एक जगह से दूसरी जगह जाना संभव है। दूरी के हिसाब से समय ज्यादा-कम लग सकता है, लेकिन क्या एक समय से दूसरे समय में जा सकते हैं? अभी के समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक भी आपको कहेंगे, नहीं भाई... ऐसा नहीं हो सकता है। टाइम ट्रैवल सिर्फ हॉलीवुड की फिल्मों में होता है। मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी आपको यही जवाब देगा। मतलब साफ है कि बहुत आसान सवाल है यह और इसके जवाब के लिए माथाफोड़ी करने की जरूरत नहीं है। मुश्किल सवाल यहां पर ये आता है कि अरबों लोग इस सनक के पीछे क्यों पागल हैं? और आज से नहीं, सदियों से पगलाए हुए हैं टाइम ट्रैवल करने के लिए। पीछे लौटने के लिए मार-काट मचाए हुए हैं सौओं सालों से।
अभी पश्चिम एशिया में जो हो रहा है, उसका कारण फिर से पुरानी जिद कि पीछे लौटना है, जो संभव नहीं है। दरअसल अभी जो इजरायल है, वह अब्राहमिक धर्मों (संप्रदायों) का केंद्र है। अब्राहमिक धर्म का मोटा-मोटा मतलब मानिए मूर्तिपूजा को नहीं मानने वाले धर्म। उदाहरण तीन हैं- यहूदी, ईसाई, इस्लाम। यहूदी सबसे पुराने हैं। धार्मिक विवरणों के बजाय इतिहास के हिसाब से देखेंगे तो इस्लाम और ईसाई दोनों यहूदी से निकले ब्रांच हैं। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दू सबसे पुराना और बौद्ध, जैन, सिख आदि बाद में निकले ब्रांच। यहूदियों का मानना है कि येरूशलम को सबसे पहले बनाया गया था और वहीं से दुनिया को बनाने की शुरुआत हुई। पैगंबर अब्राहम ने अपने बेटे की कुर्बानी वहीं दी थी। ईसाई मानते हैं कि ईसा मसीह को वहीं सलीब पर लटकाया गया और फिर पुनर्जन्म हुआ। मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर मुहम्मद की जन्नत की यात्रा वहीं से शुरू हुई थी। इस तरह येरुशलम पर तीनों के अपने-अपने दावे हैं। इस एक दावे के चक्कर में दुनिया के जघन्यतम हत्याकांड हुए हैं और हजार साल से भी ज्यादा समय से अब तक होते जा रहे हैं। क्रूसेड यानी ईसाइयत और इस्लाम के बीच मध्ययुग में हुए बर्बर युद्धों की श्रृंखला इसी दावे की कड़ी है। ये हो गई बुनियादी बात।
अब आधुनिक इतिहास की बात। यहूदी लंबे समय तक बिना देश के रहे हैं। अरब में इस्लाम के उदय के बाद यहूदियों को युगों तक देश नहीं नसीब हुआ। यहूदी आबादी यूरोप के कई देशों में बसी हुई थी। बहुसंख्यक जर्मनी में। फिर आ गए हिटलर भाई और यहूदियों को मिल गया फिर से भयानक अत्याचार। अलग ही घिनौनी कहानी है इसकी। लाखों यहूदी हिटलर के शिकार बने और तरह-तरह की जघन्यतम यातनाओं के शिकार बने। बड़ी संख्या में यहूदी इधर-उधर भागे। मतलब एक बार फिर से उनका आश्रय उजड़ गया और फिर से खानाबदोश/शरणार्थी बनने पर मजबूर हो गए।
