स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए स्वस्थ पुलिस का होना आवश्यक है। कानून-व्यवस्था की अच्छी स्थिति में ही देश का आर्थिक विकास हो पाता है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक ब्रिटिश-कालीन पुलिस व्यवस्था में देश की मांग के अनुरूप सुधार करने में विफल रहे हैं। मालूम हो कि भारत में पुलिस कार्य का संचालन या नियंत्रण करने वाला विधिक और संस्थागत ढाँचा हमें अंग्रेज़ों से विरासत में मिला है, जो एक जवाबदेह पुलिस बल स्थापित करने में अधिक सक्षम नहीं है। जबकि कई सुधार प्रस्तावों को भारत सरकार और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चिह्नित किया गया है, ऐसे सुधार वांछित सीमा तक प्राप्त या कार्यान्वित नहीं किये गए हैं। इस परिदृश्य में एक कुशल पुलिस व्यवस्था की ओर आगे बढ़ने के लिये आवश्यक है कि विधिक एवं संस्थागत ढाँचे में उपयुक्त संशोधन किया जाए। पिछले दिनों बिहार राज्य ने पुलिस व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए एक विशेष पहल की शुरुआत की है। बता दें कि बिहार पुलिस ने जांच अधिकारियों के लिए एक जनवरी से प्राथमिकी दर्ज होने के 75 दिनों के भीतर मामले की जांच पूरी करना बाध्यकारी बनाने का फैसला किया है। वर्ष 2024 के पहले दिन से सभी थानों और जिला पुलिस के प्रदर्शन की मासिक आधार पर समीक्षा भी की जाएगी। इस निर्धारित समय-सीमा में ही पुलिस को यह बताना होगा कि मामले में अभियुक्त दोषी हैं या नहीं। जांच में जो दोषी पाए जाएंगे उनके विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल कर ट्रायल की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। अभी मामले के अनुसंधान में औसतन 261 दिनों का समय लगता है। अगर महिला अपराध, अनुसूचित जाति-जनजाति या पाक्सो जैसी गंभीर धाराओं में मामला दर्ज है तो समय-सीमा 60 दिन होगी। गौरतलब है कि अपराध अनुसंधान विभाग को इसकी मानीटरिंग की जिम्मेदारी दी गई है। अनुसंधान के प्रदर्शन के आधार पर जिला और थानावार रैंकिंग भी बनाई जाएगी। इसमें देखा जाएगा कि किन जिलों और थानों ने समय सीमा के अंदर अनुसंधान का काम पूरा किया है। इसके आधार पर नियमित समीक्षा भी की जाएगी। एक जनवरी, 2024 से पहले के लंबित मामलों की जांच में तेजी लाने का निर्देश भी जिलों को दिया गया है। इसके लिए पुराने मामलों की प्राथमिकता सूची बनाई जाएगी। भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और साक्ष्य अधिनियम को बदलने के लिए पारित नए कानूनों के संबंध में केंद्र द्वारा गजट अधिसूचना के बाद बिहार पुलिस भी आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव लाने के लिए कमर कस रही है। बहरहाल इन तीन कानूनों के कार्यान्वयन के लिए अतिरिक्त ढांचागत सुविधाएं, सॉफ्टवेयर अपडेट और उपलब्ध मानव संसाधन प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। फिलहाल कुछ भी हो लेकिन अब बिहार पुलिस के इस नवाचारी व्यवस्था से अन्य राज्यों को भी सीख लेने की जरूरत हैं।
थानों की रैंकिंग और पुरस्कार: ऐसा अक्सर सुनने में आता है कि पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं करती या फिर बड़ी मशक्कत के बाद दर्ज करती है। ऐसे में कई बार पीड़ित व्यक्ति को थाने के चक्कर लगाने पड़ते हैं तो कई बार वह हार मान कर बैठ जाता है। यह सब इसलिए है क्योंकि लोगों को एफआइआर दर्ज कराने को लेकर अपने अधिकारों के बारे में पता ही नहीं होता है। कानून के तहत पुलिस एफआइआर दर्ज करने से इनकार नहीं कर सकती, बशर्ते नागरिक जागरूक हो। बहरहाल, देश के नागरिक मित्रवत पुलिस चाहते हैं, जो अमीरों और गरीबों के साथ समान व्यवहार करे।
औपनिवेशिक कानूनों से मुक्ति: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल पंद्रह अगस्त को लाल किले से अपने संबोधन में पांच प्रण किए थे, इनमें एक प्रण गुलामी की निशानियों को खत्म करना भी था। हाल में कानून संबंधी विशेष परिवर्तन उसी परिप्रेक्ष्य में ही हुए हैं। अंग्रेजी राज का पर्याय बने तीन मूलभूत कानूनों में आमूलचूल परिवर्तन किए गए हैं। 1860 में बने इंडियन पेनल कोड को अब भारतीय न्याय संहिता, 1898 में बने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और 1872 में बने इंडियन एविडेंस कोड को अब भारतीय साक्ष्य संहिता के नाम से जाना जाएगा। कुल 313 धाराएं बदली गई हैं। नये कानून महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर केंद्रित हैं। अब नाबालिग से दुष्कर्म और मॉब लिंचिंग के लिए फांसी की सजा दी जाएगी। राजद्रोह कानून ब्रिटिश सत्ता को कायम रखने के लिए था, इसे अब खत्म किया गया है। कुछ प्रचलित धाराओं की संख्या भी बदली गई है। जैसे धोखाधड़ी 420 धारा के अंतर्गत थी, इसे अब धारा 316 के रूप में जाना जाएगा। बलात्कार की धारा 376 को 63 में बदला जाएगा। लिहाजा, ऐसे में इन तमाम परिवर्तन से पुलिस व्यवस्था में बड़ा बदलाव देखने को जरूर मिलेगा।
(लेखक स्तंभकार हैं)