एकाधिक अस्मिताओं के भँवर में राष्ट्र

वज्रपात-ऊपर कंचन बारहा, भीतर भरी भंगार

Update: 2023-10-21 20:41 GMT

डॉ. आनन्द पाटील

पिछले 'वज्रपातÓ में मैंने जाति-आधारित जनगणना के सम्बन्ध में गुत्थमगुत्था पक्ष-विपक्ष को रेखांकित किया था। दुर्भाग्यपूर्ण है, किन्तु सत्य है कि हम कितने ही आधुनिक हो जाएं, हमारे मन-मस्तिष्क एवं सामाजिक आचरण-व्यवहार से जाति है कि जाती ही नहीं है, बल्कि वह अवर्णनीय रूप से ग्राह्य और विस्तारित होती जाती है। बातों ही बातों में जाति प्रकट होती रहती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो जाति भारतीय समाज का सनातन सत्य हो। कल तक जो जाति के नाम पर स्वयं को प्रताड़ित बताते थे और जाति-उन्मूलन के पक्षधर थे, वे भी जाति से चिपके हुए हैं। कहना न होगा कि साम्प्रतिक समय में जाति व्यक्तिगत एवं सामूहिक अस्मिता का आधार बन चुकी है। इसलिए राजनीतिक धुरन्धर जाति-आधारित जनगणना को आधार बना कर जाति-प्रेमी समाज में अपनी सुविधाजनक स्थिति बनाने हेतु यत्नशील हैं। इसी धारा में एक अन्य पक्ष की ओर ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता है - आज प्रत्येक व्यक्ति में प्राय: एकाधिक अस्मिताएँ जन्म लेकर विमर्श की घुट्टी से सुदृढ़ हो रही हैं। हमारे समय के यथार्थ का स्याह पक्ष यह है कि हम सभी एकाधिक या बहु-अस्मिताओं (मल्टीपल आइडेंटिटीज़) को ग्रहण किये हुए हैं। उद्देश्य है - अधिकाधिक लाभ। उदाहरण के लिए, स्त्री को एक पृथक् अस्मिता (सेकण्ड सेक्स) बना दिया गया है। यदि कोई स्त्री किसी आरक्षण लाभार्थी समूह से हो तो उसके पास एक और अस्मिता हो जाती है। आरक्षण से प्राप्त संवैधानिक अधिकार उसकी दूसरी अस्मिता बन जाती है। ऊपर से उसके पास यथावश्यकता क्षेत्रीय और भाषाई अस्मिता भी विद्यमान है। इस प्रकार वर्तमान में एक व्यक्ति एकाधिक अस्मिताओं का प्रयोक्ता है। लाभ-लोभ में इन अस्मिताओं का अकाट्य प्रयोग होता है।

'एकता से नि:सृत विविधताÓ को प्राय: भुला दिया गया है। भारत में भाषाई एवं भौगोलिक वैविध्य है, किन्तु भिन्नता (विभिन्न) कदापि नहीं है। न थी कभी, परन्तु भिन्नता के अतिग्रासी विभ्रम और स्वार्थान्धता के कारण नवनवीन अस्मिताओं को जन्म दिया गया है। इन एकाधिक अस्मिताओं का आधार व्यर्थ जाति-बोध, क्षेत्र-बोध, भाषा-बोध, लिंग-बोध है और भौतिक (आर्थिक) भाव से प्राय: सभी अस्मिताधारी अपने हितों को बचाये-बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील हैं। पिछले कुछ लेखों में वर्तमान जाति-आधारित ठेलमठेल से उत्पन्न जोखिम को रेखांकन के उपरान्त कुछ सहृदय चिन्तक मित्रों ने कहा - 'जो लोग जाति को समाप्त करने की बात करते हुए सोचते हैं कि उससे समाज में समरसता आ जायेगी। यह भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। नाम (जाति) भले ही चला जाय, किन्तु व्यवस्था यथावत ही रहेगी। समाज में कुछ लोग संसाधनों के कारण राजा जैसे रहेंगे। उनको सेवक चाहिए ही होंगे। राजाओं को भी मार्गदर्शक चाहिये ही। वित्त विशेषज्ञ भी अनिवार्य होंगे। तब व्यवस्था कैसे बदलेगी, पता नहीं। सोचा जाय।Ó यह मन्तव्य गौरवशाली भारत के वर्तमान को जानने-समझने और भविष्य को गढ़ने के लिए सहायक सिद्ध हो सकता है। यह सत्य है कि समय प्रवाह में नवीन संरचनाएँ (व्यवस्था) बनती रहती हैं, किन्तु पूर्व में आरेखित व्यवस्थाओं में सहजता और मनोमालिन्य न था। वह जीवन को सहज बनाने के लिए प्रयुक्त एवं रूढ़ हुई थीं।

