चुनावी नतीजों के लिहाज से मध्य प्रदेश क्या गुजरात बनने की राह पर है? देश के सबसे ज्यादा कृषि विकास दर वाले इस राज्य की सियासी बयार की गंध से कुछ ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान ऐसा लग रहा था कि भाजपा की राह में कांग्रेस ने कांटे बो दिए हैं। एक बारगी ऐसा भी लगा कि कांग्रेस बाजी मार ले जाएगी। मुकाबला भी जोरदार हुआ और भाजपा ने अपना गढ़ बचा लिया था। मध्य प्रदेश का सियासी मैदान सजते वक्त कुछ ऐसे ही हालात नजर आ रहे थे। कांग्रेस पूरे उत्साह में नजर आ रही थी। उसके स्थानीय नेताओं का हावभाव ऐसा लग रहा था, मानो वे चुनाव जीत चुके हैं। तीन दिसंबर को उसके सत्तानशीं होने का औपचारिक ऐलान ही होगा। लेकिन अब हालात बदलते नजर आ रहे हैं। राज्य में जिस तरह कांग्रेस में खींचतान नजर आ रही है, टिकटों के लिए जिस तरह शीर्षासन हुए, बगावत और स्थानीय दबाव में चार सीटों के उम्मीदवार बदलने पड़े, उससे लगता है कि कांग्रेस खुद ही भाजपा के हाथ सत्ता सौंपने की तैयारी कर चुकी है।
मध्य प्रदेश में हालात क्यों बदलते नजर आ रहे हैं? इसे समझने के लिए सिर्फ कुछ घटनाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। चुनाव पूर्व के कई सर्वेक्षणों में कांग्रेस को बढ़त दिखी। कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व लगता है कि इसे आखिरी नतीजा मान चुका है। राज्य में चुनाव की कमान कमलनाथ के हाथ है। कमलनाथ का व्यवहार इसकी ताकीद भी कर रहा है। चुनावी सर्वेक्षणों में कांग्रेस समर्थक हवा दिखते वक्त कहा गया कि जनता बदलाव चाहती है। यह सोच चूंकि कांग्रेस के लिए मुफीद रहा, इसलिए पार्टी के हर नेता इस तथ्य को हर माकूल मंचों पर दोहराने लगे। अपनी जमीन खिसकती देख भाजपा ने अपनी रणनीति पर काम शुरू किया। राज्य के ताकतवर चेहरों को सीधे मैदान का खिलाड़ी बना दिया। जमीनी स्तर पर पार्टी ने काम शुरू किया। शिवराज सिंह चौहान ने महीनों पहले कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का दांव अपना बनाकर चल दिया। लाड़ली बहना योजना के तहत महिलाओं को हजार रूपए महीने देना शुरू कर दिया। इसे डेढ़ हजार रूपए करने का ऐलान वे पहले ही कर चुके हैं। चूंकि कांग्रेस पहले वादा कर चुकी थी कि सत्ता में आते ही वह महिलाओं को डेढ़ हजार रूपए महीने देगी। शिवराज की योजना उसकी काट साबित हुई है। मिलेगा और मिल रहा है, में लंबी दूरी होती है। चूंकि राज्य की तेईस साल तक की महिलाओं को इस योजना का फायदा मिल रहा है, इसकी वजह से तकरीबन राज्य का हर परिवार लाभार्थी हो गया है। यह योजना महिलाओं का भाजपा के प्रति मन बदलने में कामयाब हुई है। इसका फायदा भाजपा भी अपने ढंग से उठा रही है। उसके तंत्र की ओर से जमीनी स्तर पर वोटरों तक यह संकेत तकरीबन दिया जा चुका है कि अगर कांग्रेस की सत्ता आई तो यह फायदा मिलने से रहेगा। यहीं पर कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की कमजोरी दिख रही है। मतदाता बदलाव चाहता है की बात को वह आखिरी सत्य मानकर जमीनी हकीकत पर भरोसा करना भूल रहा है। उसके नेताओं की आपसी खींचतान सतह पर ज्यादा नजर आ रही है।
