दी का बहुत भला किया। उन्होंने हिन्दी सीखी और हमारा उद्धार किया। इसे मूर्खता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। मूर्खता इस कारण कि आँखों के अन्धे हैं कि सनातन (भारत) उन्मूलन की बात करने वालों को हिन्दी का कथित रूप से भला करने वाली मिशनरियों का खुला समर्थन है। वास्तव में वे हिन्दी ही नहीं, प्राय: भारतवर्ष की सभी भाषाओं और जातिगत भेदाभेद का उपयोग (उपभोग) कर भारत की आत्मा पर सतत आघात कर रहे हैं। उनका मिशन अत्यन्त स्पष्ट और अचूक है।
हिन्दी विरोधी पार्टी के मन्त्री उदयनिधि स्टालिन ने जिस आधार पर सनातन उन्मूलन की बात कही है, उस दृष्टि का विहंगावलोकन किया जाय तो सर्वप्रथम तमिलनाडु की जातीय बहुलता का अवलोकन कर लेना चाहिए। तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों की जनसंख्या अनुमानत: 65-70 प्रतिशत मानी जाती है। यह प्रमाणित सत्य है कि कथित पिछड़ी जातियों में असन्तोष उत्पन्न कर उन्हें सनातन (हिन्दू) से पृथक् करने के प्रयास समय-समय पर होते हैं। वे स्वयं को पहले सनातन से पृथक् अर्थात् द्रविड़ मान लेते हैं और फिर सनातन विरोध के मार्ग से ही कथित पिछड़ी जातियों के जीवन में मिशनरियों का प्रवेश होता है। इस प्रकार येनकेनप्रकारेण उनका कन्वर्जन होता रहता है। कनवर्जन के लिए मिशनरियों पर तथाकथित सेक्यूलर सरकारों का वरदहस्त है। तमिलनाडु में तो हिन्दी को सनातनियों की भाषा के रूप में ही देखा जाता है। ऐसे में, हिन्दी विरोध से भी लक्ष्य सिद्धि हो जाती है। ध्यान रहे कि मिशनरियाँ हिन्दी विरोध के वातावरण में सनातन विरोध से काम चला लेती हैं और हिन्दी पट्टी में हिन्दी के उपयोग से अपना विस्तार करती हैं। अर्थात् हिन्दी पट्टी में हिन्दी के उपयोग से कन्वर्जन और हिन्दी विरोधी क्षेत्रों में सनातन विरोध से कन्वर्जन। इसीलिए कहा जाता है कि दृष्टि स्पष्ट होगी तो लक्ष्य भी स्पष्ट एवं सहज साध्य होगा। मिशनरियों का मिशन इसीलिए सफल है। हिन्दी को लेकर चूँकि कोई मिशन ही नहीं है तो हिन्दी दिवस मना कर और पुरस्कार बाँट कर सन्तोष कर लिया जाता है।
मुझे स्मरण नहीं कि मिशनरियों ने कभी भी, कहीं भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा रूप में स्वीकार करते हुए उसका प्रचार-प्रसार किया है। वास्तव में मिशनरियां हिन्दी में हिन्दी के लिए कुछ कहती ही कहां हैं? उनके लिए हिन्दी लौण्डी जैसी है, जिसका यथेच्छा समय-समय पर सुविधाजनक रूप में उपभोग किया जा सकता है। ध्यान रहे कि हिन्दी ईसा मसीह के वचनों को हिन्दी भाषी मानस में रोपने का एक साधन मात्र है। दो मत नहीं कि साधन केवल उपभोग के लिए ही होते हैं। अत: हिन्दी सन् 1800 ई. से ही मिशनरियों के उपभोग का साधन बनी हुई है। ध्यातव्य है कि सेरामपोर या सिरामपुर मिशन भारत की पहली ईसाई मिशनरी संगठन था। विलियम कैरे और उसके दो सहयोगियों ने 10 जनवरी 1800 को इस मिशनरी की स्थापना की थी। प्रमाणित है कि इस मिशनरी ने हुगली जिले में दो स्थानों से ईसाइयत का प्रचार आरम्भ किया था। ईसाइयत के इसी प्रचार में हिन्दी साधन बन कर उभरी। क्या कहीं, कभी मिशनरियों द्वारा हिन्दी दिवस मनाने के समाचार भी प्रकाशित हुए हैं? मेरे प्रिय भारतवासियो! हिन्दी प्रेमियो! हिन्दी प्रचार-प्रसार के मिथ्या जगत् से बाहर भी झाँक कर देखने का प्रयास कीजिए। मिशनरियों ने भारतीय भाषाओं की उपयोगिता जान कर उनका भरपूर उपभोग किया है। औपनिवेशिक समय से लेकर वर्तमान बाज़ारवादी (उपभोक्तावादी) समय में हिन्दी प्रचार-प्रसार मिथ्या है। भ्रम है। असामान्य प्रेमभाव है। आत्मरति या बौद्धिक मैस्टर्बेशन है। इससे हिन्दी का भला नहीं हो सकता। सृजनशीलता का संस्कार नहीं हो सकता। उपभोक्तावादियों का तात्कालिक भला हो सकता है, परन्तु उनके साथ एक घनघोर समस्या है, वे भोगोपरान्त साधन से मुँह फेर लेते हैं अथवा यथा भोगेच्छा पुन:-पुन: उसका भोग करने में ही विश्वास रखते हैं। मैं देख (जान) रहा हूँ कि हिन्दी दिवस समाप्त हो चुका है। वह महाभोगी मिशनरियाँ अच्छी कि उनकी भोगवादी दृष्टि पूरे वर्ष भर जागृत रहती है।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)