मन में आत्ममंथन का दिया जलाएं

मुनीष भाटिया

Update: 2023-11-10 20:16 GMT

आज समाज में चहुँ ओर हिंसा, अराजकता व झूठ का बोलबाला है। युद्ध और आतंकवाद के वातावरण में इंसानियत को तार-तार किया जा रहा है। हिंसा और नफरत भरे माहौल के कारण ही आज ऐसा वातावरण बन रहा है कि इंसानियत और हैवानियत की दूरियां कम होती जा रही हैं। मन के अश्लील विकार जुबान से झलक रहे हैं। सभी मर्यादा को लांघ कर नैतिकता की परिभाषा के नए-नए स्वर गढ़े जा रहे हैं। समाज की प्रत्येक इकाई से गिर रहे नैतिकता के स्तर के लिए जिम्मेदार व्यक्ति के मन में बसी अमावस है जो इसके लिए जिम्मेदार है। मन में व्याप्त अमावस का ही परिणाम है कि हम दूसरे के दोषों की चर्चा तो खूब करते हैं किन्तु अपनी गलतियों पर पर्दा डाल लेते हैं। दूसरों के दोष तो हमें नजर आ जाते हैं किन्तु स्वयं का बड़े से बड़ा अपराध का भी हम आत्मनिरीक्षण करने की कोशिश तक नहीं करते। आज के गिरते मानवीय जीवन चरित्र को देखते हुए यही धारणा प्रबल हो चली है कि 'दोष पराए देखि करि चला हंसत-हंसतÓ अर्थात् यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देखकर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

दूसरों के प्रति अपने दुर्व्यवहार व अपने दोषों अनुसार सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में कबीर द्वारा कही गई वाणी 'अपने याद न आवई जाको आदि न अंतÓ यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि आत्म निरीक्षण व आत्म विश्लेषण कर अपनी गलतियों को सुधारने की बजाय हम अपने विवेक दर्पण में वही सब कुछ देखना चाहते हैं जैसा हमारा मन करता है। कबूतर की तरह आँख मूंदे रहने की भावना ने समाज को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया है। राजनैतिक रूप से बदले की भावना इतनी प्रबल हो चली है कि नैतिकता के सभी आयाम को चुनोतियाँ दी जा रही हैं। अपने मन की अमावस में आत्ममंथन का दिया जलाने का रत्ती भर भी प्रयास नहीं करते। निज की स्वस्थ आलोचना कर व अपने गुण दोषों को हम देखना भी नहीं चाहते। यही कारण है कि सामाजिक अपराधों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। समाज की प्रथम इकाई अर्थात परिवारों में जहाँ घरेलू अपराध होते हैं व महिलाओं का शोषण होता है। महिला एवं बाल यौन उत्पीड़न की घटनाएं यह सोचने को विवश करती हैं कि आखिर नियति हमारे समाज को किस दिशा की ओर ले जाना चाहती है।

भारतीय शासन तंत्र में बैठे शीर्ष नेताओं में आत्म निरीक्षण का अभाव और प्रतिशोध की भावना के घर करने के कारण ही भारतीय समाज में अपराधों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। आज देश में हिंसा, बलात्कार व अपहरण आम बात हो गई है। सात साल की बच्ची से लेकर सत्तर साल की वृद्धा तक का यौन शोषण हो रहा है। जहाँ एक ओर आवश्यकता है कानून को समान रूप से लागू करने की, साथ ही जरूरी है कि शीर्ष पदों पर आसीन जन प्रतिनिधियों में आत्मनिरीक्षण की भावना जाग्रत हो सके। इसके लिए समाज की प्रथम इकाई से शुरुआत करनी होगी। बापू गाँधी ने अपने आख्यानों में बार-बार दोहराया है -अपने को देखो। अर्थात् अपना मानस मंथन कर निज के गुण, दोषों की परख करो। उन्होंने आत्मविश्लेषण को ऐसा अचूक अस्त्र बतलाया है जिससे न केवल दोषों का निवारण होता है बल्कि इससे सत्य स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है। जिससे मन ना तो बुराइयों की ओर आकर्षित होता है और न ही किसी का बुरा करने के बारे में सोचता है। यदि इस तरह आत्म नियंत्रण की भावना, प्रत्येक व्यक्ति में आ जाए तो निश्चित ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्Ó के पावन उद्देश्य की प्राप्ति संभव है।

अत: जरूरी है कि परिवार में इस तरह का माहौल बनाया जाये सदस्यगणों में आत्मनिरीक्षण करने की आदत का भाव उत्पन्न हो। अपने हृदय को अपनी क्रियाओं का दर्पण मानते हुए गुण दोषों का विवेचन करने का अभ्यास करें तथा एक क्षण के लिए यह मनन करें कि किसी से किया गया हमारा व्यवहार, दूसरे को मानसिक ठेस तो नहीं पहुंचा रहा। यदि जानबूझकर या प्रतिशोध की भावना से किसी को हानि पहुंचाई जाती है तो शांत मन से अपने उस व्यवहार का विश्लेषण करना चाहिए। यदि अपने इस व्यवहार में कहीं भी पश्चाताप महसूस हो तो निश्चित रूप से आत्म निरीक्षण द्वारा हम अपने दोषों का निवारण कर सकेंगे। ऐसी भावना के साथ उद्देश्य पूर्ति का यही सन्मार्ग होगा और कर्तव्य पालन करते हुए सच्ची सफलता प्राप्त होगी जिससे निज संतुष्टि तो मिलेगी ही साथ ही इसमें समाज कल्याण भी निहित होगा, उसी सूरत में मन की अमावस सही अर्थों में प्रकाशमय हो सकती है ।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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