वेबडेस्क। मैं एक बात को मान कर चलता हूँ कि सीखने के बहुत से साधन हैं। यूं तो स्कूल, मदरसा, पाठशाला विश्वविद्यालय आदि बहुत से संस्थान ऐसे हैं जहां सीखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सीखने के दो बहुत बढ़िया और सटीक व सरल साधन हैं, विचार-गोष्ठियां व टीवी ,अखबार। वास्तव इनसे जीवन में बहुत कुछ सीखा है। ऐसी ही एक गोष्ठी विश्वग्राम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और सुरक्षा जागरण एकता, द्वारा दिल्ली में आयोजित हुई। श्री इन्द्रेश कुमार और प्रोफेसर गीता सिंह के सौजन्य से दो भागों में आयोजित इस विमर्श में "वैश्विक आतंकवाद बनाम मानवता, शांति एवं संभावनाएं" "कट्टरवाद: एकविभाजन रेखा (समग्र किन्तु केन्द्रित विषय, अफ़गानिस्तान)" जिसमें भारतीय दिग्गजों और विदेश से आए राजनायिकों ने भाग लिया। श्री इंद्रेश कुमार,के अलावा केरल के राज्यपाल, आरिफ़ मुहम्मद खान भी इसका हिस्सा बने । यह गोष्ठी उच्च विमर्श की तो थी ही परंतु इसमें जो तथ्य सामने आए, वे बड़े चौंका देने वाले थे।
आज जबकि सीडीएस बिपिन रावत की विमान दुर्घटना के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे हैं कि उसका कारण चीन के रिमोट कंट्रोल द्वारा हवा में उनके हेलिकॉप्टर का गिराया जाना। चीन के पास इस प्रकार की बर्बाद करने वाली तकनीकी की कमी नहीं है। कुछ लोगों ने तो यहां भी कह दिया कि उत्तराखंड में जो बवंडर आया था, उसको भी रिमोट कंट्रोल से चीन ने ही अंजाम दिया था। उधर पाकिस्तान की ओर से भी दो सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी कोई सुधार नहीं आया और वह पाक अधिकृत कश्मीर से लगातार हमारे यहाँ आतंकवाद के हवा दे रहा है। अफगानिस्तान में एक आतंकी सरकार बैठ गई, उस से विश्व को बड़ी चिंता है। बात जब अफ़गानिस्तान की आती है तो उसके बारे में कहा जाता है कि वह सभ्यताओं का कब्रिस्तान रहा है। यही कारण है कि भारत ने अभी तक उसको स्वीकार नहीं किया है। इसी प्रकार से अन्य देशों में भी उसकी स्वीकृति नहीं बनी है।
गोष्ठी में इस बात पर भी चर्चा हुई कि पाश्चात्य सभ्यता में ऐसा क्यों कहा जाता है कि सारे मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते मगर सारे आतंकवादी मुस्लिम ही होते हैं। हालांकि किसी क़ौम के बारे में ऐसा कहना सरासर नाइंसाफी है मगर ग्लासगो हवाई अड्डे में एक मुस्लिम युवक बारूद लेकर हमला कर देता है, शरमलशेख, सर्बिया के स्कूल में, मुंबई और पुणे में, भारतीय संसद फ़्रांस , बेल्जियम आदि में जो आतंकवादी हमले हुए हैं, इनमें सभी अभियुक्त मुस्लिम ही थे, जिसके कारण पश्चिमी मीडिया ने "इस्लामिक आतंकवाद" का एक मुहावरा बनाया है । इस्लाम का अर्थ ही झुक जाना है, इस्लाम में एक मासूम का क़त्ल पूरी मानवता का क़त्ल है और यह कि कुरान कहता है, "लकुम दीनोकुम वले यदीन" (तुम्हें तुम्हारा धर्म मुबारक, हमें हमारा), मगर सामने वाला तो विश्वास उसी पर करेगा जो वह कथित मुस्लिमों के चाल, चरित्र व चेहरेमें देखेगा। केरल के राज्यपाल आरिफ़ मुहम्मद खान ने कहा कि यदि वे हिन्दू व हिन्दुत्व की परिभाषा देखना चाहेंगे तो उनके पास इतना समय ही नहीं है कि वे वेदों, पुराणों और रामायण व गीता के पढ़ें, बल्कि वे हिन्दू धर्म की परिभाषा तो इंद्रेश कुमार जैसे हिन्दू को देख कर ही सीखेंगे। यह सच है। हालांकि आठवीं शताब्दी में इमाम गजाली ने कहा था यदि मुसलमान आतंकवाद को समाप्त नहीं करेंगे तो आतंकवाद उन्हें समाप्त कर देगा।
