इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी प्रवासियों की भीड़ से निपटने का वादा कर सत्ता में आई थीं, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाई हैं। ट्यूनीशिया के द्वारा प्रवासियों पर कार्यवाही और लीबिया में जारी अरजकता एवं बाढ़ के कारण बड़ी संख्या में लोग नौकाओं के द्वारा इटली पहुंच रहे हैं। इटली के एक द्वीप पर 24 घंटे की अवधी में लगभग 7000 से ज्यादा शरणार्थी पहुंचे हैं। यहां बड़ी संख्या में संकटग्रस्त उत्तर अफ्रीका से शरणार्थी आ रहे है। एक साल के भीतर इटली में करीब सवा लाख शरणार्थियों से भरी नौकाएं पहुंची हैं। इन प्रवासियों ने इटली की अर्थव्यवस्था और जनसंख्यात्मक घनत्व को संकट में डालने का काम कर दिया है। युद्ध और आपदा संबंधी प्रवासी इस समय अनेक देशों के लिए संकट बने हुए हैं। भारत भी इस संकट से ग्रस्त है।
संयुक्त राष्ट्र में शरणार्थियों के मामलों से जुड़े 'यूनाइटेड नेशन्स हाई कमिशनर और रिफ्यूजी' (यूएनएचसीआर) की ग्लोबल ट्रेंडस रिपोट्स को जिनेवा में जारी करते हुए संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी के प्रमुख फिलिपो ग्रैंडी ने कहा कि 'उत्पीड़न और मानवाधिकारों के उल्लंघन के कारण करीब 11 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा है। यह हमारी वैश्विक स्थिति पर कलंक है। 2022 में करीब 1.9 करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से 1.1 करोड़ से अधिक लोगों ने यूक्रेन पर रूस के आक्रामण के चलते अपना घर छोड़ा। द्वितीय विष्व युद्ध के बाद से पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोग जंग के कारण विस्थापित हुए है। यह आपात स्थिति का संकेत है। कुछ समय के भीतर ही 35 प्रकार की आपात स्थितियां सामने आई हैं, जो बीते कुछ सालों की तुलना में तीन से चार गुना अधिक हैं। इनमें से कुछ ही मीडिया की सुर्खियां बनी, बांकी नजरअंदाज कर दी गई।' ग्रैंडी ने तर्क दिया कि 'सूडान से पश्चिम नागरिकों को निकाले जाने के बाद वहां हो रहे संघर्ष की खबर अधिकांश अखबारों से गायब रहीं। सूडान में इस संघर्ष के चलते अप्रैल 2023 के बाद से अब तक 20 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। वहीं कांगो गणराज्य, इथोपिया और म्यांमा में संघर्ष के चलते करीब 10-10 लाख लोग अपने मूल आवास और देश छोड़ने को विवश हुए है।' हालांकि उन्होंने सकारात्मक जानकारी देते हुए संतोश जाहिर किया कि '2022 में एक लाख 14 हजार शरणार्थियों का पूनर्वास किया गया, जो 2021 की तुलना में दोगुना है। लेकिन यह संख्या अब भी समुद्र की मात्र एक बुंद के बराबर है।'
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (एनएचसीआर) ने रूस-यूक्रेन युद्ध के दस दिन पूरे होने के बाद रिपोर्ट दी थी कि हवाई एवं मिसाइल हमलों से बचने के लिए दस लाख से ज्यादा नागरिक यूक्रेन से पलायन कर चुके हैं। बीती एक शताब्दी में इतनी तेज गति से कहीं भी पलायन देखने में नहीं आया है। देश छोड़ने वाले लोगों का यह आंकड़ा यूक्रेन की कुल आबादी का दो प्रतिशत से अधिक है। ये लोग रोमानिया, पोलैंड, मोलडोवा, स्लोवाकिया, हंगरी और बेलारूस में शरण ले रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 6.5 लाख लोग पोलैंड की शरण में हैं। कुछ लोग निकटवर्ती रूस के सीमा क्षेत्र में भी चले गए हैं। सबसे कम शरणार्थी बेलारूस पहुंच रहे हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बेलारूस रूस का सहयोगी देश है। विष्व बैंक के मुताबिक 2020 के अंत में यूक्रेन की आबादी 4.4 करोड़ थी। एनएचसीआर ने आशंका जताई है कि यदि हालात और बिगड़ते हैं तो 40 लाख से भी ज्यादा यूक्रेनी नागरिकों को पड़ोसी देशों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। युद्ध शरणार्थियों ने इससे पहले 2011 में सीरिया में छिड़े गृहयुद्ध के चलते बड़ी संख्या में पलायन का सिलसिला शुरू हुआ था, जो 2018 में अमेरिका द्वारा किए हमले तक जारी रहा था। लेकिन अब युद्ध चलते रहने के सवा साल बाद यूक्रेन के एक लाख दस करोड़ लोग युद्ध शरणार्थी का दंश झेल रहे हैं।
अमेरिका ने अपने मित्र देश ब्रिटेन और फ्रांस के साथ मिलकर सीरिया पर मिसाइल हमला बोला था। सीरिया में मौजूद रासायनिक हथियारों के भंडारों को नष्ट करने के मकसद से 105 मिसाइलें दागी गईं थीं। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की ये मिसाइलें राजधानी दमिश्क और होम्स शहरों पर बरसाई गईं थी। इसमें रासायनिक हथियारों के भंडार और वैज्ञानिक शोध केंद्रों को निशाना बनाया गया था। इन हमलों के परिणामस्वरूप कई इमारतों में आग लग गई थी। दमिश्क धुएं के गुबार से ढक गया था। ऐसे ही दृश्य हम आजकल यूक्रेन में रूसी हमले के परिणामस्वरूप देखने में आ रहे हैं। हमले में कितनी जनहानि हुई थी, यह तो आजतक तय नहीं हुआ, लेकिन सीरिया ने इसे अंतरराष्ट्रीय कानून और अपनी संप्रभुता का उल्लंघन बताया था। वहीं रूस, चीन और ईरान ने कड़ा विरोध जताया था। इनका कहना था कि पहले रासायनिक हथियार रखने और उनका इस्तेमाल किए जाने तथा किसके द्वारा इस्तेमाल किए गए, इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए थी ? अमेरिका ने ईराक पर भी जैविक एवं रासायनिक हथियारों की उपलब्धता संबंधी आशंका के चलते हमला बोला थ। लेकिन बयानबाजी से इतर युद्ध रोकने की ठोस पहल किसी देश ने नहीं की थी।
