वैश्विक स्तर पर सबको प्रभावित करने वाली मानवजनित चुनौतियों में जलवायु- परिवर्तन की ख़ास भूमिका है। इसका स्वरूप दिन प्रतिदिन जटिल होता जा रहा है। इसे लेकर चिंतन भी हो रहा है और चिंता भी ज़ाहिर की जाती रही है। इसी क्रम में ताज़ा विचार विमर्श यूएई के विख्यात 'दुबईÓ महानगर में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टी यानी काप का 28वाँ सम्मेलन आयोजित हो रहा है । इस शृंखला की यह एक खास कड़ी है जिसमें यह जरूरी होगा की समय के समाधान की दिशा में फलदायी निर्णय लिए जाएं। अंटार्कटिक क्षेत्र में आ रहे बदलाव और विश्व व्यापी घटना के रूप में अनेक क्षेत्रों में ग्लेशियरों के व्यापक पैमाने पर उनके पिघलने की स्थिति चिंताजनक हो रही है। इन सबसे प्राकृतिक गतिविधि में व्यापक असंतुलन परिलक्षित हो रहा है। ऊपरी तौर पर प्रकृति और मनुष्य अलग दिखते हैं। प्रकृति की सुषमा उसे स्पष्ट रूप से संसाधन घोषित करती है और आंशिक रूप से यह सही भी है। पर यह आंशिक सत्य प्राय: पूर्ण मान लिया जाता है और प्रकृति के यथा सम्भव दोहन का काम शुरू हो जाता है। भ्रम तब टूटता है जब ठोकर लगती है।
पिछले वर्षों में यूरोप और अमेरिका के अनेक भू रासायनिक खाद क्षेत्रों में बाढ़, लू, सूखा और प्रचंड तूफ़ान जैसी जलवायु की चरम स्थितियों का बारम्बार सामना करना पड़ा है। भारत के हिमाचल प्रदेश, आसाम, उत्तराखंड और दिल्ली में जिस तरह बाढ़ का प्रकोप अनुभव किया गया वह विस्मयजनक था। वस्तुत: भारत समेत विश्व के अधिकांश भौगोलिक क्षेत्रों में लगातार अनुभव हो रही प्राकृतिक विभीषिकाएं देखते हुए जलवायु वैज्ञानिक दुनिया को सम्भावित खतरों से आगाह करने के लिए अनेक वर्षों से सतर्क करते रहे हैं और उसका असर काफी होना चाहिए था। यह जरूर हुआ है कि उसके लिए अनेक देशों द्वारा प्रतिबद्धता दर्शायी जाती रही। पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित हुई अनेक पारस्परिक सहमतियों और वैश्विक उद्घोषणाओं से राज नेताओं की कुछ गम्भीरता तो जरूर प्रकट होती है परंतु उसे कार्य स्तर पर लागू करने तक की अब तक की यात्रा निहित स्वार्थ के कारण कंटकाकीर्ण रही है।
आरम्भिक उत्साह और मीडिया में जगह के साथ फौरी फायदे के आगे मानवता को होने वाले बड़े और दीर्घकालिक नुकसान को अक्सर भुला दिया जाता है। आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से रसूख वाले तथाकथित विकसित देश जलवायु विषयक प्रतिज्ञाओं और संकल्पों को छोड़ अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आते। वे पर्यावरण की रक्षा के लिए जरूरी मानकों, मानदंडों और पाबंदियों को खुद के लिए स्वीकार नहीं करते और तरह-तरह की छूट लेते रहते हैं। ग्रीनगैस के उत्सर्जन को लेकर यह स्थिति ख़ास तौर पर दिख रही है । स्थिति यह है कि पृथ्वी पर तापमान में वृद्धि अनियंत्रित होती जा रही है। सन 2023 के अगस्त से अक्टूबर तक के महीने विश्व भर में रिकर्ड तोड़ गर्मी दर्ज किए हैं। पिछले करीब दो सौ वर्षों में इस तरह की घटना पहली बार अनुभव की गई है।
पर्यावरण को लेकर गैर जिम्मेदाराना व्यवहार का एक दुखद पक्ष यह भी है कि हानि का वितरण सभी देशों के बीच एक सा नहीं है। उच्च तकनीकी के साथ विकसित देश प्रकृति के दोहन में बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं।
इस वैश्विक विपदा का खामियाजा अक्सर कम विकसित देशों को भुगतना पड़ता है। इसके समाधान के लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय कोष का प्रस्ताव बनता रहा है परंतु कार्रवाई के स्तर पर अभी तक की प्रगति बेहद असंतोष जनक है। डेढ़ डिग्री तक वैश्विक तापमान बनाए रखने में विफल होने से उसकी जगह अनुमान है कि 2.5 से 2.9 सेल्सियस तापमान से गुजरना होगा। इसके भयानक परिणाम हो सकते हैं।
जलवायु जीवन जीने के लिए आधार भी प्रदान करता है पर उसके साथ कुछ जरूरी सीमाएँ भी बांधता चलता है। मनुष्य उन सीमाओं से छेड़छाड़ करता है पर उसकी भी सीमा है जिसे अक्सर भुला दिया जाता है। प्रकृति और पर्यावरण हमारी सामाजिक चेतना का हिस्सा ही नहीं बन पाता। स्मरणीय है कि पर्यावरण का दोहन, प्रदूषण, ऊर्जा का उपयोग और वृक्षों आदि वनस्पतियों, मनुष्य और अन्य जीव जंतुओं के जीवन की गुणवत्ता सभी आपस में जुड़े हुए हैं। ये सभी परस्पर निर्भर हैं और एक-दूसरे के लिए पूरक का भी काम करते हैं। इस तरह का समग्रतावादी (होलिस्टिक) जीवन - दर्शन हम सिद्धांत में तो मानते हैं पर अभ्यास में मानवकेंद्रित (एंथ्रोपोसेंट्रिक) विचार धारा को ही तरजीह देते हैं और प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन की जगह सिफ़र् उसके अधिकाधिक दोहन की ही व्यवस्था करते हैं। भ्रम यह भी रहता है कि प्रकृति अनंत है और हम उसे जड़ मान कर इच्छानुसार उसके दोहन में लग जाते हैं। प्रौद्योगिकी का जिस तेज़ी से विकास हो रहा है वह प्रकृति की सहज शक्ति और सम्भावना को प्रतिबंधित करने वाला सिद्ध हो रहा है । रासायनिक खाद के विविध रूप विष की तरह मानव शरीर में पहुँच कर अनेक रोगों और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों को जन्म दे रहे हैं। यही हाल आणविक ऊर्जा के उत्पादन से जुड़ी समस्याओं का भी है। यही सोच कर नई-नई प्रौद्योगिकी विकसित की जाती है कि उत्पादन बढ़ेगा, व्यापार में नफा होगा। विकसित करने की अंतरराष्ट्रीय कवायद की जाती है जिसके अनपेक्षित शोषणकारी असर कई बार भोपाल गैस त्रासदी की तरह अमानवीय और घातक साबित होते रहे हैं। जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलेगी हम विकास और प्रगति के मायावी दुश्चक्र में फंसे रहेंगे जो स्वयं जीवन के विरुद्ध है। जीवन प्रकृति के साथ चलने और स्वयं को प्रकृति का अंश मान कर चलने में ही सम्भव है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)