अनौपचारिक चर्चा के दौरान एक पूर्व सेना अधिकारी ने एक तथ्य दिया कि 'वास्तव में, जाति-व्यवस्था धीरे-धीरे (अन्ततोगत्वा) तब विकसित हुई, जब तथाकथित वंचित समुदाय के लोगों ने 'स्व-हितÓ की दृष्टि से अपनी 'वित्तीय सुरक्षाÓ को प्रमुख एजेण्डा बना लिया। समाज के जातिविहीन हो जाने से कई समुदायों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न हो सकता था। उन्हें उनके परम्परागत व्यवसाय से जाति का आधार (वित्तीय संरक्षण) मिला था। कालान्तर में जाति-व्यवस्था को वित्तीय सुरक्षा के कारण ही संस्थागत बना दिया गया। आजकल शैक्षणिक संस्थान जाति-व्यवस्था को सुरक्षित ही नहीं, संरक्षित (प्रचार) करने वाले आधारभूत केन्द्र बन चुके हैं। आश्चर्य की बात है कि यह सब कुछ पुन: स्व-हित और वित्तीय सुरक्षा के कारण ही किया जा रहा है। जबकि आरक्षण कुछ पॉकेट्स का खेल है। ध्यातव्य है कि भारत में इस्लाम के उदय के उपरान्त जातियों को वर्गीकृत करने का जो कार्य आरम्भ हुआ, उसने औपनिवेशिक काल में भीषण रूप ले लिया। जाति-आधारित जनगणना का पहला ठोस रूप 1931 (ब्रिटिश शासनकाल) में प्रस्तुत हुआ था।

हिन्दू राजा सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में बाँधने और उसे सतत एकात्म बनाये रखने का प्रयास करते रहे, किन्तु जाति, पन्थ, पूजा-पाठ, उपासना पद्धति के आधार पर लोग स्वयं को दूसरे से भिन्न मानते-बताते रहे। कहते हैं कि मुगल वंशाधिकारी अकबर शैवोपासक एवं वैष्णवोपासकों (हिन्दुओं) को आपस में लड़वाता था और उस टकराव में उनमें से किसी के भी आहत होने तथा मारे जाने पर अट्टहास करता था। उस दौरान हिन्दुओं का इस प्रकार द्विभाजित होकर दो भिन्न (परस्पर विरोधी) अस्मिताओं के रूप में उदित होना हिन्दू द्वेषी सत्ता के लिए उत्कृष्ट प्रतिफल देने वाला सिद्ध हुआ था। कालान्तर में परस्पर विरोधिता परस्पर द्रोही एवं परस्पर घाती सिद्ध हुई और हिन्दुत्व की उत्तरोत्तर चीर-फाड़ का कारण बनी।

