सत्ता तक पहुंचने का कुचक्र

रमेश शर्मा

Update: 2023-10-13 20:12 GMT

जाति आधारित जनगणना पर देश में मानो राजनैतिक तूफान उठ आया है। यह तूफान ऐसे समय उठा है जब 2024 के लोकसभा चुनाव की दस्तक हो गई और दूसरी ओर सनातन धर्म को समाप्त करने की खुली घोषणा भी। कुछ राजनैतिक दल इस तूफान को सत्ता तक पहुँचने का मार्ग बनाना चाहते हैं और साथ ही उन तत्वों को सुरक्षा कवच भी देना चाहते हैं जो सनातन धर्म को समाप्त करने पर उतारू हैं।

यह तूफान अचानक नहीं उठा है। इसे योजना पूर्वक उठाया गया है । इसे उठाने वाले वे क्षेत्रीय दल हैं जिनकी राजनीति का आधार जाति, वर्ग भाषा, और क्षेत्र है। ये सभी दल और उनके नेता राजनीति को राष्ट्रनीति से ऊपर मानते हैं। उनका उद्देश्य राष्ट्ररक्षा या समाज सेवा नहीं केवल सत्ता है। अब उनके साथ दिल्ली की सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रही काँग्रेस भी मिल गई है। इन सभी राजनैतिक दलों ने गठबंधन तो बना लिया है फिर भी सफलता संदिग्ध लग रही है। इसका कारण भाजपा के नेतृत्व में काम कर रही नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा किये गये वे काम हैं जिससे देश के भीतर सरकार की साख बढ़ी और दुनियां में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। यह राष्ट्रीय भाव के जागरण और समाज के एकत्व का ही प्रभाव है कि इन साढ़े नौ वर्षों में देश के विकास और साख में गुणात्मक वृद्धि हुई। इससे देश की जनता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अटूट विश्वास उत्पन्न हुआ। इस विश्वास ने मोदी सरकार को 2024 में एक बार फिर सफलता की संभावना स्पष्ट कर दी है। लगता है इसी वातावरण में सेंध लगाने के लिये कुछ राजनैतिक दलों ने समाज में जातीय भाव प्रबल करके सत्ता तक पहुँचने की योजना बनाई है। समाज को बाँटकर सत्ता प्राप्त करने का फार्मूला नया नहीं है। यह वही योजना है जो भारत पर राज करने के लिये विदेशियों ने बनाई थी। पहले रियासतों को बाँटकर शासन करने का काम सल्तनतकाल में हुआ। फिर समाज को बांटकर राज्य करने का फार्मूला अंग्रेजों ने बनाया। अंग्रेजों ने अपने फार्मूले को छुपाया भी नहीं था। उन्होंने स्पष्ट कहा था 'डिवाइड एण्ड रूलÓ अर्थात बाँटों और राज करो। 1857 की क्रांति में भारतीय समाज की एकजुटता बहुत स्पष्ट थी। इसलिए अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को सुरक्षित करने के लिये जाति आधारित समाज विभाजन का षड्यंत्र किया। एक ओर कुछ लोगों को तैयार करके समाज में परस्पर नफरत फैलाने का काम हुआ और दूसरी ओर 1872 में जाति आधारित जनगणना करने का निर्णय हुआ। वायसराय मैयो के निर्देशन में जाति आधारित जनगणना के आँकड़े पहली बार 1881 में सामने आये जो 1931 तक चला। 1941 की जनगणना भी जाति आधारित हुई थी पर इसके आकड़े जारी नहीं हुये ।

स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना 1951 के लिये भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी पर लगभग सभी नीति निर्धारकों ने इस माँग को नकार दिया। इसके लिये गाँधीजी के सिद्धांत पर अमल करना उचित समझा गया। गाँधीजी ने अपने स्वराज की कल्पना में कहा था- स्वराज सबके कल्याण के लिये होगा, स्वराज में जाति और धर्म का स्थान नहीं होगा। जाति आधारित जनगणना का मुखर विरोध सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था जिनका समर्थन पं जवाहरलाल नेहरू, बाबासाहब अंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी किया था। अंबेडकर जी और डा. लोहिया का तो पूरा अभियान ही जातिवाद को मिटाने का था । लेकिन अब उन्हें अपना आदर्श बताकर राजनीति करने वाले दल भी जाति आधारित जनगणना कराने पर अड़े हुये हैं।

जातीय विमर्श खड़ा करके एक तीर से दो निशाने लगाये गये हैं । एक तो जातीय भेद पैदा करके अपनी सत्ता का मार्ग बनाना और दूसरा सनातन धर्म पर हमला करने वालों को सनातन समाज की नजरों से दूर करना । जबसे जाति आधारित जनगणना की माँग उठी तब से समाज का ध्यान उन लोगों की ओर से हट गया जो सनातन धर्म को समाप्त करने का आव्हान कर रहे थे। जब सनातन धर्म को समाप्त करने का आव्हान हुआ था, तब संपूर्ण सनातनी समाज अपने धर्म की रक्षा के लिये भावनात्मक रूप से एकजुट होने लगा था। इस भावनात्मक एकजुटता को देखकर कुछ विपक्षी नेता मंदिर जाने, पूजा पाठ करने, संतों के सम्मान आदि के फोटो जारी करने का काम करने लगे थे। पर जबसे जाति आधारित जनगणना की माँग उठी तब से सबकी नजर में वे लोग ओझल हो गये जो सनातन धर्म को समाप्त करने का कुचक्र कर रहे हैं। इसलिए इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति आधारित जनगणना की माँग उठाना और बिहार में जाति आधारित आकड़े जारी करना एक निश्चित योजना का हिस्सा है । ताकि आगामी चुनावों में कुछ रास्ता बने और साथ ही सनातन द्रोहियों का बचाव भी हो सके ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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