बिल्कुल यही बात अति वरिष्ठ व अति विशिष्ट आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार ने भी कही कि खेद का विषय है कि आज मुस्लिम आतंकवाद का चेहरा बन चुका है अफ़गानिस्तान। किस प्रकार की "आज़ादी" उसने प्राप्त की है! उन्होंने बामियान बुद्ध मूर्तियों को खंडित किया तो उस समय कठपुतली सरकार कुछ नहीं कर सकी। बामियान की परवाना हुसैनी, जोकि पंजाब यूनिवर्सिटी में छात्रा हैं, बताती हैं कि खबरें आ रही हैं कि तालिबान ने नौजवान लड़कियों को बंदूक के ज़ोर पर उठाना शुरू कर दिया है। एक महिला पायलट को सरे आम पत्थरों से गोद कर क़त्ल कर दिया गया। बक़ौल प्रफुल्ल केतकर, संपादक, "औरगेनाईजर", अफ़गानिस्तान में अब लड़कियों का घर से निकालना लगभग नामुमकिन हो गया है। परवाना ने अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र, और भारत से गुहार लगाई है कि ये सब मिलकर अफगानिस्तान में हालत को मामूल पर लाने में मदद करें। उन्हें दुख है कि उनका देश अंधे कुएँ में धकेल दिया गया है। आज भारत में वर्षों से कई हज़ार अफगानिस्तानवासी आराम से रह रहे हैं। बहुत से तो 20 वर्ष पूर्व ही आ गए थे जब तालिबान का पहला राज-काज लगभग स्थापित हो चुका था। वास्तव में जब अफगानिस्तान के किंग शाह ज़हीर शाह का राज था तब यह देश बड़ा ही समृद्ध था, यहाँ महिलाएं लेटैस्ट फैशन के साथ साज धज कर सड़कों पर देर रात तक अपने कार्यालों से घर आती थीं, पूरे विश्व से यहां सैलानी आकार यहां बल्क, बुखारा काबुल आदि के मेवे, फलों और ज़बरदस्त क़ुदरती समां से लुत्फंदोज़ होने आते थे। आज इसकी दुर्दशा देख कलेजा फटता है। सबकी यही दुआ है कि अफगानिस्तान के नागरिकों और विशेष रूप से से महिलाओं की सलामती रहे और यह देश सही हाथों में जाए।
प्रोफेसर गीता सिंह के अनुसार पाकिस्तान और अफगानिस्तान और कुछ अन्य मुस्लिम बस्तियों में लड़कियों के साथ ठीक उसी तरह जैसे का सुलूक किया जा रहा है, जैसा मलाला युसुफज़ई के साथ स्वात घाटी में उसके ऊपर घातक क़ातिलाना हमला करके किया गया था। मलाला ने बचपन से ही ब्लॉग और मीडिया में तालिबान की ज्यादतियों के बारे में जब से लिखना शुरू किया तब से उसे कई बार धमकियां मिलीं। मलाला ने तालिबान के कट्टर फरमानों से जुड़ी दर्दनाक दास्तानों को महज ११ साल की उम्र में अपनी कलम के जरिए लोगों के सामने लाने का काम किया था। मलाला उन पीड़ित लड़कियों में से है जो तालिबान के फरमान के कारण लंबे समय तक स्कूल जाने से वंचित रहीं। चार साल पहले स्वात घाटी में तालिबान ने लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी लगा दी थी। लड़कियों को टीवी कार्यक्रम देखने की भी मनाही थी। स्वात घाटी में तालिबानियों का कब्जा था और स्कूल से लेकर कई चीजों पर पाबंदी थी। मलाला भी इसकी शिकार हुई। लेकिन अपनी डायरी के माध्यम से मलाला ने क्षेत्र के लोगों को न सिर्फ जागरुक किया बल्कि तालिबान के खिलाफ खड़ा भी किया। तालिबान ने वर्ष २००७ में स्वात को अपने कब्जे में ले लिया था। और लगातार कब्जे में रखा। तालिबानियों ने लड़कियों के स्कूल बंद कर दिए थे। कार में म्यूजिक से लेकर सड़क पर खेलने तक पर पाबंदी लगा दी गई थी। उस दौर के अपने अनुभवों के आधार पर इस लड़की ने बीबीसी उर्दू सेवा के लिए जनवरी, २००९ में एक डायरी लिखी थी। इसमें उसने जिक्र किया था कि टीवी देखने पर रोक के चलते वह अपना पसंदीदा भारतीय सीरियल "राजा की आएगी बारात" नहीं देख पाती थी। अक्टूबर 2012 में, स्कूल से लौटते वक्त उस पर आतंकियों ने हमला किया जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गई। इस हमले की जिम्मेदारी तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी), पाकिस्तान ने ली। बाद में इलाज के लिए उन्हें ब्रिटेन ले जाया गया जहाँ डॉक्टरों के अथक प्रयासों के बाद उन्हें बचा लिया गया।
(लेखक मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और मौलाना आज़ाद के पौत्र हैं)