राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणाम उनके लिए किंचित भी आश्चर्य का विषय नहीं है जो भारत और इन राज्यों के बदले हुए राजनीतिक वातावरण को देख रहे थे। ये चुनाव परिणाम मतदाताओं के तात्कालिक संवेग की अभिव्यक्ति नहीं हैं। ये परिणाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश और राज्य स्तर पर भाजपा के संदर्भ में बने संपूर्ण माहौल की परिणिति हैं। देश का माहौल बिल्कुल वैसा नहीं है जैसा भाजपा विरोधी प्रस्तुत कर रहे थे। अगर आप उनके पूर्व आकलनों को आधार बनाएं तो भाजपा को एक राज्य में भी विजय नहीं मिलनी चाहिए थी।
मध्यप्रदेश में अगर बीच के 15 महीने के कमलनाथ सरकार को छोड़ दें तो करीब 19 वर्ष तक शासन करने के बावजूद भाजपा इतनी बड़ी विजय प्राप्त करती है तो फिर समान्य विश्लेषणों से परिणाम की सच्चाई नहीं समझी जा सकती। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 49 प्रतिशत और कांग्रेस को 40 प्रतिशत मत मिले हैं। 9 प्रतिशत बहुत बड़ा अंतर है। राजस्थान में भी लगभग दो प्रतिशत मतों का अंतर है जबकि पिछली बार कांग्रेस को बीजेपी से केवल करीब .25 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले थे। छत्तीसगढ़ में भाजपा ने पिछली बार करीब 33 प्रतिशत और कांग्रेस ने 43 प्रतिशत वोट पाया था जबकि इस बार भाजपा को 45 प्रतिशत से अधिक तथा कांग्रेस का वोट लगभग 39 प्रतिशत तक सिमटा है। यानी भाजपा ने 12 प्रतिशत से ज्यादा मत हासिल किया, जबकि कांग्रेस का 4 प्रतिशत वोट कट गया। तो इस तरह के परिणामों के कारण क्या हैं?
परंपरागत आधार पर विश्लेषण करने वाले मध्यप्रदेश में कमलनाथ और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के जाति कारक से लेकर लाड़ली योजना, राजस्थान में पेपर लीक से लेकर भ्रष्टाचार तथा इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी बघेल सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार आदि का उल्लेख कर रहे हैं। ये सब भी मुद्दे के रूप में थे। शिवराज सिंह भाजपा के मुख्यमंत्री के घोषित उम्मीदवार नहीं थे। चुनावों में शीर्ष पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम था। कांग्रेस की गारंटी घोषणाओं के समानांतर मोदी ने कहा कि मेरा नाम ही गारंटी है।
परिणामों को आधार बनाएं तो स्वीकारना पड़ेगा कि फ्री बीज यानी मुफ्त घोषणाओं के समानांतर मतदाताओं ने मोदी को स्वीकार किया। कांग्रेस ने सभी राज्यों में पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा की थी। यह सरकारी कर्मचारियों की दृष्टि से सर्वाधिक आकर्षक घोषणा थी और इसे लेकर देशव्यापी आंदोलन का भी ऐलान हो चुका है। हिमाचल और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणामों का एक बड़ा कारण पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा मानी गई थी। इन राज्यों में यह सफल क्यों हो गया? तेलंगाना में के. चन्द्रशेखर राव भी इसके लिए तैयार थे। इस पहलू को आधार बनाकर विचार करें तो न केवल इन परिणामों की सच्चाई बल्कि 2024 लोकसभा चुनाव की भी झलक मिल जाएगी।
राजनीति में नेतृत्व मात्र चेहरा नहीं होता। वह विचारों और व्यवहार का समुच्चय होता है जिसके आधार पर मतदाता अपना मत तय करते हैं। नरेंद्र मोदी स्पष्ट विचारधारा को प्रतिबिंबित करते हैं जिसे केंद्र और भाजपा की राज्य सरकारें नीतियों और व्यवहारों में लागू कर रहीं हैं। दरअसल, 2014 के बाद राजनीति, सत्ता और नेतृत्व को लेकर भारत के बदले हुए सामूहिक मनोविज्ञान और मतदाताओं के व्यवहार को न समझने के कारण ही ऐसे परिणाम आश्चर्य में डालते हैं। राजनीति में भाजपा और राजनीति से बाहर पूरे संगठन परिवार ने हिंदुत्व और उसके इर्द-गिर्द राष्ट्र भाव का धीरे-धीरे सशक्त माहौल बनाया है जिससे देश का सामूहिक मनोविज्ञान बदला है। कर्नाटक और हिमाचल में भी भाजपा के मत नहीं घटे, जबकि दोनों जगह कार्यकर्ताओं और समर्थकों के अंदर व्यापक असंतोष प्रकट हो रहा था। इन परिणामों को किसी ने भाजपा की विचारधारा, नीतियों और नरेंद्र मोदी की अस्वीकृति मान ली तो यह उनकी गलती है। इसके आधार पर मतदाता मत निर्धारित नहीं कर सकते। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश तीनों राज्यों में कांग्रेस ने हिंदुत्व संबंधी घोषणाओं में अपने बीच ही प्रतिस्पर्धा की। कुछ घोषणाएं ऐसी थीं जहां तक भाजपा भी नहीं जाती। अगर हिंदुत्व और उससे जुड़ा राष्ट्रबोध अंतर्धारा में नहीं होता तो अशोक गहलोत, कमलनाथ और भूपेश बघेल हिंदुत्व पर उस सीमा तक नहीं जाते। लेकिन मतदाताओं के सामने स्पष्ट था कि इस समय हिंदुत्व और हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रबोध पर जितना भी कर सकती है वह भाजपा ही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)