करीब साढ़े सात साल चले सीरिया के युद्ध में पांच लाख से भी ज्यादा लोग मारे गए थे। एक करोड़ लोगों ने तत्काल शरणार्थी के रूप में विस्थापन का दंश झेला, इनमें से 67 लाख आज भी अनेक देशों में शरणार्थी बने हुए हैं। ये शरणार्थी जिन देशों में रह रहे हैं, उनमें भी अपनी इस्लामिक कट्टरता के चलते संकट का सबब बने हुए हैं। जर्मनी ने सबसे ज्यादा विस्थापितों को शरण दी थी। अब यही जर्मनी इनके धार्मिक कट्टर उन्माद के चलते रोजाना नई-नई परेशानियों से रूबरू हो रहा है। दरअसल 7 अप्रैल 2018 को 70 नागरिकों की रासायनिक हमले से मौत के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने जबावी कार्यवाही करने का वीड़ा उठाया था। अपनी सनक के चलते इसे उन्होंने अंजाम तक भी पहुंचा दिया था। शायद इसीलिए रूस के उप प्रधानमंत्री आर्केडी वोरकोविच ने तब ट्रंप को जवाब देते हुए कहा था कि 'अंतरराष्ट्रीय संबंध एक शख्स के मिजाज पर निर्भर नहीं होने चाहिए ?' दरअसल रासायनिक हमले में सरीन और क्लोरीन गैस का प्रयोग किया जाता है। नतीजतन इसके प्रभाव में आने वाले व्यक्ति की कुछ ही समय में मौत हो जाती है। लेकिन यूक्रेन से छिड़े युद्ध में ट्रंप जैसा मिजाज ब्लादिमीर पुतिन भी दिखा रहे हैं और शक्तिशाली अमेरिका जैसे देश इस आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। इसी कारण युद्ध समाप्ति की बजाय अनवरत बना हुआ है।
यूक्रेन की एनएचसीआर प्रतिनिधि कैरोलिना ने कहा है कि 'दुनिया उन लोगों के आंकड़ों पर गौर कर रही है, जिन्होंने पड़ोसी देशों में शरण ली हुई है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि प्रभावित लोगों की सबसे बड़ी संख्या यूक्रेन के भीतर अभी भी मौजूद है। हमारे पास इन आंतरिक विस्थापि नागरिकों के कोई विष्वसनीय आंकड़े नहीं है।' एनएचसीआर का अनुमान है कि करीब लाखों लोग देश के भीतर ही विस्थापन का दंश और दहशत झेलने को विवश हैं, जो फिलहाल रेल, बस, कार या बंकरों में रहते हुए प्राण बचाने की कोशिश में लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी की वैश्विक रिपोर्ट की मानें तो 20 साल पहले की तुलना में विस्थापन का संकट दोगुना बढ़ गया है। 2019 तक आंतरिक रूप से विस्थापितों की कुल संख्या 4 करोड़ 13 लाख थी। इनमें से 1 करोड़ 36 लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें 2018 में ही विस्थापन का दंश झेलना पड़ा था। यह सही है कि विकसित या पूंजीपति देश अपने वर्चस्व के लिए युद्ध के हालात पैदा करते हैं, जैसा कि हम यूक्रेन के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका और रूस के वर्चस्व की लड़ाई देख रहे हैं। ये वही देश हैं, जिन्होंने 1993 तक तीसरी परमाणु शक्ति रहे देश यूक्रेन को 1994 में बुडापेस्ट परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कराकर उसके सभी परमाणु हथियार समुद्र में नश्ट करा दिए थे। अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन को इस समझौते के लिए राजी किया था और इन्हीं देशों के साथ रूस ने भी सहमति जताते हुए यूक्रेन की सुरक्षा की गारंटी ली थी। लेकिन अब रूस ने सीधा यूक्रेन पर हमला बोल दिया और अमेरिका व ब्रिटेन दूर खड़े रहकर न केवल तमाशा देख रहे हैं, बल्कि उसे उकसाकर पूरी तरह बर्बादी के कगार पर पहुंचाने का कुत्सित काम भी कर रहे है। यदि यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार नष्ट न किए होते तो उसे शायद युद्ध से पैदा होने वाली इस बर्बादी का सामना न करना पड़ता और न ही उसके एक करोड़ दस लाख से अधिक नागरिक विस्थापन का संकट झेलने को मजबूर हुए होते? बावजूद यही वह अमीर देश हैं, जो सबसे ज्यादा युद्ध व पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देते हंैं। 2015 में सीरिया में जो हिंसा भड़की थी, उससे बचने के लिए लाखों लोगों ने जान जोखिम में डालकर भूमध्य सागर को महिलाओं व बच्चों के साथ पार किया और ग्रीस एवं इटली में शरण ली थी। इन दोनों देशों ने तब कहा था कि समय के मारे शरणार्थियों को आश्रय देने की नीति बनाई जाना आवश्यक है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)