यह प्रमाणित है कि विदेशी आक्रान्ताओं के दमनकारी काल में देवोपासना के आधार पर हिन्दुओं को विभाजित करने के अनेकानेक प्रयास हुए हैं। भक्तिकालीन साहित्यिक चर्चाओं के दौरान यदा-कदा शैव-वैष्णव विवाद की चर्चा होती है। कुछ विद्वान उसे असत्य मानते हैं, किन्तु तुलसीदास सरीखे कालदृष्टा कवि ने उस सत्य का सघन रूप प्रस्तुत किया है - 'सिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न भावा।।Ó यह सम्पूर्ण वितण्डा अज्ञानता अथवा ज्ञानाभिमान एवं सनातनविमुख नयी अस्मिताओं को उभारने के कारण उत्तरोत्तर प्रदीर्घ हुआ है। वर्तमान में उसी अज्ञानता अथवा ज्ञानाभिमान एवं सनातनविमुखता में विकसित जाति-बोध, क्षेत्र-बोध, भाषा-बोध और लिंग-बोध के कारण एकाधिक अस्मिताएँ उत्पन्न हुई हैं। इसका विस्तार हिन्दू समाज के लिए आत्मघाती ही सिद्ध होगा।

यह सत्य है कि मनुष्य को केवल मनुष्य ही होना चाहिए था। और, जब धर्म, मजहब, रिलीजन बने ही तो मजहब एवं रिलीजन की भाँति हिन्दू भी एकात्म होते तो यह दुर्दशा न होती, किन्तु दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका। कभी ब्राह्मण भाइयों से बात कीजिए तो वे सरयूपारीण, मैथिल, भूमिहार, चितपावन, नम्बूदरीपाद, अय्यर, अयंगर इत्यादि भेद बताने लग जाते हैं और एक-दूसरे को निकृष्ट बताने लग जाते हैं। कहते हैं कि बहुतांश ब्राह्मणों में आपस में विवाह सम्बन्ध वर्जित हैं। जबकि विधर्मियों के लिए कोई भी हिन्दू स्त्री सदैव ग्राह्य रही है। उनमें किसी की भी भूमि व स्त्री ग्रहण करने की इच्छा सदैव प्रबल रही है। कश्मीर में पण्डितों के साथ जो हुआ, वह उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है। उनके विस्तार में एकात्मता प्रमाणित है।

आज उसी कश्मीर के अनन्तनाग में स्थित हिन्दू धर्मरक्षक सिखों के पावन तीर्थ श्री मटन साहिब गुरुद्वारा और उसी परिसर में विद्यमान नवीन मार्तण्ड मन्दिर के संरक्षकों में भूमि विवाद चल रहा है। कहते हैं, गुरु नानकदेव ने उस स्थान पर एक माह निवास किया था। उस विकट स्थान एवं विपरीत परिस्थितियों में बचे रहने के लिए पण्डित (ब्राह्मण) और हिन्दू धर्मरक्षक सिख, दोनों को संयुक्त उपक्रम करने की आवश्यकता है, किन्तु हिन्दुओं की एक विशेषता यह हो चली है कि वे आपस में भेदाभेद बढ़ा कर औरों का शिकार हो जाते हैं। यह इतिहास प्रमाणित सत्य है। कश्मीर में ही इस्लामिक आततायियों ने हजारों मन्दिर ढहा दिये और उन्हें कन्वर्ट कर दिया। दुर्भाग्य कि हिन्दुओं को उन अवशेषों में हिन्दू अस्मिता के अवशेष दृष्टिगोचर नहीं होते। जबकि हमारे पूर्वज जिस सनातन मार्ग का अनुसरण कर साथ चले थे, उसे पुन: स्मरण करने की आवश्यकता है - 'सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।Ó इसी आचरण से हिन्दू समाज-सभ्यता-संस्कृति शेष (जीवित) रह सकती है। हिन्दुओं को अपनी 'वुन्डेड सिविलाइजेशनÓ पतनोन्मुख बनने से पूर्व नानाविध भेदाभेदों से हट कर एकात्मता के सूत्रों का अनुसरण करना होगा।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)

Similar News