दिनों दिन बढ़ता ओजोन परत के क्षरण का खतरा

ज्ञानेन्द्र रावत

Update: 2023-09-15 20:42 GMT

ओजोन परत के कारण ही धरती पर जीवन संभव है। इसके महत्व को समझते हुए ही आज से 36 बरस पहले 1987 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मांट्रियल समझौते पर हस्ताक्षर की तारीख को चिन्हित करते हुए 16 सितम्बर को अंतरराष्ट्रीय ओजोन दिवस के रूप में घोषित किया था। सच तो यह है कि जीवन के लिए महत्वपूर्ण वायुमंडल में ओजोन परत की सबसे पहले खोज 1867 में जर्मन-स्विस वैज्ञानिक शानबीन ने की और उसके एक साल बाद इसकी पुष्टि एन्ड्रयूज ने की। इसका श्रेय 1913 में फ्रांस के मौसम विज्ञानी फैबरी चार्ल्स और हैनरी बुसोन को और इसके गुणों का विस्तार से अध्ययन के लिए ब्रिटेन के मौसम विज्ञानी जी एम डी डोबसन को देते हैं जिन्होंने स्पैक्ट्रोफोटोमीटर को विकसित किया जिसने सबसे पहले स्टै्रटोस्फेरिक ओजान को भूतल से नापा। तब सौर स्पैक्ट्रम मापन का उपयोग सूर्य और पृथ्वी के बीच के मार्ग में ओजोन की मात्रा का निर्धारण करने के लिए किया गया था। यह एक हल्की नीली गैस है जिसमें तेज अप्रिय गंध होती है जिसे शानबीन ने ग्रीक शब्द ओजीन के बाद ओजोन कहा जिसका अर्थ है गंध करना। यह परत सूर्य के उच्च आवृत्ति के पराबैंगनी प्रकाश की 90 फीसदी मात्रा को अवशोषित कर लेती है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए बेहद हानिकारक है।

आज उसी ओजान परत में हुए छेद में बढो़तरी होते जाने से आर्कटिक में गर्मी बढ़ने, बर्फ के पिघलने की दर में तेजी आने, त्वचा के कैंसर के मामलों में और इसका घातक असर मेलोनोमा के मामले में बेतहाशा बढो़तरी होने का खतरा मंडरा रहा है। इसके चलते मानव जीवन, जीव जंतु, पेड़-पौधों और पारिस्थितिकी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। एक अध्ययन के मुताबिक यूवीबी विकिरण में दस फीसदी की बढो़तरी पुरुषों में मेलोनोमा के मामलों में उन्नीस फीसदी और महिलाओं में सोलह फीसदी की बढो़तरी करती है। चिली के पंटा एरिनास में किया गया अध्ययन यह साबित करता है कि ओजोन में कमी और यूवीबी विकिरण में बढो़तरी के साथ मेलोनोमा के मामलों में 56 फीसदी और गैर मैलोनोमा स्किन कैंसर के मामलों में 46 फीसदी की बढो़तरी हुई है। फसलों की वृद्धि भी प्रभावित हुई है सो अलग। इसके दुष्प्रभाव स्वरूप लोगों का स्वास्थ्य खराब होगा, वंशानुगत बीमारियां, चर्म रोग, कैंसर जैसी घातक बीमारियां बढ़ेंगीं, आंखों पर दुष्प्रभाव होगा, मोतियाबिंद के मामले बढ़ेंगे और जलजीवन बुरी तरह प्रभावित होगा। तात्पर्य यह कि यदि हम धरती के ओजोन परत रूपी इस सुरक्षा कवच को बचाने में नाकाम रहे तो धरती पर जीवन की कल्पना बेमानी होगी। क्योंकि पृथ्वी के वायुमंडल की स्ट्रैटोस्फेयर परत के नीचे के हिस्से में बडी़ मात्रा में ओजोन पायी जाती है, इसे ही ओजोन परत कहते हैं। इसके क्षरण का मूल कारण प्रदूषण है जिसमें मानवीय दखलंदाजी की प्रमुख भूमिका है। इसी कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सीधे-सीधे टकराती हैं जो तबाही का कारण बनती हैं। इस परत के क्षरण में वाहनों से निकलने वाले धुंए, रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशनर से निकलने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस की महती भूमिका है।

दरअसल मानवीय गतिविधियां क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस का बनाती हैं जो ओजोन परत का निर्माण करती है। सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें जिन्हें अल्ट्रावायलेट किरणें भी कहते हैं, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की ओजोन परत को तोड़कर क्लोरीन का निर्माण करती है। क्लोरीन के कण ओजोन के मालीक्यूल्स को तोड़कर उसका क्षरण करते हैं। ओजोन परत के क्षरण से धरती पर सूर्य की पराबैंगनी किरणों का आगमन बढ़ जाता है। नतीजतन पर्यावरण तो प्रभावित होता ही है, मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है, जानलेवा बीमारियां फैलती हैं और पारिस्थितिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कारण पृथ्वी की परत के ऊपर की ओजोन हमारे लिए रक्षा कवच का काम करती है जबकि पृथ्वी की परत के नजदीक की ओजोन हमारे लिए स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों का सबब बनती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती के चारों ओर ओजोन की परत जितनी मोटी होगी, सूर्य की पराबैंगनी किरणों से उतनी ही धरती बची रहेगी। ओजोन के बिना धरती पर जीवन संभव नहीं है। वैज्ञानिकों के अनुसार ओजोन के लिए खतरनाक गैसों के प्रयोग एवं रिसाव में 90 फीसदी की कटौती तथा वैकल्पिक गैस ईजाद करने से समस्या का समाधान नजर नहीं आता। इसके बाबजूद उत्तरी धु्रव में आर्कटिक पर ओजोन में बडा़ छेद हो गया है। यह छेद करीब दस लाख वर्ग किलोमीटर का हो गया है। फिर भी यह अंटार्कटिका के छेद से बहुत छोटा है जो तीन-चार महीने में दो से ढाई करोड़ वर्ग किलोमीटर तक फैल जाता है। इसका अहम कारण मौसम में हो रहा बदलाव है। फिर भी इसकी मात्रा दक्षिणी धु्रव की तुलना में काफी कम है। जबकि समूचे शोध- अध्ययन इसके जीते जागते सबूत हैं कि दुनिया में दावे कुछ भी किये जायें प्रदूषण में दिन ब दिन बढो़तरी हो रही है, उसपर अंकुश का दावा बेमानी है। जबकि सच यह है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर ओजोन परत पर पड़ा है जिससे उसके लुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है।

जरूरत है कि हम उपभोगवादी संस्कृति को त्यागकर पृथ्वी को शस्य, श्यामला और समस्त चराचर जीवों के लिए सुरक्षित बनाएं। इसके लिए हम अपनी जीवन शैली बदलें, भौतिक संसाधनों पर अपनी निर्भरता कम करें, अधिक से अधिक पेड़ लगायें, उनकी संवृद्धि और रक्षा के हरसंभव प्रयास करें ताकि सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणें सीधे धरती पर न आ सकें। तभी ओजोन परत के छेद में हो रही बढो़तरी को रोका जा सकता है। यह काम जागरूकता के बिना असंभव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)

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