दूसरा विश्वयुद्ध दुनिया की शक्त-सूरत बदलने वाला घटनाक्रम था। दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी, इटली, जापान आदि तो तबाह हुए ही, लेकिन विजेता पक्ष में कई देश जीतकर भी वास्तव में जीत नहीं पाए। सबसे भारी कीमत चुकाई ब्रिटेन ने, जिसका सूरज डूबने लग गया था। ब्रिटेन ने अपने सूर्यास्त के समय जब खुद को समेटना शुरू किया, तो उसने हर जगह पर कुछ गंभीर विवादों का पेड़ लगा दिया। सबसे बड़ा उदाहरण इजरायल। नजदीक में उदाहरण पाकिस्तान। मजहब के आधार पर पाकिस्तान भी बना और मजहब के आधार पर ही इजरायल। यहां भी ब्रिटेन सीमा विवाद की ऐसी आग लगाकर गया है, जो 75 सालों में नहीं बुझ पाई है। चीन के साथ सीमा विवाद भी ब्रिटेन से भारत-चीन को मिला तोहफा है, जो भविष्य में न जाने क्या कांड कराएगा। इजरायल और फिलिस्तीन को भी ब्रिटेन ने इसी तरह का तोहफा दिया।
कई सौ साल चले क्रूसेड में येरुशलम पर कभी ईसाइयों का तो कभी मुसलमानों का कब्जा होता रहा। दूसरे विश्वयुद्ध के समय येरुशलम पर ब्रिटेन का कब्जा था। जब ब्रिटेन के सामने जाने की बारी आई तो वह किताबों से प्रॉमिस्ड लैंड निकालकर ले आया और उसी प्रॉमिस्ड लैंड का बन गया इजरायल। इजरायल- मजहब पर बना देश, युगों बाद यहूदियों को मिली ऐसी जमीन जिसे वे अपना देश कह सकें। हम सही-गलत में नहीं जाएंगे यहां। वैसे भी मैंने अब तक के जीवन को प्रोसेस करने के बाद निचोड़ में पाया है कि सिर्फ सही या सिर्फ गलत जैसा कुछ नहीं होता है। तो इस तरह से बन गया आधुनिक इजरायल देश, जो चारों तरफ से अरब के मुस्लिम देशों से घिरा हुआ है। विवाद यहां पर समाप्त हो सकता था, लेकिन दो बातें रह गईं। पहली बात- ब्रिटेन ने सीमा को लेकर विवाद की जबरदस्त गुंजाइश छोड़ दी, दूसरी कि मुस्लिम अरब देश सह-अस्तित्व की भावना को कभी अपना नहीं पाए।
ये हो गई समस्या की बात। जमीन का विवाद लगातार बना ही रहा है। अभी लग रहा था कि शायद स्थाई हल निकल आए, लेकिन उसके पहले इतना बड़ा कांड हो गया। कैसे हो गया, इस सवाल से सब हैरान हैं। अभेद्य किला बताई जाने वाली आयरन डोम टेक्नोलॉजी काम नहीं आई, मोसाद को कोई भनक नहीं लग पाई, इजरायल की सेना तत्काल हमले का जवाब नहीं दे पाई... ये सब केस स्टडी बनेंगे। जो दावे हैं- कि चीन ने आयरन डोम को कुछ समय के लिए डिसेबल करने में मदद की, ईरान ने हथियार दिए, अफगानिस्तान में जो हथियार अमेरिका छोड़कर भागा था... वो भी गाजा पहुंच गए। अगर ये बातें सही हुईं तो मामला बहुत उलझ सकता है और तीसरे विश्वयुद्ध का रूप ले सकता है, जिसमें एक तरफ इजरायल के साथ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, भारत जैसे देश। दूसरी ओर फिलिस्तीन के साथ ईरान, चीन जैसे देश। हालांकि ऐसा होगा, कम ही लगता है और होना भी नहीं चाहिए।