भाजपा के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर बने इंडी गठबंधन के दलों को जिस तरह कांग्रेस ने राज्य में ठेंगे पर रखा है, उससे ये दल भी नाराज नजर आ रहे हैं। अखिलेश के बारे में जिस तरह कमलनाथ ने कहा कि अखिलेश-वखिलेश को छोड़ो, उससे अखिलेश नाराज हैं। उनकी पार्टी का विशेषकर बुंदेलखंड तीस सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारना इस नाराजगी का ही प्रतीक माना जाएगा। इंडी गठबंधन की संरचनाकार रहे जेडीयू ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। समाजवादी राजनीति के उत्कर्ष के दिनों में राजस्थान, गुजरात सीमा वाले इलाकों में जनता दल का असर रहा। जेडीयू ने उन्हीं सीटों पर फोकस किया है। विंध्य के औद्योगिक नगर सिंगरौली में अपना मेयर जिता चुकी आम आदमी पार्टी भी विशेषकर विंध्य प्रदेश में अपने उम्मीदवार उतार चुकी है। कांग्रेस जिस तरह इन दलों की अनदेखी कर रही है, उससे भी लगता है कि उसे अपनी जीत पर कुछ ज्यादा ही भरोसा है। सवाल यह है कि ये दल किसके वोटबैंक में सेंध लगाएंगे। साफ है कि उसका असर कांग्रेस पर ही पड़ेगा।
पिछले विधानसभा चुनाव को याद किया जाना चाहिए। उसने अपने लोकतंत्र के अजीब रंग को जाहिर किया था। तब कांग्रेस की तुलना में भारतीय जनता पार्टी ने 47 हजार 927 वोट ज्यादा पाए थे। लेकिन सीटों के लिहाज से वह कांग्रेस से पांच सीटें कम रही है। तब कांग्रेस को 114 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि भाजपा को 109 सीटों पर। हालांकि भाजपा के तेरह ऐसे उम्मीदवार रहे, जिनकी जीत का अंतर बहुत ज्यादा था। कांग्रेस को इस उलटबांसी का ध्यान होना चाहिए। लेकिन उसके नेताओं की जमीनी स्तर की कार्रवाई ऐसी नजर नहीं आ रही।
वहीं भारतीय जनता पार्टी ने अपने सारे घोड़े खोल दिए हैं। संघ विचार परिवार तमाम उन सुराखों को भरने की कोशिश में प्राणपण से जुट गया है, जहां से हथेली के बालू की तरह वोट के खिसकने की शंका है। मध्य वर्ग दुखी तो है कि उसके टैक्स के पैसे से शिवराज मुफ्तखोरी करा रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि उसके लिए अब भी मोदी का नाम सबसे बड़ा है। मोदी का आकर्षण भी बरकरार है। फिर भाजपा ने किसी एक को नेता बनाने का ऐलान अब तक नहीं किया है। कांग्रेस में कमलनाथ के आगे रहने का संकेत साफ है कि यह बुजुर्ग नेता ही कांग्रेसी बहुमत की कमान संभालेगा। इससे दूसरे कद्दावर नेताओं की पूछ भी कम हुई है। इससे अंदरखाने में वे नाराज भी बताए जा रहे हैं। इसका असर कांग्रेस की उम्मीदों पर पड़े बिना नहीं रहेगा। हमास की कार्रवाई, केरल में उसके नेता के एक सम्मेलन में शामिल होने के बाद हुए धमाके के बाद एक तरह से मध्य वर्ग को फिर से भाजपा पर भरोसा बनाने का आधार मुहैया कराया है। इसीलिए चुनावी जानकारों को लगता है कि जिस तरह गुजरात भाजपा का गढ़ बना हुआ है, वैसा मध्य प्रदेश भी होने की राह पर बढ़ जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
(लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)