अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति दुर्गा देवी वोहरा

अरविंद जयतिलक

Update: 2023-10-06 19:46 GMT

बात उन दिनों की है जब भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों को पकड़ने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने जमीन-आसमान एक कर दी थी। भगत सिंह और उनके साथियों पर पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या का आरोप था। वह साण्डर्स जिसने साइमन कमीशन का विरोध कर रहे लाला लाजपत राय को इस हद तक पीटा कि चंद दिनों के बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी। क्रांतिकारियों ने ठान लिया कि वे लाला लाजपत राय की शहादत का बदला लेकर रहेंगे। फिर क्या था चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में भगत सिंह, राजगुरु और जयगोपाल ने लाहौर में एक पुलिस स्टेशन के सामने ही साण्डर्स को गोलियों से उड़ा दिया। देश सोए से जाग उठा। साण्डर्स की मौत के दूसरे दिन ही लाहौर शहर के दीवारों पर पोस्टर लग गए और पर्चे बांटे गए, जिनपर लिखा था कि साण्डर्स मारा गया और लालाजी की शहादत का बदला ले लिया गया। पर क्रांतिकारियों के समक्ष मौंजू सवाल यह था कि आखिर भगत सिंह को लाहौर से बाहर कैसे निकाला जाए। इसकी जिम्मेदारी दुर्गा देवी वोहरा जिन्हें दुर्गा भाभी भी कहा जाता है, ने अपने कंधो पर ली। दुर्गा भाभी ने बड़ी दिलेरी से भगत सिंह के साथ उनकी पत्नी बनकर लाहौर से कलकत्ता तक की सफर की और ब्रिटिश खुफिया तंत्र को इसकी हवा तक न लगी। दुर्गा भाभी के साथ उनकी गोद से चिपका हुआ उनका तीन वर्षीय बेटा शची भी था। कलकत्ता पहुंचने पर उनके पति भगवती चरण बोहरा ने उनकी बहादुरी की जमकर दाद दी। 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद में जन्मी दुर्गा भाभी बचपन से ही असाधारण प्रतिभा की धनी थी। उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी थी। युवा होने पर उनका विवाह महान क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा से हुआ। कहा जाता है कि उन्हें बम बनाने में महारत हासिल थी। 28 मई, 1930 को रावी नदी के तट पर बम परीक्षण के दौरान वे शहीद हो गए। लेकिन इस कठिन घड़ी में भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं छोड़ा। उन्होंने मन में ठान लिया कि वे अपने पति की शहादत और उनके मिशन को बेकार नहीं जाने देंगी। सो उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ कदमताल मिलाना शुरु कर दिया। दुर्गा भाभी की बहादुरी के किस्से भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी का ताना-बाना बुनना शुरु कर दिया। इसी दरम्यान 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह ने संसद भवन में बम विस्फोट कर गूंगी-बहरी ब्रिटिश सरकार को अंदर से हिला दिया। कहा जाता है कि इस घटना को मूर्त रुप देने में दुर्गा भाभी का महान योगदान था। भगत सिंह चाहते तो संसद भवन से फरार हो सकते थे लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ्तारी देना ज्यादा जरुरी समझा। क्रांतिकारियों ने भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की जुगत बनायी और योजना पर काम करना शुरु कर दिया। 9 अक्टूबर, 1930 को उन्होंने मुंबई में लेमिंग्टन रोड पर पृथ्वी सिंह आजाद उर्फ नाना साहब और सुखदेव राज से मिलकर गवर्नर पर गोलियां चला दी। लाख सिर पटकने के बाद भी पुलिस का खुफिया तंत्र इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया कि इस कांड के पीछे किसका हाथ है। पुलिस के हाथ सिर्फ यही सूत्र लगा कि गोली चलाने वालों में से एक लम्बे बाल वाला लड़का भी था। लेकिन एक षड्यंत्र के तहत दुर्गा भाभी को ब्रिटिश सरकार ने फरार घोषित कर दिया तकरीबन ढ़ाई वर्ष फरारी जीवन गुजारने के बाद उन्हें 12 सितंबर, 1931 को गिरफ्तार कर लाहौर जेल भेज दिया गया। रिमाण्ड की 15 दिन की अवधि पूरी होने पर मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा तो कर दिया लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया। तकरीबन एक वर्ष तक वह नजरबंद रही। दिसंबर 1932 में वह रिहा की गयी। लेकिन उन्हें लाहौर की म्यूनिसिपल सीमा में तीन वर्ष तक नजरबंद रखा गया। 1935 ई0 में उन्हें पंजाब और दिल्ली की सीमा से बाहर जाने का आदेश दिया गया। इस दरम्यान दुर्गा भाभी ने गाजियाबाद के एक स्कूल में बतौर शिक्षिका अध्यापन कार्य किया। 1937 में उन्हें दिल्ली प्रांतीय कमेटी का अध्यक्ष चुना गया। बाद में उन्होंने अपनी सदस्यता उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में स्थानांतरित करा ली। शिक्षा के प्रति उनका गहरा लगाव था। सो उन्होंने मद्रास के अड्यार में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त किया और जब वह 1940 में लखनऊ आयी तो कैण्ट रोड पर एक किराए के मकान में पांच बच्चों को लेकर 'लखनऊ माण्टेसरीÓ नामक एक शिक्षण संस्था की बुनियाद रखी। आज यह विद्यालय 'लखनऊ माण्टेसरी इण्टर कॉलेजÓ के नाम से जाना जाता है। दुर्गा भाभी ने इस विद्यालय को जीवन भर सींचा। आज से डेढ़ दशक पहले वह इस दुनिया से विदा हो चुकी हैं। आज भी देश उनकी असाधारण वीरता और राष्ट्रभक्ति पर गर्व करता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)                                               

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