भारत के हिसाब से देखना चाहें तो यह सबसे खतरनाक ग्लोबल इश्यू रहा है, भारतीय विदेश नीति के लिए अग्निपरीक्षा। एक तरफ इजरायल, जो हर मौके पर साथ देता रहता है। भारत का बहुमत इजरायल के पक्ष में है। अभी खबर देख रहे थे कि अज्ञात भारतीय हैकरों ने हमास की वेबसाइट कर ली। दूसरी तरफ फिलिस्तीन है, जिसे ब्रिटेन ने ठीक भारत जैसा दर्द देकर आजाद किया है। भारत के कलेजे से काढ़कर जैसे पाकिस्तान बना, वैसा ही कुछ फिलिस्तीन के साथ इजरायल बनाकर किया गया। विवाद में इजरायल का साथ देने का मतलब है कश्मीर के हिस्से पर पाकिस्तान-चीन के कब्जे को एक तरह से वैधता प्रदान करना। इसी कारण जब-जब यह मुद्दा उठता रहा है, भारत या तो निष्पक्ष रहा है या फिर फिलीस्तीन के पक्ष में झुका है। इस बार तस्वीर अलग दिख रही है। पीएम मोदी न सिर्फ इजरायल के साथ दिख रहे हैं, बल्कि हमास के हमले को बिना लाग-लपेट के आतंकवादी हमला बोल रहे हैं। यह भारत की विदेश नीति का बड़ा टर्निंग पॉइंट है। बदलते भारत के साथ यह बदलाव ठीक भी है। जैसे-जैसे आर्थिक ताकत बढ़ती है, विदेश नीति आक्रामक होती जाती है। (इस पर विस्तार से कभी और बतकही करेंगे।)
अब सारी बातें हो गईं, सिर्फ समाधान को छोड़कर। नीचे मैंने दो तस्वीरें लगाई हैं। पहली तस्वीर में समस्या है और दूसरी तस्वीर में समाधान। पहली तस्वीर गाजा पट्टी की है, इजरायल के काउंटर अटैक से दहलती और जमींदोज होती गाजा पट्टी। दूसरी तस्वीर हमारे पावापुरी की है। पावापुरी का हाल देखें तो येरुशलम से काफी मिलता-जुलता है। तस्वीर जल मंदिर की है, जो जैन धर्म के सबसे बड़े तीर्थस्थलों में से एक है। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर का निर्वाण पावापुरी में हुआ। अब इसे येरुशलम से जोड़िए। पैगंबर मुहम्मद येरुशलम से जन्नत की यात्रा पर गए। जन्नत की यात्रा ही निर्वाण है। अब येरुशलम में बहुसंख्यक आबादी उन यहूदियों की, जिनसे ब्रांच की तरह इस्लाम निकला। पावापुरी में बहुसंख्यक आबादी उन हिन्दुओं की, जिनसे ब्रांच की तरह जैन धर्म निकला। पावापुरी में कोई तकरार नहीं है। कभी धार्मिक दंगा नहीं हुआ है। अभी दीपावली में जैन लोग रथयात्रा निकालेंगे, जिसमें जैनों से कई गुना ज्यादा भागीदारी हिन्दुओं की होगी। जैन धर्म का मंदिर स्थानीय बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के अस्तित्व के साथ इस तरह रचा-बसा हुआ है कि कुछ भी अलग का बोध नहीं है। सह-अस्तित्व की यह भावना इजरायल-फिलिस्तीन की समस्या को भी समाप्त कर सकती है।
ये हो गई यूटोपियन बात। सबको पता है कि ऐसा हो ही नहीं सकता है। कारण भी। टाइम ट्रैवल की जिद अरबी मुस्लिम नहीं छोड़ेंगे। तर्क देंगे कि 1946 से पहले इजरायल नहीं था तो अब भी नहीं रहने देंगे। फिर ऐसे में इजरायल की तरफ से तर्क आएगा कि भाई 1400 साल पहले तो तुम भी नहीं थे। मतलब पहले अंडा आया या मुर्गी वाला विवाद चलता रहेगा। फिर नब्बे के दशक के बॉलीवुडिया सिनेमा की तरह समाधान आएगा... जिनकी बाजुओं में ताकत होगी न श्याम, अंडा और मुर्गी दोनों उसी की होगी।
लेखक युवा स्तंभकार हैं