बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े अब सभी के सामने हैं। इस जनगणना में यादवों की आबादी जहां 14 प्रतिशत से ज्यादा है, वही सवर्णों की आबादी 15 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा है। कुलमिलाकर पिछड़े कहे जाने वाले यादव और अगड़े कहे जाने वाले ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ की आबादी करीब-करीब बराबर है। उल्लेखनीय तथ्य है कि 2011 की जनगणना में बिहार में डेढ़ प्रतिशत कायस्थ जाति के लोग थे लेकिन 2023 की जनगणना में उनकी संख्या मात्र 0.60 प्रतिशत पाई गई। इससे यह समझा जा सकता है की जनगणना कितनी प्रमाणिक है। जो खबरें छनकर आ रही है उसमें अगड़ी जाति के बहुत से लोगों का कहना है कि जनगणना के संबंध में उनके यहां कोई पूछताछ करने नहीं आया। इस जनगणना में जहां पिछड़ी जातियों की संख्या 27 प्रतिशत पाई गई वही अति पिछड़ी जातियों की संख्या 36 प्रतिशत पाई गई। अब जो लोग यह कहते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। तो क्या यह बताएंगे कि फिर बिहार मंत्रिपरिषद में सबसे बड़ी जनसंख्या समूह के अति पिछड़ों की संख्या मात्र पांच क्यों है? बेहतर होता बिहार की नीतीश सरकार जाति जनगणना के साथ इनकी आर्थिक स्थिति का भी सर्वेक्षण करा लेती तो सचमुच में आरक्षण की किसको जरूरत है यह स्पष्ट हो जाता। असलियत यह है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यादव अब कहीं पिछड़े नहीं हैं, इसी तरह से बिहार में यादव और कुर्मी भी अब किसी तरह से पिछड़े नहीं रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या नीतीश कुमार इसके लिए तैयार होंगे कि 27 प्रतिशत आरक्षण जो पिछड़ों को प्राप्त है वह पूरी तरह अति पिछड़ों को दे दिया जाए। यह वही अति पिछड़ी जातियां हैं जिनको विश्वकर्मा दिवस पर उनका जीवन स्तर बेहतर करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी बगैर गारंटी के 3 लाख तक का ऋण देने की घोषणा कर चुके हैं। पर विपक्षी दलों के पास जाति और आरक्षण चिल्लाने के अलावा और कुछ तो है नहीं। राहुल गांधी समेत विपक्षी दलों के सभी नेता जाति जनगणना के पक्षधर हैं और कमोवेश कहते हैं- जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी, ' तो क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि वह यह चाहते हैं कि जातियों की संख्या के आधार पर पूरा का पूरा आरक्षण कर दिया जाए। सोचा जा सकता है कि इस तरह से देश में जातियों के आरक्षण को लेकर कितनी मारामारी मच जाएगी। ऐसी ही स्थिति के चलते संख्याबल के आधार पर महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण मांगते हैं तो राजस्थान में जाट आरक्षण मांगते हैं, जिसका दूर-दूर तक कहीं औचित्य नहीं है।
इस देश के अधिकतर राजनीतिक दलों की यही सोच है कि सत्ता में किसी तरह जाकर खूब लूटो, बेशर्मी के साथ वंशवाद चलाओ और चूंकि विकास और मुद्दों के आधार पर जन समर्थन मिल नहीं सकता इसलिए जाति और संप्रदाय का कार्ड खेलो। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं- सबसे बड़ी जाति गरीबों की है और उन्हें ही संसाधनों पर पहला हक है। कांग्रेस पार्टी इस तरह से हिंदुओं और गरीबों को बांटने का कुचक्र कर रही है। निश्चित रूप से ऐसी बातें वह राजनेता ही कह सकता है जिसके लिए वोट नहीं आने वाली पीढ़ियां महत्वपूर्ण है.सौभाग्य की बात है कि देश का जनमानस भी इस बात को महसूस कर रहा है। इस देश में 61 प्रतिशत लोग चाहे वह जिस जाति एवं समुदाय के हों मोदी के साथ खड़े हैं। यह एक अच्छा लक्षण है कि जहां मोदी स्वयं पिछड़ी जाति से हैं वहां 70 प्रतिशत सवर्ण जातियां उनके पक्ष में खड़ी हैं. इसी तरह से 64 प्रतशित पिछड़ी जातियां भी मोदी के साथ गोलबंद हैं। इतना ही नहीं 58 प्रतिशत दलित भी मोदी को पुन: प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं। एकमात्र मुस्लिम ही ऐसा समुदाय है जिसमें 52 प्रतिशत राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते हैं. जहां तक पिछड़े पिछड़े चिल्लाने वाले नीतीश कुमार और राहुल गांधी का प्रश्न है,मात्र तीन प्रतिशत पिछड़े ही नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं, तो राहुल गांधी के लिए ऐसी संख्या मात्र 15 प्रतिशत है।
असलियत में यह सारा उद्यम 90 के दशक के मंडलवाद को उभारने का है.क्योंकि ऐसे लोगों को किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए,भले ही देश आने वाले वर्षों में विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था ना बन सके। पर इन्हें यह भी पता होना चाहिए कि देश में हिंदुत्व का जैसा प्रचार प्रसार हुआ है जो प्रकारांतर से राष्ट्रीयता का ही पर्याय है, उसमें चाहे अगड़े, चाहे पिछड़े हो या अनुसूचित जाति और जनजातियों से संबंधित बहुत बड़ा तबका हो, वह हिंदुत्व से आप्लावित हो चुका है. इसलिए अब गंगा की धारा को पीछे ले जाने का प्रयास सफल होने वाला- है नहीं। रहा सवाल आरक्षण का तो इस पर वोट बैंक की दृष्टि से नहीं बल्कि समग्र दृष्टि से विचार की जरूरत है। ताकि सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार गुणवत्ता और सामाजिक न्याय के बीच समुचित समन्वय बना रहे।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)