सुरंग मेकिंग तकनीक विफलता की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। क्योंकि ये परियोजना जोखिम से भरी है। हुकूमतें इस बात को बेशक न मानें, पर टनल इंजीनियरिंग, अंडरपिनिंग व टनलिंग विधि में भारतीय व्यवस्थाएं अब भी काफी पिछड़ी हुए हैं। पहाड़ों को फाड़कर उनके भीतर टनल या सुरंग बनाने का अनुभव नहीं है। हालांकि सॉफ्ट-ग्राउंड क्षेत्रों में सुरंगें, टनल, सब-वे व सीवर बनाने की विधियों में तो हमारी तकनीकें कारगर और मजबूत हैं। पर, पहाड़ी दुगर्म क्षेत्रों को तहस-नहस करके उनमें विशालकाय सुरंगे बनाने के लिए आधुनिक तामझाम, टैक्लॉजी व उपयुक्त सिस्टम नहीं हैं। यही बड़ा कारण है कि पहाड़ों में बड़े प्रोजेक्ट कामयाब नहीं हो रहे। वहां, इस तरह की परियोजनाओं के असफल होने के पीछे पर्यावरण प्रकोप भी मुख्य वजहें हैं। उत्तराखंड़ में बीते दशक भर में घटी तमाम दर्दनाक घटनाएं इसका ताजा उदाहरण हैं। उन्हीं में ये मौजूदा सुरंग की घटना भी शामिल है। जहां, ब्रह्मखाल-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर पहाड़ों का सीना चीरकर सिल्क्यारा और डंडालगांव के बीच लगभग पांच किलोमीटर लंबी सुरंग का निर्माण कार्य जारी है। सुरंग तो नहीं बनीं, लेकिन चालीस जिंदगियां मौत से जरूर लड़ रही हैं। उनकी जिंदगी में अंधकार आएगा या उजाला, उन्हें नहीं पता? जिदंगी की नई उम्मीद लेकर धंसी सुरंग में एक-एक पल काट रहे हैं।
निश्चित रूप से सुरंग कांड की ये दिलदहला देने वाली घटना रोंगटे खड़े करती है। समय जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, धड़कनें तेज हो रही हैं। सुरंग के शांत और डरावने सन्नाटे से मजदूर कैसे मुक्त हों? इसकी उम्मीद भी मुकम्मल तौर पर कोई नहीं बंधवाता। 12 तारीख से लेकर अभी तक स्थिति गंभीर बनी हुई है। उम्मीद की किरणें हर पल धूमिल होती दिख रही हैं। हालांकि शासन-प्रशासन का रेस्क्यू अभियान मुस्तैदी से जुटा है। पर, सारे प्रयास अभी तक विफल ही हुए हैं।
बहरहाल, एक उम्मीद बंधी है अमेरिका से कोई आधुनिक ड्रिल मशीन मंगवाई है जिसके जरिए मजदूरों को बाहर निकालने की कोशिशें जारी हैं। ड्रिल मशीन के जरिए सुरंग के बाजू में एक गड्डा करके उसमें पाइप डाला जाएगा। जिसका सहारा लेकर अंदर फंसे मजदूरों को बाहर निकाला जाएगा।
ये अमेरिकी ड्रिल मशीन बहुत तेज स्पीड से टनल काटती है। इसके अलावा थाईलैंड से भी कोई एक मशीनें मंगवाई गई हैं जो इस रेस्क्यू अभियान में भारतीय सेना की मदद करेगी। लेकिल ये घटना कई सवाल खड़े करती है। उत्तराखंड़ में विगत कई हुकूमती प्रोजेक्ट असफल हुए और बड़े हादसों में तब्दील हुए। इशारा साफ है कि मानवीय हिमाकतों का खामियाजा कुदरत ने तुरंत दिया। केदारनाथ पॉवर प्रोजेक्ट, उत्तरकाशी थर्मल प्लांट, बद्रीनाथ आदि में हुए हादसे संकेत ही तो देते हैं कि पहाड़ों को मत छेड़ों? अगर छेड़ोगे तो उसका अंजाम बुरा होगा? बुरा हो भी रहा है, लेकिन फिर भी कुदरत से मुकाबले करने के लिए इंसान आगे खड़े हैं। खुदा न खास्ता सुरंग में फंसे इन 40 मजदूरों के साथ कोई अनहोनी हो जाती है, तो उसकी भरपाई कौन करेगा। सुरंग ढहने के खिलाफ कानूनी सुरक्षा के लिए सतह प्रक्रिया भी कोई तय नहीं है जिससे हताहतों के परिजन कानूनी लड़ाई लड़कर न्याय पा सकें।
ये बात सौ आने सच है कि विकास के लिए हम पर्यावरण के नियंत्रण को पूरी तरह भूल गए हैं। एक कड़वी सच्चाई से इंजीनियर पूरी तरह वाकिफ होते हुए भी मौन रहते हैं उन्हें पता होता है कि मैदानी क्षेत्र टनल या सुरंग बनाने में मदद करते हैं, लेकिन पहाड़ी क्षेत्र बिल्कुल नहीं? बावजूद इसके पहाड़ों का दोहन करने से बाज नहीं आते? मैदानी क्षेत्रों में जब टनल या सुरंगों का निर्माण होता है तो उसमें ताजी हवा प्रदान करने और मीथेन जैसी विस्फोटक गैसों और ब्लास्ट धुएं सहित हानिकारक गैसों को हटाने के लिए वेंटिलेशन महत्वपूर्ण होता है। जबकि, निकास स्क्रबर के साथ भूमिगत उपयोग के लिए केवल कम धुएं वाले विस्फोटकों का चयन करने से भी समस्याएं कम होती है, लंबी सुरंगों में एक प्रमुख हवादार संयंत्र शामिल होता है जो तीन फीट व्यास तक के हल्के पाइपों के माध्यम से और बूस्टर प्रशंसकों के साथ एक मजबूर ड्राफ्ट को नियोजित करता है। इन सभी तकनीकों को नहीं अपनाया जाता।
उच्च स्तर ड्रिलिंग उपकरण द्वारा हेडिंग पर और वेंट लाइनों में उच्च-वेग हवा द्वारा पूरे सुरंग में उत्पन्न शोर को अक्सर संचार के लिए सांकेतिक भाषा के साथ इयरप्लग के उपयोग की आवश्यकता होती है। सुरंगों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निषिद्ध होते हैं, क्योंकि आवारा धाराएं ब्लास्टिंग सर्किट को सक्रिय करती हैं। पहाड़ी सुरंगों में तेज धमक से तूफ़ानी धाराओं का भी उठने का डर रहता है। ऐसे में विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। विदेशों में जब किसी बड़े टनल का निर्माण होता है तो उससे पूर्व भू-वैज्ञानिक जांच करवाई जाती है। तथा विभिन्न स्थानों की सापेक्ष और जोखिम वाले क्षेत्रों की गहन भूगर्भिक विश्लेषण होता है। जबकि, इस तरह की कोई विधि हमारे यहां नहीं अपनाई जाती। हमारे इंजीनियर पर्वतीय क्षेत्रों के मिजाज को समझने में भूल करते हैं। विकसित वेल-लॉगिंग और भूभौतिकीय तकनीकों को प्रॉपर तरीके से नहीं अपनाते। नतीजा मौजूदा हादसे जन्म ले लेते हैं। फिलहाल ये घटना किसी दर्दनाक हादसे में तब्दील न हो, सभी मजदूर सुरक्षित सुरंग से बाहर निकलें, इसके लिए हर जरूरी प्रयास किए जाने चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)